Post – 2016-12-31

इक बर‍हमन ने कहा है कि ये साल अच्‍छा है
फिर भी सलाह है कि:

कुछ कराे, ऐसा करो, तुम खुश रहो, हंसते रहो
पर न कुछ एेसा करो तुम पर सभी हंसने लगें

अौर इसका ध्‍यान उस प्रस्‍ताव को देख कर आया जिसमें पुरस्‍कार फेंक कर सरकार गिराने वालों को अपनी थकान के बाद ‘नोटबन्‍दी अभियान’ (यह नाम उनका ही दिया हुआ है, क्‍योंकि कहीं ऐसा प्रस्‍ताव नहीं है कि नोट छपेंगे नहीं, और आगे केवल नकदी विहीन लेन देन ही होगा, अपितु एक प्रयास है कि जिस अनुपात में नगदी से मुक्ति मिलेगी, उसी अनुपात में उन व्‍याधियों से मुक्ति मिलेगी जिनके कारण इस देश में भ्रष्‍टाचार का हाल यह है कि कोई तब तक अपना काम नहीं करता जब तक उसका हाथ ठंडा है। उसे गरम करने की जिम्‍मेदारी उसकी है जिसका काम रुका हुआ है, न्‍यायालय तक सालों साल इसलिए तकनीकी कारणों से मुकदमों को लटकाए रहते हैं कि न्‍यायाधीश की अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं या सताने वाले के द्वारा पूरी कर दी जाती हैं और इसलिए अनावश्‍यक स्‍थगनों से मुकदमें इस तरह लटके रह जाते हैं कि सजा की पूरी अवधि हिरासत में काटने के बाद अभियुक्‍त को बताया जाता है कि वह निरपराध था। इस प्रकिया में कितने लोग प्राण गंवाते हैं, कितने विक्षिप्‍त हो जाते हैं, कितने आत्‍महत्‍या कर लेते हैं, कितने न्‍याय पाने से पहले मर जाते हैं, इसका आंकड़ा न तो न्‍यायांग के पास है जो काम से लदा होने के बावजूद कार्यांग का काम संभालने को उतावला रहता है, परन्‍तु अपने फैसलों के लिए यह सीमा तय नहीं करता कि इतने समय के भीतर फैसला हो जाना चाहिए, या न्‍यायविचार के कर्मकांड को कम किया जाना चाहिए, जो फैसले सीधे आमने सामने बैठा कर एक बैठक में आधे घंटे में हो जाने चाहिए, उन पर अदालत के कर्मकांड और भ्रष्‍टता के कारण आठ दस साल का समय लग जाय। इसके बाद न्‍यायपालिका में इतने पद खाली पड़े हैं, का स्‍वत: समाधान हो जाता। कारण उनकी जरूरत ही नहीं थी।
विधायिका अपना काम नहीं कर रही, इसे संसद और विधान सभाओं और विधान परिषदों के प्रसारणों से सभी देख्‍ा रहे हैं या जान रहे हैं, परन्‍तु उसे कार्यपालिका के अधिकार चाहिए। इतने करोड़ का काम एक पार्षद कराएगा, इतने का विधायक, इतने का सांसद, जिसमें इबारत के नीचे खाली जगह का पाठ है कि इतने की हेराफेरी की छूट इन इन को दी जाती है। इतना ही नहीं, जनप्रतिनिधि स्‍थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों से अपनी इच्‍छापूर्ति की आशा कर सकते हैं और उनकी उपेक्षा करने पर इसे सांसद की अवमानना का प्रश्‍न बनाया जा सकता है।
कार्यपालिका इतने लगामों के बीच अपना काम ही नहीं कर सकती और निकम्‍मेपन का दोष उस पर । पुलिस अपराधी को पकड़ेगी, पार्षद, विधायक या सांसद उसे छुड़ा देगा और फिर भी अपराध के अपकीर्तिमान पुलिस का।) नया अवसर नयी आशा का संचार कर रहा है, पततो पततो न वा की याद दिलाता।

कार्यपालिका में दंभ और श्‍ाक्ति के दुरुपयोग की शिकायत नई नहीं है। सत्‍ता का लाभ इसे ही मिलता है और बहुत पुराने समय में सुकनासोपदश में यह समझाया गया था कि सत्‍ता किस तरह सुलझे हुए आदमी को भी मदहोश कर देती है और इसलिए सत्‍ता में बैठे व्‍यक्ति को असाधारण आत्‍म नियंत्रण काम लेना चाहिए, परन्‍तु उस सत्‍ता को नियंन्त्रित करने वाले अंग, न्‍यायांग और विधानांग यदि स्‍वयं भी सत्‍ता बनने का प्रयत्‍न करें तो अन्‍धा अन्‍धे ठेलियां दोऊ कूप पड़न्‍त का न्‍याय काम करता है ।

किसी देश या समाज में दुर्भाग्‍य का दौर वह होता है जिसमें लोग अपना कामन न करके दूसरों का नुक्‍स निकालने और उनका काम खुद करने को विह्वल रहते हैं। बात केवल ऊपर वर्णित अंगों की नहीं है । उनका उदाहरण इसलिए देना पड़ा कि वहां कार्यविभाजन बहुत स्‍पष्‍ट है और इस खतरे का पूर्वानुमान करते हुए है कि विभाजन के बिना घालमेल का दौर आ सकता है और इससे अराजकता पैदा हो सकती है, मर्यादाएं तय की गई थीं जिन्‍हें लगातार तोड़ा गया है।

साहित्‍यकार का काम आन्‍दोलन करना, सत्‍ता बदलना, सत्‍ता पर कब्‍जा करना नहीं है। य‍दि वह समझता है कि इसकी जरूरत है तो उसका काम अपने लेखन द्वारा समाज को प्रेरित करना है। वह आन्‍दोलन नहीं करता, उद्वेलित करता है अपनी रचनाओं के माध्‍यम से कि लोग आन्‍दोलन करके उस अपेक्षा की पूर्ति कर सकें। लगातार नकारात्‍मक रुख अपनाने के कारण अपनी साख और विश्‍वसनीयता तक खो चुका, और उस समाज से इस कटा हुआ साहित्‍यकार ‘हम गंवारों से अधिक सयाने हैं इसलिए हमारी बात तो माननी ही पड़ेगी’ की बदगुमानी पालता हुआ उस जनता के दुख से व्‍यथित है जो अपनी व्‍यथा को झेलते हुए अपना धैर्य और विश्‍वास कायम किए हुए है और उसे भडकाने के लिए जो संचार माध्‍यम उसके दुख से कातर हो कर उसके पास पहुंंचे उनको अपना दुख बताने के साथ ही अपने विश्‍वास और अडिगता का प्रमाण देते हुए उनको उनकी औकात बताती रही है।

लेखक हों या संचार माध्‍यम सभी की शक्ति का स्रोत जनसाधारण है और जब आप अपना काम ईमानदारी से करते हैं तो उस ईमानदारी और समझ के अनुरूप ही आप उसमें अपनी पैठ बना पाते है । अपनी कला, प्रतिभा, या साधनों और माध्‍यमों पर अधिकार से यदि कोई सोचे कि उसका माेल अधिक और इसलिए उसके विचार बाध्‍यकर है तो वह अपने को हास्‍यास्‍पद बनाता है और अपनी बिरादरी का सम्‍मान भी घटाता है। काश लेखक यह जान पाते कि क्‍या उनके बूते का है, क्‍या नहीं, तो भी अपनी ऊर्जा काे बर्वाद होने और अपनी क्षरित हो रही प्रतिष्‍ठा को और क्षरित होने से बचा पाते। परन्‍तु यहां तो लगता है होड़ लगी है, कहीं इतिहास में दर्ज होने से छूट न जायें इसलिए ‘हमको भी साथ ले ले की।’

यदि उनके सपनों के अच्‍छे दिनों की वापसी इस योजना की विफलता से ही आ रही हो तो हम उनकी सफलता की कामना करते है।’लोग कहते हैं कि लेखक चीज क्‍या, करके दिखलाएंगे हम बतलाएं क्‍या।’ सुभान अल्‍लाह ।

Post – 2016-12-31

इक बर‍हमन ने कहा है कि ये साल अच्‍छा है
फिर भी सलाह है कि

कुछ कराे, ऐसा करो, तुम खुश रहो, हंसते रहो
पर न कुछ एेसा करो तुम पर सभी हंसने लगें
जो करो यह सोचलसे वह है तुम्‍हारा काम भी
मुंह के बल तुम खुद गिरो सब फब्तियां कसने लगें।

