इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
फिर भी सलाह है कि:
कुछ कराे, ऐसा करो, तुम खुश रहो, हंसते रहो
पर न कुछ एेसा करो तुम पर सभी हंसने लगें
अौर इसका ध्यान उस प्रस्ताव को देख कर आया जिसमें पुरस्कार फेंक कर सरकार गिराने वालों को अपनी थकान के बाद ‘नोटबन्दी अभियान’ (यह नाम उनका ही दिया हुआ है, क्योंकि कहीं ऐसा प्रस्ताव नहीं है कि नोट छपेंगे नहीं, और आगे केवल नकदी विहीन लेन देन ही होगा, अपितु एक प्रयास है कि जिस अनुपात में नगदी से मुक्ति मिलेगी, उसी अनुपात में उन व्याधियों से मुक्ति मिलेगी जिनके कारण इस देश में भ्रष्टाचार का हाल यह है कि कोई तब तक अपना काम नहीं करता जब तक उसका हाथ ठंडा है। उसे गरम करने की जिम्मेदारी उसकी है जिसका काम रुका हुआ है, न्यायालय तक सालों साल इसलिए तकनीकी कारणों से मुकदमों को लटकाए रहते हैं कि न्यायाधीश की अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं या सताने वाले के द्वारा पूरी कर दी जाती हैं और इसलिए अनावश्यक स्थगनों से मुकदमें इस तरह लटके रह जाते हैं कि सजा की पूरी अवधि हिरासत में काटने के बाद अभियुक्त को बताया जाता है कि वह निरपराध था। इस प्रकिया में कितने लोग प्राण गंवाते हैं, कितने विक्षिप्त हो जाते हैं, कितने आत्महत्या कर लेते हैं, कितने न्याय पाने से पहले मर जाते हैं, इसका आंकड़ा न तो न्यायांग के पास है जो काम से लदा होने के बावजूद कार्यांग का काम संभालने को उतावला रहता है, परन्तु अपने फैसलों के लिए यह सीमा तय नहीं करता कि इतने समय के भीतर फैसला हो जाना चाहिए, या न्यायविचार के कर्मकांड को कम किया जाना चाहिए, जो फैसले सीधे आमने सामने बैठा कर एक बैठक में आधे घंटे में हो जाने चाहिए, उन पर अदालत के कर्मकांड और भ्रष्टता के कारण आठ दस साल का समय लग जाय। इसके बाद न्यायपालिका में इतने पद खाली पड़े हैं, का स्वत: समाधान हो जाता। कारण उनकी जरूरत ही नहीं थी।
विधायिका अपना काम नहीं कर रही, इसे संसद और विधान सभाओं और विधान परिषदों के प्रसारणों से सभी देख्ा रहे हैं या जान रहे हैं, परन्तु उसे कार्यपालिका के अधिकार चाहिए। इतने करोड़ का काम एक पार्षद कराएगा, इतने का विधायक, इतने का सांसद, जिसमें इबारत के नीचे खाली जगह का पाठ है कि इतने की हेराफेरी की छूट इन इन को दी जाती है। इतना ही नहीं, जनप्रतिनिधि स्थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों से अपनी इच्छापूर्ति की आशा कर सकते हैं और उनकी उपेक्षा करने पर इसे सांसद की अवमानना का प्रश्न बनाया जा सकता है।
कार्यपालिका इतने लगामों के बीच अपना काम ही नहीं कर सकती और निकम्मेपन का दोष उस पर । पुलिस अपराधी को पकड़ेगी, पार्षद, विधायक या सांसद उसे छुड़ा देगा और फिर भी अपराध के अपकीर्तिमान पुलिस का।) नया अवसर नयी आशा का संचार कर रहा है, पततो पततो न वा की याद दिलाता।
कार्यपालिका में दंभ और श्ाक्ति के दुरुपयोग की शिकायत नई नहीं है। सत्ता का लाभ इसे ही मिलता है और बहुत पुराने समय में सुकनासोपदश में यह समझाया गया था कि सत्ता किस तरह सुलझे हुए आदमी को भी मदहोश कर देती है और इसलिए सत्ता में बैठे व्यक्ति को असाधारण आत्म नियंत्रण काम लेना चाहिए, परन्तु उस सत्ता को नियंन्त्रित करने वाले अंग, न्यायांग और विधानांग यदि स्वयं भी सत्ता बनने का प्रयत्न करें तो अन्धा अन्धे ठेलियां दोऊ कूप पड़न्त का न्याय काम करता है ।
किसी देश या समाज में दुर्भाग्य का दौर वह होता है जिसमें लोग अपना कामन न करके दूसरों का नुक्स निकालने और उनका काम खुद करने को विह्वल रहते हैं। बात केवल ऊपर वर्णित अंगों की नहीं है । उनका उदाहरण इसलिए देना पड़ा कि वहां कार्यविभाजन बहुत स्पष्ट है और इस खतरे का पूर्वानुमान करते हुए है कि विभाजन के बिना घालमेल का दौर आ सकता है और इससे अराजकता पैदा हो सकती है, मर्यादाएं तय की गई थीं जिन्हें लगातार तोड़ा गया है।
साहित्यकार का काम आन्दोलन करना, सत्ता बदलना, सत्ता पर कब्जा करना नहीं है। यदि वह समझता है कि इसकी जरूरत है तो उसका काम अपने लेखन द्वारा समाज को प्रेरित करना है। वह आन्दोलन नहीं करता, उद्वेलित करता है अपनी रचनाओं के माध्यम से कि लोग आन्दोलन करके उस अपेक्षा की पूर्ति कर सकें। लगातार नकारात्मक रुख अपनाने के कारण अपनी साख और विश्वसनीयता तक खो चुका, और उस समाज से इस कटा हुआ साहित्यकार ‘हम गंवारों से अधिक सयाने हैं इसलिए हमारी बात तो माननी ही पड़ेगी’ की बदगुमानी पालता हुआ उस जनता के दुख से व्यथित है जो अपनी व्यथा को झेलते हुए अपना धैर्य और विश्वास कायम किए हुए है और उसे भडकाने के लिए जो संचार माध्यम उसके दुख से कातर हो कर उसके पास पहुंंचे उनको अपना दुख बताने के साथ ही अपने विश्वास और अडिगता का प्रमाण देते हुए उनको उनकी औकात बताती रही है।
लेखक हों या संचार माध्यम सभी की शक्ति का स्रोत जनसाधारण है और जब आप अपना काम ईमानदारी से करते हैं तो उस ईमानदारी और समझ के अनुरूप ही आप उसमें अपनी पैठ बना पाते है । अपनी कला, प्रतिभा, या साधनों और माध्यमों पर अधिकार से यदि कोई सोचे कि उसका माेल अधिक और इसलिए उसके विचार बाध्यकर है तो वह अपने को हास्यास्पद बनाता है और अपनी बिरादरी का सम्मान भी घटाता है। काश लेखक यह जान पाते कि क्या उनके बूते का है, क्या नहीं, तो भी अपनी ऊर्जा काे बर्वाद होने और अपनी क्षरित हो रही प्रतिष्ठा को और क्षरित होने से बचा पाते। परन्तु यहां तो लगता है होड़ लगी है, कहीं इतिहास में दर्ज होने से छूट न जायें इसलिए ‘हमको भी साथ ले ले की।’
यदि उनके सपनों के अच्छे दिनों की वापसी इस योजना की विफलता से ही आ रही हो तो हम उनकी सफलता की कामना करते है।’लोग कहते हैं कि लेखक चीज क्या, करके दिखलाएंगे हम बतलाएं क्या।’ सुभान अल्लाह ।