अौर इसका ध्‍यान उस प्रस्‍ताव को देख कर आया जिसमें पुरस्‍कार फेंक कर सरकार गिराने वालों को अपनी थकान के बाद ‘नोटबन्‍दी अभियान’ (यह नाम उनका ही दिया हुआ है, क्‍योंकि कहीं ऐसा प्रस्‍ताव नहीं है कि नोट छपेंगे नहीं, और आगे केवल नकदी विहीन लेन देन ही होगा, अपितु एक प्रयास है कि जिस अनुपात में नगदी से मुक्ति मिलेगी, उसी अनुपात में उन व्‍याधियों से मुक्ति मिलेगी जिनके कारण इस देश में भ्रष्‍टाचार का हाल यह है कि कोई तब तक अपना काम नहीं करता जब तक उसका हाथ ठंडा है। उसे गरम करने की जिम्‍मेदारी उसकी है जिसका काम रुका हुआ है, न्‍यायालय तक सालों साल इसलिए तकनीकी कारणों से मुकदमों को लटकाए रहते हैं कि न्‍यायाधीश की अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं या सताने वाले के द्वारा पूरी कर दी जाती हैं और इसलिए अनावश्‍यक स्‍थगनों से मुकदमें इस तरह लटके रह जाते हैं कि सजा की पूरी उम्र हिरासत में काटने के बाद अभियुक्‍त को बताया जाता है कि वह निरपराध था। इस प्रकिया में कितने लोग प्राण गंवाते हैं, कितने विक्षिप्‍त हो जाते हैं, कितने आत्‍महत्‍या कर लेते हैं, कितने न्‍याय पाने से पहले मर जाते हैं, इसका न आंकड़ा न तो न्‍यायांग के पास है जो काम से लदा होने के बावजूद कार्यांग का काम संभालने को उतावला रहता है, परन्‍तु अपने फैसलों के लिए यह सीमा तय नहीं करता कि इतने समय के भीतर फैसला हो जाना चाहिए, या न्‍यायविचार के कर्मकांड को कम किया जाना चाहिए, जो फैसले सीधे आमने सामने बैठा कर एक बैठक में आधे घंटे में हो जाने चाहिए उन पर अदालत के कर्मकांड और भ्रष्‍टता के कारण आठ दस साल का समय लग जाय। इसके बाद न्‍यायपालिका में इतने पद खाली पड़े हैं, का स्‍वत: समाधान हो जाता। कारण उनकी जरूरत ही नहीं थी।
विधायिका अपना काम नहीं कर रही, इसे पूरा देश संसद और विधान सभाओं और विधान परिषदों के प्रसारणों से सभी देख्‍ा रहे हैं या जान रहे हैं, परन्‍तु उसे कार्यपालिका के अधिकार चाहिए। इतने करोड़ का काम एक पार्षद कराएगा, इतने का विधायक, इतने का सांसद, जिसमें इबारत के नीचे खाली जगह का पाठ है कि इतने की हेराफेरी की छूट इन इन को दी जाती है। पर इतना ही नहीं, जनप्रतिनिधि स्‍थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों से अपनी इच्‍छापूर्ति की आशा कर सकते हैं और उनकी उपेक्षा करने पर इसे सांसद की अवमानना का प्रश्‍न बनाया जा सकता है।
कार्यपालिका इतने लगामों के बीच अपना काम ही नहीं कर सकती और निकम्‍मेपन का दोष उस पर । पुलिस अपराधी को पकड़ेगी, पार्षद, विधायम या सांसद उसे छुड़ा देगी और फिर भी अपराध के अपकीर्तिमान पुलिस का।

कार्यपालिका में दंभ और श्‍ाक्ति के दुरुपयोग की शिकायत नई नहीं है। सत्‍ता का लाभ इसे ही मिलता है और बहुत पुराने समय में सुकनासोपदश में यह समझाया गया था कि सत्‍ता किस तरह सुलझे हुए आदमी को भी मदहोश कर देती है और इसलिए सत्‍ता में बैठे व्‍यक्ति को असाधारण से नियंत्रण काम लेना चाहिए, परन्‍तु उस सत्‍ता को नियंन्त्रित करने वाले अंग, न्‍यायांग और विधानांग यदि स्‍वयं भी सत्‍ता बनने का प्रयत्‍न करें तो अन्‍धा अन्‍धे ठेलियां दोऊ कूप पडन्‍त का न्‍याय काम करता है ।

किसी देश या समाज में दुर्भाग्‍य का दौर वह होता है जिसमें लोग अपना कामन न करके दूसरों का नुक्‍स निकालने और उनका काम खुद करने को विह्वल रहते हैं। बात केवल ऊपर वर्णित अंगों की नहीं है । उनका उदाहरण इसलिए देना पड़ा कि वहां कार्यविभाजन बहुत स्‍पष्‍ट है और इस खतरे का पूर्वानुमान करते हुए है कि विभाजन के बिना घालमेल का दौर आ सकता है और इससे अराजकता पैदा हो सकती है।
साहित्‍यकार का काम आन्‍दोलन करना, सत्‍ता बदलना, सत्‍ता पर कब्‍जा करना नहीं है। य‍दि वह समझता है कि इसकी जरूरत है तो उसका काम अपने लेखन द्वारा समाज को प्रेरित करना है। वह आन्‍दोलन नहीं करता, उद्वेलित करता है अपनी रचनाओं के माध्‍यम से कि लोग आन्‍दोलन करके उस अपेक्षा की पूर्ति कर सकें। लगातार नकारात्‍मक रुख अपनाने के कारण अपनी साख और विश्‍वसनीयता तक खो चुका, और उस समाज से कटा हुआ साहित्‍यकार ‘हम गंवारों से अधिक सयाने हैं इसलिए हमारी बात तो माननी ही पड़ेगी’ की बदगुमानी पालता हुआ उस जनता के दुख से व्‍यथित है जो अपनी व्‍यथा को झेलते हुए अपना धैर्य और विश्‍वास कायम किए हुए है और उसे भडकाने के लिए जो संचार माध्‍यम उसके दुख से कातर हो कर उसके पास पहुंंचे उनको अपना दुख बताने के साथ ही अपने विश्‍वास और अडिगता का प्रमाण देते हुए उनको उनकी औकात बताती रही है।

लेखक हों या संचार माध्‍यम सभी की शक्ति का स्रोत जनसाधारण है और जब आप अपना काम ईमानदारी से करते हैं तो उस ईमानदारी और समझ के अनुरूप ही आप उसमें अपनी पैठ बना पाते है । अपनी कला, प्रतिभा, या साधनों और माध्‍यमों पर अधिकार से यदि वह सोचे कि उसका माेल अधिक और इसलिए बाध्‍यकर है तो वह अपने को हास्‍यास्‍पद बनाता है और अपनी बिरादरी का सम्‍मान भी घटाता है। काश लेखक यह जान पाते कि क्‍या उनके बूते का है, क्‍या नहीं तो भी अपनी ऊर्जा काे बर्वाद होने और अपनी क्षरित हो रही प्रतिष्‍ठा को और क्षरित होने से बचा पाते। परन्‍तु यहां तो लगता है होड़ लगी है, कहीं इतिहास में दर्ज होने से छूट न जायें इसलिए ‘हमको भी साथ ले ले की।’

यदि उनके सपनों के अच्‍छे दिनों की वापसी इस योजना की विफलता से ही आ रही हो तो हम उनकी सफलता की कामना करते है। ‘लोग कहते हैं कि लेखक चीज क्‍या, करके दिखलाएंगे हम बतलाएं क्‍या।’ सुभान अल्‍लाह।

Post – 2016-12-30

मुसाफिर जायेगा कहां

इस्‍लाम के नाम पर या उसकी आड़ में अपनी जमात को भड़काने, उन्‍हें भारत की लूट से मालामाल होने और अगर मर ही गए तो गाजी बनने के सौभाग्‍य से प्रेर‍ित कर के प्राणों पर खेलने वालेे हमलावरों को छोड़ दें जो बाद में भी अपना रिश्‍ता अपने देश से जोड़ने और भारत में बस जाने के बाद भी अपने को अजनवी अनुभव करते थे, हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दुओं और मुसलमानों के संबंध कभी द्वेषपूर्ण नहीं रहे क्‍योंकि वे अधिसंख्‍य मुसलमान भारतीय रक्‍त के थे और धर्मान्‍तरित होने के बाद भी अपनी पुरानी पहचान से जुड़े हुए थे। इसके कई नमूने पेश किए जा सकते हैं परन्‍तु उन्‍हें सुनने का समय आपको नहीं होगा।

इन कारणों से मैं उस नव्‍य पुराण पर विश्‍वास नहीं कर पाता कि वर्णव्‍यवस्‍था से तंग आकर दलित जातियों ने इस्‍लाम के मानवतावादी संदेश से आकर्षित हो कर इस्‍लाम कबूल किया।

यदि ऐसा था तो वे सभी जातियां जो हिन्‍दू समाज में दलित श्रेणी में आती है, वे इस्‍लाम कबूल कर चुकी हाेेतीं – धोबी, चमार, निषाद आदि- या इस्‍लाम कबूल करने वालों में दलितों जैसे पेशों के लोग बड़ी संख्‍या में पाए जाते, (क्‍योंकि इस्‍लाम ने ईसाइयों की तरह आर्थिक प्रलोभन दे कर किसी का न तो धर्मान्‍तरण किया न ही उनके पुराने पेशों से उन्‍हें बाहर लाने का प्रयत्‍न किया। मुसलमान हो गया, काम पूरा हो गया )।

ऐसा नहीं है, इसलिए इसका कोइ दूसरा कारण तलाशना होगा। वे लोग जिनकेे व्‍यवसाय, कारोबार का सीधा संबन्‍ध राज्‍य या प्रशासन से था वेे प्रकोप से बचने के लिए या तो धर्मान्‍तरित हो गए अथवा यह दिखाते रहे कि वे इस्‍लामपरस्‍त है। जिनके पास अपनी लागत का कोई माल हो सकता था जिसे लूटा जा सकता था, वे उसी तरह धर्मान्‍तरित हो गए जैसे जजिया या दूसरे दबावों में आने वाले हाेे गए या राजस्‍व के भुगतान में चूक होने पर दंडस्‍वरूप गोमांस खिलाए जाने से अपने को धर्मभ्रष्‍ट मान कर अपनोंं का धर्म बचा

ने के लिए स्‍वयं अलग रहने और विवशता में इस्लामी तर्ज अपनाने को बाध्‍य हुए। धर्मान्‍तरित हुए जुलाहे, पीलवान जो राजाओं की सेवा में रहते थे। नट जिन्‍होंने अपनी सामाजिक व्‍यवस्‍था भी नहीं बदली, मातृृसत्‍ताक ही रहे । इनकी प्रमुख भूूमिका दुर्ग भेद की थी। ये बांस के पांव लगा कर दुर्गप्राचीरों की ऊचाई को हेय बना सकते थे, रस्‍से पर चलते हुए दुर्ग की परिखा या नहर को पार कर सकते थ, अौर नृृत्‍य, अभिनय, गायन की परंंपरा से परंपरागत से जुड़े थे जिनको आश्रयदाताओं की अपेक्षा होती है, इसलिए ये मुसलमान तो बन गए पर अपनी रीति नीति निभाते रहे।

सबसे रोचक है बुनकरों या जुलाहों का दोफांस जिसके सबसे प्रखर प्रवक्‍ता कबीर हैं। वह मुसलमान हैं और वेदान्‍ती भाषा में अपने विचार प्रकट करते हैं। इस तथ्‍य को दुहराने की जरूरत है कि य‍दि वर्णव्‍यवस्‍था के सताए हुए लोगों ने इस्‍लाम कबूल किया होता तो उन पेशों से जुड़े मुसलमानाेे की संख्‍या हिन्‍दुओं से कम से कम आनुपातिक गणना में अधिक होती । ऐसा नहीं हैै । इसलिए सूफियों के प्रेमजाल में बधंकर उनका प्रसाद ग्रहण करने के अपराध के कारण वहिष्‍कृत जनों को छोड़़ कर शेष भारतीय जनों का धर्मान्‍तरण विवशत में हुअ था इसलिए भारतीय मूल के मुसलमानाें का हृदय हिन्‍दू मूल्‍यों, मानों और रीति रिवाजों के साथ था। इसकी अगली विवशता यह कि वे जानते थे कि हिन्‍दुूू समाज उनको अपना नहीं सकता था इसलिए वे मुसलमान वन कर रहने को बाध्‍य थे। इससे उनके मन में कोई मलिनता नहीं थी यह रीति का प्रश्‍न था जिसका वे स्‍वयं भी सम्‍मान करते थे इसलिए हिन्‍दुओं से उनका आन्‍तरिक विरोध न था।

मैंने इस ओर ध्‍यान दो कारणों से दिलाया है । एक यह प्रचार कि इस्‍लाम साम्‍यवादी था इसलिए विषमता के सताए लोगों ने इसका वरण किया, जांचने पर सही नहीं मिलता। सच को जानना ही अपनी समस्‍याओं से बाहर आने की संभावना पैदा करता है।

दूसरा यह कि मुस्लिम शासन काल में भी इन विविध कारणों से सामाजिक स्‍तर पर मुसलमानों से हमारे रिश्‍ते खराब नहीं थे । आपस में प्रेम भाव था। एक का काम दूसरे के बिना नहीं चल सकता था और कुछ मामलों में आज की सचाई इससे भिन्‍न नहीं है। इसलिए धार्मिक भिन्‍नता तो थी, परन्‍तु विद्वेष न था। यहां तक कि रईसों और ताल्‍लुकेदाराेें में जो अपनी पहचान उन इस्‍लामी देशोेे से जोड़ते थे जो पहले ही इस्‍लाम कबूल कर चुके थे और इस पर गर्व करते थे – कहां बुखारा और उस पर फख्र करने वाले बुखारी, कहांं बख्‍तर (बैक्ट्रिया) और कहां बख्‍तरी, ईरानी, खान और मीर और अमीर कुछ पूछिए नहीं । दि अर्लियर दि बेटर। पर भारतीय वर्णव्‍यवस्‍था का लाभ किन्‍हीं परिस्थितियों में धमातरित ऊंची जातियों के हिन्‍दूओं को भी मिला । वे खान और राणा या दूसरे हिन्‍दू उपनामों में मामूली हेर फेर करके अपनी पुरनाी हैसियत का वैसे ही गरूर पाले रहे जैसे विदेशी मूल से अपना संबन्‍ध जोड़ने वाले।इसके कारण विदेशी मूल का दावा करने वाले जमींदारों और उच्‍च वर्णों से धर्मान्‍तरित हिन्‍दुओं के बीच भी पारस्‍परिक लेेन देन उस दौर में भी बना रहा जब धार्मिक कट्टरता और प्रशासनिक दबाव में हिन्‍दुओं का सम्‍मान से जीना मुश्किल था।
दोनों समुदायों के बीच भीतरी मनोमालिन्‍य और घृणा का सूत्रपात कंपनी शासन के बाद, उसकी अपनी चालों से आरंभ हुआ और इसे बहुत चालाकी से अमल में लाया गया। इसकी पड़ताल हम कल करेंगे। यदि हम अपनी उक्‍त व्‍याख्‍या में कहीं एकांगी या गलत हैं तो इसकी पड़ताल आप करेंगे क्‍योंकि मैं सही हूं नहीं, सही होना चाहता हूं। हो सकता है हमारे विचारों से आपकी भी कुछ भ्रान्तियां दूर हों। वादे वादे जायते तत्‍वबोध: । हमने तो संवाद ही बन्‍द कर रखा है, तत्‍वबोध कैसे होगा।

Post – 2016-12-29

अपना अपना इतिहास – 2

इतिहास की हमारी समझ अनन्‍तता से जुड़ी थी जिसमें मनुष्‍य का जीवन नगण्‍य था, समाज के अनुभव प्रधान थे और विचारों काेे वैभव और शक्ति प्रदर्शन से अधिक महत्‍व दिया जाता था। मनुष्‍य के एक वर्ष के बराबर देवों का एक दिन, हजार वर्षों के बराबर देवताओं का एक वर्ष। सौ देववर्षों का उनका जीवन। इस विराट काल और शक्ति और वैभव की तुच्‍छता का बोध उस कहानी में जिसमें चींटियों की पंक्ति को देख कर तत्‍व दर्शी कहता है ये सभी कभी इन्‍द्र रह चुके हैं। इसमें मनुष्‍य के कारनामों का क्‍या गुणगान । धर्म, आचरण, विचार स्‍थायी हैं और धन, वैभव, प्रताप क्षणभंगुर। यह सही था या गलत, था यही। इससे देवोपम राजाओं के जीवन को भी देववर्ष मान कर उसे पुन: मानववर्ष में बदल कर जब वे कहते हैं अमुक राजा साठ हजार साल तक जीवित रहे तो इससे न तो उस इतिहास का पता चलता है जिसे कालबद्ध इतिहास कहते हैं, न ही कालबद्ध इतिहासबोध उस गहनता और महिमा को समझ पाता है जो हमारे अतीतबोध में रहा है।

एक और तथ्‍य की ओर ध्‍यान दिलाएं, मनुष्‍य के जीवन को इतिहास से न तो प्रेरणा मिली, न ही इतिहास से मनुष्‍य कुछ सीख सका है। मनुष्‍य के जीवन को प्रेरित और नियन्त्रित करने का काम पुराणकथाएं करती हैं। यह सभी पन्‍थों और विचारधाराओं के लिए सही है, इसलिए विचारधाराएं अपना अलग पुराण गढ़ लिया करती हैं जिससे उससे जुड़े या प्रभावित लोगों को बांध कर रखने में मदद मिलती है।

कालांकित घटनावृत्‍त जिसे हम इतिहास कहते हैं, उससे हमारे शिक्षित समाज का परिचय उस समय हुआ जब उसका उपहास करने और नष्‍ट करने का आयोजन इ‍सलिए किया जा रहा था कि इसके समक्ष पश्चिम का नस्‍लवादी और सनातन श्रेष्‍ठताबोध चूर चूर हो जाता था। इतिहास हमारे यहां अहमहमिका औजार बन कर आया और इसने सामाजिक जीवन को उससे अधिक विषाक्‍त किया जितना वह अपनी आन्‍तरिक व्‍यवस्‍था, कुरीतियों और अन्‍धविश्‍वासों के कारण इससे पहले था। इसका उपयोग उन लोगों ने जो भारत की खोज कर रहे थे – इसकी खनिज संपदा का, इसके प्राकृतिक उत्‍पादों का, इसकी प्रतिरोध क्षमता का, इसकी प्रेरणा के स्रोतों का – यदि अपने हितों के लिए किया तो इससे अलग वे कुछ कर ही नहीं सकते थे। हम इस विषय में सचेत नहीं हुए आैर उनकी इन खोजों के इरादे को नहीं समझ सके तो यह इस बात का प्रमाण है कि जिस समय हमारा पश्चिम से आमना-साहना हुआ हम सभी दृष्टियों से उनसे बहुत पीछे जा चुके थे और उनका सामना करने की स्थिति में नहीं थे।

स्‍वतन्‍त्र होने पर भी हमने उनके ही इतिहासदर्शन का अनुसरण किया और आलंक‍ारिक असहमति प्रकट की, बुनियादी प्रश्‍नों पर उनके ही जाल में फंसे रहेे, यह दुर्भाग्‍यपूर्ण था, परन्‍तु इससे अधिक दुर्भाग्‍यपूर्ण यह तथ्‍य था कि भिन्न कारणों, प्रलोभनों और आग्रहों से जब उनके रचे हुए मायाजाल को तोड़ने वाली, तर्कपूर्ण, प्रामाणिक और मुक्तिदायिनी व्‍याख्‍यायें आई तो उन्‍हें समझने की जगह उनका विरोध करते हुए उसी बौद्धिक दासता को इतना श्‍लाघ्‍य बना दिया गया कि मुक्ति की आकांक्षा तक गर्हित प्रतीत होती है।

हम इस क्रम में उस ग्रन्थि केे निर्माण की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं जिसमें हिन्‍दू अभिज्ञान को ही इतना गर्हित बना दिया गया कि इसके सिवाय कुछ भी, स्‍वीकार्य है, यह नहींं। भाजपा शासन न तो अपने राज्‍यों में किसी अन्‍य दल के प्रशासन से गया बीता रहा है, न केन्‍द्र में जब भी उसे शासन का अवसर मिला तब उसने किसी वर्ग, समुदाय, और समग्र राष्‍ट्र के हित की दृष्टि से किसी भी अन्‍य के किसी भी काल के शासन से घटिया परिणाम नहीं दिए, फिर भी यदि उसके सिवाय कोई भी, कैसा भी, भ्रष्‍ट, दुष्‍ट, गुंडा और लफंगा शासन भी हमें स्‍वीकार्य है, परन्‍तु यह नहीं, जिसके साथ किसी भी रूप में हिन्‍दू शब्‍द जुड़ गया है। हम अपना सत्‍यानाश करा सकते हैं, आततायियों के साथ खड़े हो सकते हैं, इसे मिटाने के लिए शत्रु देशों तक की मदद ले और उसकी योजना का अंग बन सकते हैं, परन्‍तु इसे सहन नहीं कर सकते, यह किसकी सोच हो सकती है? देश और समाज का बुरा होता हो तो हो, हम इसके हाथों उसका भला होते नहीं देख सकते। यह किसकी सोच हो सकती है? जरा गौर से सोचें तो इस देश पर वोट बैंक बन कर प्राक्‍सी शासन किसका चलता रहा है तो आपको मेरे उन कथनों का कि कम्‍युनिस्‍ट पार्टियां और कांग्रेेस ही नहीं, वे पार्टियां भी जो सर्वजनहिताय, सर्वजनलाभाय को सेक्‍युलर प्रशासन का लक्ष्‍य मानती हैं और इस आदर्श का पालन करने को तत्‍पर एकमात्र दल का विरोध करते हुए ‘स्‍वहिताय, स्‍वलाभाय, वंशलाभाय संस्थिता, देशद्राेहाय, नाशाय, विघ्‍ाटनाय समुद्यता’ पार्टियों के साथ पूरा वाचाल वर्ग खड़ा हो जाता है तो उन सभी की भर्त्‍सना करने की जगह इसके कारण को समझना होगा कि हिन्‍दू शब्‍द को इतना गर्हित और असह्य कैसे बना दिया गया कि वे नरक में जाने को तैयार हो सकते हैं, परन्‍तु हिन्‍दू उपपद से जुडे़ किसी संगठन या दल या प्रशासन द्वारा तैयार किए जाने वाले या किए गए स्‍वर्ग में रहने को तैयार नहीं हैं और उस स्‍वर्ग की व्‍याख्‍या अपने ब्रेनपावर से ऐसी कर सकते हैं कि वह नरक का पर्याय लगे।

वजह तो कुछ न कुछ रही होगी, यूं ही कोई बेवफा तो नहीं होता। इतिहास की भूमिका बस यहीं तक सीमित है, कि यह इस वजह को समझने में सहायक हो सकता है, परन्‍तु तभी जब हम अपने इच्छित नतीजों के लिए अपनी अपव्‍याख्‍या से इसका ही सत्‍यानाश न कर दें।

अंग्रेजाेें को एक ही चिन्‍ता थी कि अपनी मूल भूमि से इतनी दूर इतने कम लोगों के बल पर इतने बड़े देश का नियन्‍त्रण कैसे किया जा सकता है । इस चिन्‍ता को बहुत सटीक रूप में मेकाले ने व्‍यक्‍त किया था। इसका एक ही तरीका था कि भारतीयों को प्रशासन में हिस्‍सेदार बनाया जाये। इतनी बड़ी संख्‍या में अंग्रेज लाये नहीं जा सकते न यहां बसाये जा सकते हैं, जहां वे अल्‍पमत बन कर रहेंगे, इसलिए अच्‍छा है कि भारतीयाेें को ही अंग्रेजी संस्‍थाओं, विचारों से परियच का अवसर दिया जाय, उन्‍हें ही अपनी भाषा सिखा कर अपने उपयोग के लिए तैयार किया जाय। और यहां से आरंभ हुई थी अंग्रेजी शिक्षा और उसके माध्‍यम से अवसरों की तलाश और उस प्रक्रिया में उन विचारों और विश्‍वासों को अपनी चेतना का अंग बनाना जो अपव्‍याख्‍या से हमारे उपभोग के लिए तैयार की गई थीं।

मैकाले का बहुत उपहास किया जाता है परन्‍तु मेरे मन में उसके प्रति बहुत सम्‍मान हैै – दो बातो के कारण। पहला यह कि उसने कहा था कि हमारी संस्‍थाओं से परिचित होने के बाद हो सकता है कि कभी वे हमसे स्‍वतन्‍त्र होने का प्रयत्‍न करें। यदि वे ऐसा करेंगे तो यह हमारे लिए गौरव की बात होगी । दूसरेे इसलिए कि उसने अपने शासन को स्‍थायी बनाने के लिए मिल के हथकंडों का समर्थन नहीं किया, बल्कि वह मिल के आलोचकों में था।

हम ऐंंटी सेमिटिज्‍म को जानते हैं, यह भी जानते हैं कि यह गलत था, यह जानते हैं कि आबादी के अनुपात में दर्शन, विज्ञान और पश्चिम के उत्‍थान में जितना योगदान यहूदियों का रहा है, उतना यूरोप के गोरों का नहीं, फिर भी केवल जर्मनी में ही नहीं, केवल बीसवीं शताब्‍दी में ही नहीं, पूरे यूरोप में और यहां तक कि सोवियत संघ में भी यहूदियों काे जघन्‍यतम माना जाता था और अपनी कूटनीतिक जरूरताेेें से अमेरिका भले यहूदियों का साथ दे, परन्‍तु अकेरिका भी छद्म रूप से उस मनोवृत्ति से बाहर नहीं आ सका है । मैं चकित हो कर सोचता हूं कि ऐसा क्‍यों हुआ, इतने बड़े पैमाने पर क्‍यों हुआ, यहूदियों के पक्ष में इतने तर्क होते हुए क्‍यों हुआ, तो इसका एक ही उत्‍तर मिलता है कि दुुष्‍प्रचार से कुछ भी किया जा सकता है। ईसा यहूदी थे। उनके अनुयायी यहूदी थे। र्इसा और क्रिस्‍ट या क्राइस्‍ट ईश और कृष्‍ण से आैर उनके जन्‍म से जुड़े पुुराण से पूर्व के बुद्धिमान मागियों का जो भी संबंध हो, इस पर और खोज होनी चाहिए, पर एक बार क्राइस्‍ट का अनुयायी बन चुके यहूदी भी क्रिश्चियन ही हुए न कि यहूदी रह गए। उन्‍होंने लोभ वश यदि रोमन राज्‍य के लिए संकट पैदा करने वाले क्राइस्‍ट के साथ विश्‍वासघात किया तो यह ईसाइयों का ईसा के साथ विश्‍वासघात था, परन्‍तु इसे ईसा के विरुद्ध यहूदियों के विश्‍वासघात के रूप में ईसाइयों द्वारा प्रचारित करते हुए इतना घृृणित बना कर दुहराया जाता रहा और पूरे ईसाई जगत में इतनी घृणा पैदा कर दी गई कि यहूदियों को दो हजार साल तक यहूदीद्रोह का शिकार होना पड़ा। यह भारत में भी बना हुआ है, इसलिए इस्राइल से किसी तरह का संपर्क क्षोभ पैदा करता है।

यह हमें इस रहस्‍य को समझने में भी सहायक हो सकता है कि हिन्‍दू शब्‍द और मूल्‍यव्‍यवस्‍था के प्रति वितृष्‍णा पैदा करने, उसके अहित को देश, समाज और मानवता का हित मान कर प्रचार करने वाले कौन थे और उनकी आकांक्षाओं को किसने किन कारणों से इस तरह आत्‍मसात् कर लिया कि हिन्‍दू शब्‍द ही जघन्‍यतम प्रतीत होने लगा और भाजपा को भी उसी का दंड भोगना पड़ रहा है। इसे आज तो समझाया नहीं जा सकता। कल की प्रतीक्षा करें ।

Post – 2016-12-29

पूर्वानुमान

नोटबन्‍दी के अनुभव अपेक्षा से कुछ घट कर रहे और इसकी समस्‍यायें मुख्‍यत: उन अपराधियों के कारण पैदा हुई जिसका पूर्वानुमान कोई कर नहीं सकता था। इससे एक माह पहले 2 अक्‍तूबर की अपनी पोस्‍ट में मैंने लिखा था :

”यदि आप बहुत ध्यान से देखें तो मोदी ने एक महान और दूसरों के लिए अकल्पनीय लक्ष्य को हासिल करने का संकल्प लिया है। बहुतों को तो स्वच्छता का अर्थ भी समझ में नहीं आया। यह था मलिनता और कलुषता के सभी रूपों से मुक्ति। जिसे सभी देख सकते हैं, उससे आरंभ करके नैतिक, भौतिक और सांस्कृतिक सभी तरह के कल्मषों से मुक्ति की महायात्रा का आरंभ किया और मैं हैरान रह गया इस व्यक्ति के साहस पर। हैरान इस बात पर भी कि मेरा बचपन किसी अन्य व्यक्ति में कैसे बचा रह गया है। मेरे बचपन का सार सूत्र था, जो हो सकता है परन्तु किसी ने नहीं किया वह मैं करूंगा। कई उदाहरण हैं और कई बेवकूफियां। कभी अपनी कथा लिखने की नौबत आई तो गिनाऊंगा। एक तो ऐसा जिसमें मैं अपनी आंखों की रोशनी गंवाते गंवाते रह गया। उनकी चर्चा में समय नष्ट होगा। मैं अपने बचपन से बाहर नहीं निकल पाया। आज भी सोचता हूं जिसे कहने का साहस किसी कारण से, किसी दूसरे में नहीं बचा है, उसे मैं कहूंगा। मेरा पूरा लेखन एक वाक्य में यही तो है।”

जब दूसरे लोग केवल इसकी कमियां गिनाने और लोगों को भड़काने पर अपनी ऊर्जा व्‍यय कर रहे हैं, भारतीय जन के साथ मेरे विश्‍वास और धैर्य का यही कारण है।

Post – 2016-12-28

अपना अपना इतिहास

”शास्‍त्री जी इतिहास के पीछे ही इतिहास नहीं है, सबका अपना इतिहास है और उन इतिहासों के पीछे भी इतिहास है इसलिए वे अपने अपने इतिहास के अनुसार अपने को सही मानते और उससे भिन्‍न राय रखने वालों को गलत मानते हैं। इतना ही नहीं, दूसरो का इतिहास उन्‍हें डरावना लगता है और समाज के हित में और विश्‍व मानवता के हित में वे इ‍तिहास की अपनी समझ को सर्वमान्‍य बनाना चाहते हैं । इससे आप भी मुक्‍त नहीं हैं, जिनका इतिहासबोध मुस्लिम लीग के इतिहासबोध की प्रतिक्रिया में विकसित हुआ और मध्‍यकाल से पीछे नहीं जा सका, युुद्ध के मैदान से उसकी महिमा निर्धारित होती रही जैसे उनकी। और वेे तो अपवाद हो ही नहीं सकते जो इतिहास काेे नकारते हुए उसे अपनी इच्‍छा के अनुसार गढ़ते रहे और गढ़ने की बुनियादी योग्‍यता, स्रोत साहित्‍य की भाषा पर अधिकार से बचने के कारण, गढ़ने की अपनी समझ से उचक्‍कों की तरह हथौड़े मार कर सांस्‍कृतिक निर्मितियों को तोड़ते और अपने मनमाने ढंग से जोड़ते हुए इतिहास का विद्रूप प्रस्‍तुत करते हुए उन खतरों से देश और संसार को बचाने के लिए प्रयत्‍नशील रहे जिनको अपने ही रचे इतिहास की विनाशकारी परिणतियों की ओर ले जाने वाला मानते थे।

”यह सच है कि देश के विभाजन का उन्‍होंने समर्थन ही नहीं किया था, अपितु विभाजन के बाद हो रही नृशंस हत्‍याओं पर वे तालियां बजा रहे थे, यह हम पहले प्रमाणों के साथ दिखा आए हैं। अभी तक किसी ने न तो यह दावा किया कि वे प्रमाण गलत थे, न यह बचाव किया कि उनसे ऐसा नहीं हुआ था। परन्‍तु पाकिस्‍तान बनने के बाद पाकिस्‍तान की दुर्गति और हिन्‍दू द्रोह को देख कर उन्‍हें यह डर था कि यदि भारत में भी हिन्‍दुुत्‍ववादी विचारधारा पनपी और सत्‍ता उसके हाथ में आई तो भारत भी प्रतिशोध में पाकिस्‍तान का प्रतिरूप बन जाएगा । यहां अल्‍पमत जिसका बहुत भोड़ा अर्थ मुसलमान लगाया गया था, उसके साथ वैसा ही व्‍यवहार किया जाएगा, इसलिए इसे निर्मूल करना ही भारत के हित में है, मानवता के हित में है। यह दूसरी बात है कि इतिहास की समझ की आपकी नादानी के कारण आप आनन फानन में जो समाधान निकालते हैं उनसे आपकेे इरादों के विपरीत परिणाम निकलने लगते हैं। परन्‍तु उन्‍होंने प्राचीन इतिहास का ध्‍वंस इस आशा में किया कि इससे उन उदार, सर्वसमावेशी और मानवतावादी परंपरा की रक्षा हो सकेगी जिसे हम भारतीयता कहते हैं।”

शास्‍त्री जी अपने को रोक नहीं पाए, ”क्‍या उन्‍होंने इस उदार, सर्वसमावेशी और मानवतावादी परंपरा को अपने इतिहास में कहीं रेखांकित किया ?”

”किया। अपने ढंग से किया और कहूं उल्‍लू के पटठों की तरह किया तो भाषा कठोर हो जाएगी और संवाद की संभावना ही समाप्‍त हो जाएगी, परन्‍तु जैसा मैं पहले कह आया हूं कि कई बार गालियां सचाई को जिस बेधकता से सामने लाती हैं, हमारी दार्शनिक व्‍याख्‍यायें तक नहींं ला पातीं, इसलिए इस कठोर प्रयोग की विवशता और इसकी कठोरता के कारण क्षमाप्रार्थना के साथ निवेदन करना चाहूंगा कि मैं आवेशवश इस कठोर शब्‍द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं। उन्‍हें अपनेे खयाल को सनम बनाने के लिए कई तरह के आर्यों, कई आक्रमणों और उनके स्‍वभाव में कई तरह के परिवर्तनों की कहानियां गढ़नी पड़ीं और फिर पहलेे खेप के आक्रमणकारियों को क्रूर, जघन्‍य, मानवद्रोही और सभ्‍यता द्रोही दिखाना पड़ा और उनकी परंपरा से हिन्‍दुत्‍व की परंपरा को जोड़ते हुए हिन्‍दुत्‍व को गर्हित, क्रूर, अन्‍यायी और अभक्षभक्षी सिद्ध करना पड़ा और दूसरे खेमे के आर्यों को कृषिविद्या, धातुविद्या और लोह ज्ञान से लैस हो कर उसी मध्‍येशिया से लाना पड़़ा जो घास का मैदान और चरागाह के लिए जाना जाता रहा है, और पहले आर्यों को भी दो विरोधी समुदायों में कल्पित करना पड़ा। आक्रमणकारी क्षत्रियधर्मा और उन्‍हीं पर हड़प्‍पा के पुजारियों के जादू टोने के बल पर वर्चस्‍व स्‍थापित करने वाले ब्राह्मणों की प्रतिष्‍ठा और फिर भी आक्रमणकारी क्षत्रियों के साथ हड़प्‍पा के पुजारियों अर्थात् ब्राह्मणों के संघर्ष की कहानियां रचनी पड़ींं । यह भी ध्‍यान न रहा कि पहले खेमे के जिन आर्य आक्रमणकारियों को तुम बर्बर और पाशविक गुणों से संपन्‍न मान रहे हो, उन्‍हीं को उन ब्राह्मणों से श्रेष्‍ठ भी सिद्ध कर रहे हो जो सभ्‍य थे और उस उन्‍नत सभ्‍यता के निर्माताओं के गुरु थे जिसके ध्‍वंस का आरोप आक्रामणकारियों पर मढ़ रहे हो। बात यहीं समाप्‍त नहीं होती। पहले खेमे के जाहिल और सभ्‍यताद्रोही आर्य इतने जाहिल भी नहीं थे कि वेे समुद्र यात्रा न करते रहे हों और जिन्‍हेंa समुद्र मार्ग से भारत के पूर्वी भाग के उस क्षेत्र का पता न हो जहां लोह के भंडार हैं। दक्षिण बिहार और अब झारखंड का हिस्‍सा बने उस क्षेत्र तक की समुद्र यात्रा के लिए आपको भूगोल को इतना बदलना पड़ेगा कि भूगोल ही गोल हाेे जाएगा, परन्‍तु इन्‍हीं आर्यों ने अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दूसरे खेप के आर्यों को यह रहस्‍य बता दिया और वे सीधे, सीधे तो नहीं, तराई के जंगलों को जलाते हुए अपना रास्‍ता तैयार करते हुए सदानीरा के तट पर पहुंचेे और जो पैमाना उन्‍हें पहले मिल चुका था उससे यह समझ लिया कि अब इससे दक्षिण में ही लोहभंडार मिलेगा और वे दक्षिण की ओर मुड़ चले और लोहक्षेत्र में पहुंच कर भारत में जो तांबे से ही परिचित था लोहक्रान्ति ला दी और फिर तो मगध से असली आर्य सभ्‍यता का आरंभ होना था जिसके उन्‍नायक क्षत्रिय थे जिनका हड़प्‍पा सभ्‍यता के असभ्‍य ब्राह्मणों से द्रोह था और इसी की परिणति था क्षात्र दर्शन जो बौद्ध और जैन मतों के रूप में प्रकट हुआ। यदि आप कहते हैं कि उन्‍होंने भारतीय अतीत में गौरव का कोई चरण ही तलाश नहीं किया तो यह गलत है। उन्‍होंने जैन मत को नाम गिनाने के लिए रखा पर उसे छोड़ दिया, क्‍योंकि उसमें हिंसा के लिए जगह नहीं थी। अत: उनकी व्‍याख्‍या में भारतीय गौरव बौद्धमत और उसकी मूल्‍य परंपरा से जुड़ा है और उसी से वैदिक परंपरा का विरोध दिखाते हुए वे ब्राह्मणवाद को भारत के लिए अहितकर और उन मूल्‍यों को जिनकाेे बौद्धमत ने प्रसारित और प्रतिष्ठित किया भारतीयता की पहचान मानते हुए वे उन्‍हीं पुरातन मूल्‍यों को आप से, जो मानवताद्रोही आर्यवाद से जुड़े हैं, मिटा कर भारत का भला करना चाहते हैं।

”मैं केवल यह निवेदन करना चाहता हूं कि गाली देने के आशय से नहीं, इतनी मनमानी और काल्‍‍पनिक उड़ान भरने वाले को तत्‍वज्ञानी मानने वालों को अधिक सटीक रूप में किसी अन्‍य शब्‍द से अभिहित किया जा सकता हो तो मैं उस शब्‍द का चुनाव करूंगा, क्‍याेंकि जब तक किसी व्‍यक्ति को हमारी न्‍याय प्र‍क्रिया द्वारा चोर सिद्ध न कर दिया जाय, हम उसे चोर नहीं कह सकते, उसी तरह जब तक किसी को उल्‍लू का पट्ठा सिद्ध न कर दिया जाय, जो सिद्ध हो ही नहीं सकता है, तब तक हम इस मुहावरे को अपने शब्‍दकोश से बाहर रखने के पवित्र कर्तव्‍य से बंधे है और जिनको भी यह बुरा लगा हो उनसे बिनाशर्त क्षमा मांगते हुए कोई सही शब्‍द सुझाने का भार भी उन्‍हीं पर डालते हैं।

”इतिहास के इतिहास और अपने अपने इतिहास का एक पहलू हमारे वर्तमान से नियत होता है यह हम देख आए हैं। पर यह नहीं समझ सके कि बौद्धमत और जैनमत सभ्‍यताद्रोही मत हैंं, जिनमें अहिंसा और सामाजिक सौमनस्‍य के लिए कुछ छूट तो है, परन्‍तु प्रगति के लिए नहीं और इनकी अहिंसा की ओर हमारा ध्‍यान इसलिए जाता है कि इसे इन मतों ने पराकाष्‍ठा पर पहुंचा दिया, जब कि पहले यह कालसापेक्ष्‍य था। दूसरे बौद्धमत धर्मपरिवर्तन करने वाला धर्म है और यह धर्मपरिवर्तन करने को उचित ठहराने वालों की जरूरत है। एक कटु सत्‍य यह भी कि काेसंबी को इतिहास और प्राचीन भारत के इतिहास को कोसंबी के लेखन तक सीमित करने और उससे भिन्‍न किसी सोच काेे नकारने का यह सुनियोजित दौर बांग्‍लादेश के पतन और पूर्वी पाकिस्‍तान के एक नये राष्‍ट्र के रूप में उभरने से भी कोई संबंध रखता है, इसकी पड़ताल होनी चाहिए।”

”परन्‍तु डाक्‍साब …. ”

मैंने शास्‍त्री जी को बीच में ही टोक दिया, ”मैं जानता हूं आपको मेरे उत्‍तर से सन्‍तोष नहीं हुआ होगा, पर यह भी तो सोचें कि आपका धैर्य बना भी रहे तो फेसबुक के पाठकों का धैर्य तो जवाब दे सकता है ।”

”‍फिर तो कुछ कहने को रहा ही नहीं ।”

”अाज नहीं, कल ।”

Post – 2016-12-27

इतिहास के पीछे का इतिहास

”हम दुनिया के सबसे भले लोग हैं। भला कहाने का उससे अधिक चाव है । इसे आप हमारा भोलापन भी समझ सकते हैं। भोला का कुछ संबंध भूलने से भी है। जिन्‍हे देश दुनिया का पता न हो, अपने वर्तमान और इतिहास का पता न हो, जिममें किसी तरह की चालाकी न हो, उन अबोध शिशुओं और बच्‍चों के लिए हम भोला का प्रयोग करते हैं और करते हैं भोलानाथ के लिए जिनको भी इस नासमझी के लिए ही जाना जाता है। भोला व्‍यक्ति दूसरों की नजर में भला बने रहने के लिए उसकी इच्‍छा की पूर्ति करता हुआ गौरव अनुभव करता है। वह अपनी समस्‍याओं का सामना नहीं करना चाहता, या अपनी समस्‍या को अपनी भलमनसाहत की रक्षा की समस्‍या के रूप में देखता है । यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें जातीय अपमान को सहन करते हुए, अल्‍पतम संरक्षण को अपने सम्‍मान की बात समझा जाता है और अपमानित होने के बाद भी स्‍वामी के हित की चिन्‍ता से न डिगने को अपने गौरव की कसौटी माना जाता है। परंपरागत रूप में इसे स्‍वामिभक्ति कहा जाता रहा है जिसमें अपना मान सम्‍मान अपमान और उत्‍पीड़न कोई अर्थ नहीं रखता, सम्‍मान की कसौटी है स्‍वामी के अोदश, हित या नियोजित कार्य की सिद्धि – मोहि न कछु बांधे कर लाजा । करन चहहुं निज प्रभु कर काजा । व्‍यक्ति इसमें निमित्‍त बन कर रह जाता है, या उसकी हैसियत औजार, या हथियार की हो जाती है। इसे अमानवीकरण की प्रक्रिया से जोड़ कर देखें तो चौंक उठेंगे यह सोच कर कि प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्‍यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय डिह्यूमनाइजेशन का शिकार होने के बाद भी अपने को दूसरों से अधिक उदार और समावेशी मानते हुए इस पर गर्व करता है। ज्ञान उसके पास होता है, परन्‍तु न वह आत्‍मज्ञान होता है, न ही इतिहासबोध, न वस्‍तुबोध। वह बौद्धिक रूप में अपने स्‍वामी या स्‍वामिवर्ग के समक्ष समर्पण कर देता है और अपनी जानकारी को उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति काे उचित सिद्ध करने पर लगता है।”

शास्‍त्री जी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ”डाक्‍साब आज आप यह समझाने वाले थे कि यह हिन्‍दू द्रोह हिन्‍दुअों के भीतर कैसे पैदा हुआ और आप भले बुरे की मीमांसा आरंभ कर दी ।”

शास्‍त्री जी, इतिहास की विडंबना यह है कि इसे हमेशा बीच से आरंभ करना हाेेता है क्‍योंकि अादि का हमें पता नहीं होता और विडंबना यह कि आसन्‍न के साथ सुदूर अतीत भी हमारे वर्तमान में, हमारे आज के अभी के निर्णयों में अपनी भूमिका पस्‍तुत करता है। कोई घटना या क्रिया जहां हमेंं दिखाई देती है उसके पीछे ज्ञात और अज्ञात कार्यों और कारणों की एक लंबी शृखला होती है जिस पर ध्‍यान दें तो लगेगा दुनिया में कुछ भी ऐसा है ही नहीं जा नया हो । शेक्‍सपियर का वह वाक्‍य याद है न ‘दुनिया में कुछ भी नया नहीं है। नथिंग इज न्‍यू अंडर दि सन।”

”मुझे अंडर दि सन का एक दूसरा मतलब समझ में आता है, जो दुनिया में नहीं, बल्कि ‘हमारी जानकारी में’ । जो भी हो , इससे फर्क नहीं पड़ता । यह एक पुरानी, बहुत पुरानी सूझ है जो वटबीज में वटवृक्ष की उपस्थिति से या पुरुष सूक्‍त की उस व्‍याख्‍या से जुडी है जिसमें सृष्टि के आदि में ही एक साथ सब कुछ के घटित हो जाने परन्‍तु हमारी दृष्टि में यथाक्रम आने के रूप में कल्पित है ।”

मैं हैरान हो कर शास्‍त्री जी को देखने लगा । इतनी पैनी दृष्टि की तो मैंने उनमें कल्‍पना ही न की थी।

”आप ठीक कहते हैं, इतिहास और वर्तमान जैसा भी कुछ नहीं होता, हमें जो ज्ञात होता है उससे पीछे बहुत कुछ होता है जिसे हम जानने का प्रयत्‍न कर सकते हैं, पूरी तरह जान नहीं सकते।”

”पूूरी तरह तो डाक्‍साब हम वर्तमान को भी नहीं जानते, अतीत को कैसे जान सकते हैं।”

मुझे सहमत होना पड़ा । अब यह समझना होगा कि जिन्‍हें आप हिन्‍दुत्‍व का शत्रु मानते हैं, वे अधिक हिन्‍दू हैं या आप। आप पर उनका यह आरोप है कि आप का जन्‍म ही लीग की प्रतिक्रिया में हुई और इसलिए आपने उसका सामना करने के लिए उन्‍हीं औजारों और हथियारों का अधिक भोड़े रूप में प्रयोग किया और आप कहने को हिन्‍दु हैं परन्‍तु आपकी आत्‍मा और चरित्र यहां तक कि आदर्श सामी हैं। आपका उन पर आरोप यह कि उन्‍होंने न तो हिन्‍दू अतीत को, इसके इतिहास को समझने का प्रयत्‍न किया है न ही इसके रक्षणीय दायों का सम्‍मान किया है और हिन्‍दुत्‍व की मूल्‍यव्‍यवस्‍था की आड़ में हिन्‍दुत्‍व का उन्‍मूलन करने को तत्‍पर रहे हैं और जिन सामी मूल्‍यों की तुलना में हिन्‍दू मूल्‍यों का समर्थन करते रहे हैं, उन्‍हीं सामी मजहबों की सेवा में नियुक्‍त हो कर अपने इतिहास, अपनी संस्‍कृति का उससे अधिक निर्ममता से सत्‍यानाश करते रहे हैं जिससे मध्‍यकाल में मन्दिरों, मूर्तियों, शिक्षाकेन्‍द्रों और ग्रन्‍थागारों को नष्‍ट करते, अग्निसात करते, उनके रक्षकों का वध करते आगे बढ़े वह संस्‍कार रूप में उनके वंशधरों में भी बना रह गया है । वे सामी मतों की आलोचना तक नहीं कर सकते, उनके साथ खड़े हो जाते हैं। मुझे आप दोनों सही लगते हैं इसलिए उस इतिहास में जाना होगा जिसकी समग्र उपस्थिति या दबाव वहां भी रहता है जब हम उनका विरोध कर रहे होते हैं। इस ग्रन्थि को समझने के लिए हमें इतिहास की वर्तमान में उपस्थिति के उन रूपों को समझना होगा जिनका छोटा रास्‍ता आप तलाश रहे थे। इसे कल के लिए स्‍थगित करें तो कैसा रहेग।”

शास्‍त्री जी ने उत्‍तर नहीं दिया । नमस्‍कार की मुद्रा में आ कर चलने के लिए तत्‍पर हो गए।

Post – 2016-12-27

”हम दुनिया के सबसे भले लोग हैं। भला कहाने का उससे अधिक चाव है । इसे आप हमारा भोलापन भी समझ सकते हैं। भोला का कुछ संबंध भूलने से भी है। जिन्‍हे देश दुनिया का पता न हो, अपने वर्तमान और इतिहास का पता न हो, जिममें किसी तरह की चालाकी न हो, उन अबोध शिशुओं और बच्‍चों के लिए हम भोला का प्रयोग करते हैं और करते हैं भोलानाथ के लिए जिनको भी इस नासमझी के लिए ही जाना जाता है। भोला व्‍यक्ति दूसरों की नजर में भला बने रहने के लिए उसकी इच्‍छा की पूर्ति करता हुआ गौरव अनुभव करता है। वह अपनी समस्‍याओं का सामना नहीं करना चाहता, या अपनी समस्‍या को अपनी भलमनसाहत की रक्षा की समस्‍या के रूप में देखता है । यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें जातीय अपमान को सहन करते हुए, अल्‍पतम संरक्षण को अपने सम्‍मान की बात समझा जाता है और अपमानित होने के बाद भी स्‍वामी के हित की चिन्‍ता से न डिगने को अपने गौरव की कसौटी माना जाता है। परंपरागत रूप में इसे स्‍वामिभक्ति कहा जाता रहा है जिसमें अपना मान सम्‍मान अपमान और उत्‍पीड़न कोई अर्थ नहीं रखता, सम्‍मान की कसौटी है स्‍वामी के अोदश, हित या नियोजित कार्य की सिद्धि – मोहि न कछु बांधे कर लाजा । करन चहहुं निज प्रभु कर काजा । व्‍यक्ति इसमें निमित्‍त बन कर रह जाता है, या उसकी हैसियत औजार, या हथियार की हो जाती है। इसे अमानवीकरण की प्रक्रिया से जोड़ कर देखें तो चौंक उठेंगे यह सोच कर कि प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्‍यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय डिह्यूमनाइजेशन का शिकार होने के बाद भी अपने को दूसरों से अधिक उदार और समावेशी मानते हुए इस पर गर्व करता है। ज्ञान उसके पास होता है, परन्‍तु न वह आत्‍मज्ञान होता है, न ही इतिहासबोध, न वस्‍तुबोध। वह बौद्धिक रूप में अपने स्‍वामी या स्‍वामिवर्ग के समक्ष समर्पण कर देता है और अपनी जानकारी को उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति काे उचित सिद्ध करने पर लगता है।”

शास्‍त्री जी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ”डाक्‍साब आज आप यह समझाने वाले थे कि यह हिन्‍दू द्रोह हिन्‍दुअों के भीतर कैसे पैदा हुआ और आप भले बुरे की मीमांसा आरंभ कर दी ।”

शास्‍त्री जी, इतिहास की विडंबना यह है कि इसे हमेशा बीच से आरंभ करना हाेेता है क्‍योंकि अादि का हमें पता नहीं होता और विडंबना यह कि आसन्‍न के साथ सुदूर अतीत भी हमारे वर्तमान में, हमारे आज के अभी के निर्णयों में अपनी भूमिका पस्‍तुत करता है। कोई घटना या क्रिया जहां हमेंं दिखाई देती है उसके पीछे ज्ञात और अज्ञात कार्यों और कारणों की एक लंबी शृखला होती है जिस पर ध्‍यान दें तो लगेगा दुनिया में कुछ भी ऐसा है ही नहीं जा नया हो । शेक्‍सपियर का वह वाक्‍य याद है न ‘दुनिया में कुछ भी नया नहीं है। नथिंग इज न्‍यू अंडर दि सन।”

”मुझे अंडर दि सन का एक दूसरा मतलब समझ में आता है, जो दुनिया में नहीं, बल्कि ‘हमारी जानकारी में’ । जो भी हो , इससे फर्क नहीं पड़ता । यह एक पुरानी, बहुत पुरानी सूझ है जो वटबीज में वटवृक्ष की उपस्थिति से या पुरुष सूक्‍त की उस व्‍याख्‍या से जुडी है जिसमें सृष्टि के आदि में ही एक साथ सब कुछ के घटित हो जाने परन्‍तु हमारी दृष्टि में यथाक्रम आने के रूप में कल्पित है ।”

मैं हैरान हो कर शास्‍त्री जी को देखने लगा । इतनी पैनी दृष्टि की तो मैंने उनमें कल्‍पना ही न की थी।

”आप ठीक कहते हैं, इतिहास और वर्तमान जैसा भी कुछ नहीं होता, हमें जो ज्ञात होता है उससे पीछे बहुत कुछ होता है जिसे हम जानने का प्रयत्‍न कर सकते हैं, पूरी तरह जान नहीं सकते।”

”पूूरी तरह तो डाक्‍साब हम वर्तमान को भी नहीं जानते, अतीत को कैसे जान सकते हैं।”

मुझे सहमत होना पड़ा । अब यह समझना होगा कि जिन्‍हें आप हिन्‍दुत्‍व का शत्रु मानते हैं, वे अधिक हिन्‍दू हैं या आप। आप पर उनका यह आरोप है कि आप का जन्‍म ही लीग की प्रतिक्रिया में हुई और इसलिए आपने उसका सामना करने के लिए उन्‍हीं औजारों और हथियारों का अधिक भोड़े रूप में प्रयोग किया और आप कहने को हिन्‍दु हैं परन्‍तु आपकी आत्‍मा और चरित्र यहां तक कि आदर्श सामी हैं। आपका उन पर आरोप यह कि उन्‍होंने न तो हिन्‍दू अतीत को, इसके इतिहास को समझने का प्रयत्‍न किया है न ही इसके रक्षणीय दायों का सम्‍मान किया है और हिन्‍दुत्‍व की मूल्‍यव्‍यवस्‍था की आड़ में हिन्‍दुत्‍व का उन्‍मूलन करने को तत्‍पर रहे हैं और जिन सामी मूल्‍यों की तुलना में हिन्‍दू मूल्‍यों का समर्थन करते रहे हैं, उन्‍हीं सामी मजहबों की सेवा में नियुक्‍त हो कर अपने इतिहास, अपनी संस्‍कृति का उससे अधिक निर्ममता से सत्‍यानाश करते रहे हैं जिससे मध्‍यकाल में मन्दिरों, मूर्तियों, शिक्षाकेन्‍द्रों और ग्रन्‍थागारों को नष्‍ट करते, अग्निसात करते, उनके रक्षकों का वध करते आगे बढ़े वह संस्‍कार रूप में उनके वंशधरों में भी बना रह गया है । वे सामी मतों की आलोचना तक नहीं कर सकते, उनके साथ खड़े हो जाते हैं। मुझे आप दोनों सही लगते हैं इसलिए उस इतिहास में जाना होगा जिसकी समग्र उपस्थिति या दबाव वहां भी रहता है जब हम उनका विरोध कर रहे होते हैं। इस ग्रन्थि को समझने के लिए हमें इतिहास की वर्तमान में उपस्थिति के उन रूपों को समझना होगा जिनका छोटा रास्‍ता आप तलाश रहे थे। इसे कल के लिए स्‍थगित करें तो कैसा रहेग।
शास्‍त्री जी ने उत्‍तर नहीं दिया । नमस्‍कार की मुद्रा में आ कर चलने के लिए तत्‍पर हो गए।

Post – 2016-12-26

इतिहास के पीछे इतिहास

”हम दुनिया के सबसे भले लोग हैं। भला कहाने का उससे अधिक चाव है । इसे आप हमारा भोलापन भी समझ सकते हैं। भोला का कुछ संबंध भूलने से भी है। जिन्‍हे देश दुनिया का पता न हो, अपने वर्तमान और इतिहास का पता न हो, जिममें किसी तरह की चालाकी न हो, उन अबोध शिशुओं और बच्‍चों के लिए हम भोला का प्रयोग करते हैं और करते हैं भोलानाथ के लिए जिनको भी इस नासमझी के लिए ही जाना जाता है। भोला व्‍यक्ति दूसरों की नजर में भला बने रहने के लिए उसकी इच्‍छा की पूर्ति करता हुआ गौरव अनुभव करता है। वह अपनी समस्‍याओं का सामना नहीं करना चाहता, या अपनी समस्‍या को अपनी भलमनसाहत की रक्षा की समस्‍या के रूप में देखता है । यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें जातीय अपमान को सहन करते हुए, अल्‍पतम संरक्षण को अपने सम्‍मान की बात समझा जाता है और अपमानित होने के बाद भी स्‍वामी के हित की चिन्‍ता से न डिगने को अपने गौरव की कसौटी माना जाता है। परंपरागत रूप में इसे स्‍वामिभक्ति कहा जाता रहा है जिसमें अपना मान सम्‍मान अपमान और उत्‍पीड़न कोई अर्थ नहीं रखता, सम्‍मान की कसौटी है स्‍वामी के अोदश, हित या नियोजित कार्य की सिद्धि
– मोहि न कछु बांधे कर लाजा । करन चहहुं निज प्रभु कर काजा । व्‍यक्ति इसमें निमित्‍त बन कर रह जाता है, या उसकी हैसियत औजार, या हथियार की हो जाती है। इसे अमानवीकरण की प्रक्रिया से जोड़ कर देखें तो चौंक उठेंगे यह सोच कर कि प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्‍यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय डिह्यूमनाइजेशन का शिकार होने के बाद भी अपने को दूसरों से अधिक उदार और समावेशी मानते हुए इस पर गर्व करता है। ज्ञान उसके पास होता है, परन्‍तु न वह आत्‍मज्ञान होता है, न ही इतिहासबोध, न वस्‍तुबोध। वह बौद्धिक रूप में अपने स्‍वामी या स्‍वामिवर्ग के समक्ष समर्पण कर देता है और अपनी जानकारी को उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति काे उचित सिद्ध करने पर लगाता है।”

शास्‍त्री जी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ”डाक्‍साब आज आप यह समझाने वाले थे कि यह हिन्‍दू द्रोह हिन्‍दुअों के भीतर कैसे पैदा हुआ और आप भले बुरे की मीमांसा आरंभ कर दी ।”

यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें भला सिद्ध होने की उत्‍कंठा

”जब हम सभ्‍य हुए दुनिया बर्बरता की अवस्‍था में थी। जिन पुरानी सभ्‍यताओं को

इससे एक लालसा पैदा हुई कि हमें सभी बहुत अच्‍छा समझें और पैदा हुआ वह विश्‍ववाद या कहिए धरती का जितना भूगोल हमें पता था उसके प्रति एक मैत्री भाव, उसके कल्‍याण की चिन्‍ता, उसके साथ अपना और उन सबका भला सोचने और करने की एक लालसा। यह लालसा व्‍यक्तिनामों में विश्‍वामित्र, विश्‍वबन्‍धु, सु्न्‍धु, जैसे नामों में भी व्‍यक्‍त है और उन दिवस्‍पुत्रा अंगिरसा भवेम, कामनाओं में भी कि सभी कृषि, पशुपालन, बागबानी सीख कर सभ्‍य जीवन अपनाएं या आर्यव्रत धारण करें इसकी चिन्‍ता थी और उन मूल्‍यों के प्रसार का आवेश था जिसमें उनको लगता थ कि वे समस्‍त जगत में आर्यव्रत का प्रसार कर देंगे। आर्याव्रता विसृजन्‍त: अधिक्षमि । या कृण्‍वामो विश्‍वमार्यं का व्रत । परन्‍तु इससे एक ग्रन्थि भी पैदा हुई इसे यदि हिन्‍दी में कहें तो ‘मो सम और न कोय’ ग्रन्थि कहा जा सकता है जो अग्रणी समाजों में अपने अग्रता के दिनों में पाई जाती है। परन्‍तु हम अपने ह्रास के दिनों में दूसरी सभ्‍यताओं के कुछ आगे सथे

ास्‍त्री जी, इतिहास की विडंबना यह है कि इसे हमेशा बीच से आरंभ करना हाेेता है क्‍योंकि कोई घटना या क्रिया जहां हमेंं दिखाई देती है उसके पीछे ज्ञात और अज्ञात कार्यों और कारणों की एक लंबी शृखला होती है जिस पर ध्‍यान दें तो लगेगा दुनिया में कुछ भी ऐसा है ही नहीं जा नया हो । शेक्‍सपियर का वह वाक्‍य याद है न ‘दुनिया में कुछ भी नया नहीं है। नथिंग इज न्‍यू अंडर दि सन।

”मुझे अंडर दि सन का एक दूसरा मतलब समझ में आता है, जो दुनिया में नहीं, बल्कि ‘हमारी जानकारी में’ । जो भी हो , इससे फर्क नहीं पड़ता । यह एक पुरानी, बहुत पुरानी सूझ है जो वटबीज में वटवृक्ष की उपस्थिति से या पुरुष सूक्‍त की उस व्‍याख्‍या से जुडी है जिसमें सृष्टि के आदि में ही एक साथ सब कुछ के घटित हो जाने परन्‍तु हमारी दृष्टि में यथाक्रम आने के रूप में कल्पित है ।”
मैं हैरान हो कर शास्‍त्री जी को देखने लगा । इतनी पैनी दृष्टि की तो मैंने उनमें कल्‍पना ही न की थी।

Post – 2016-12-25

देवता आंसू नहीं बहाते

आज शास्त्री जी कल की अपेक्षा संयत थे। चेहरे पर एक झिझक भरा खिंचाव संभवतः कल की दुर्बलता के कारण था। वह कुछ कहते उससे पहले मैंने ही छेड़ा, ”कल आप कुछ अधिक विगलित हो गए थे ।

शास्त्री जी ने हंसते हुए झेंप छिपानी चाही तो झेंप अधिक उजागर हो गई, ‘‘मैं अपने लिए विगलित नहीं हो गया था! यह सोच कर विचलित था कि साहित्‍य, कला, दर्शन, शालीनता सभी दृृष्टियों से बंगाल अग्रणी रहा है। इसमें मुसलमानों की भी भागीदारी रही हैै फिर भी क्‍या कारण है वही बंगाल नोआखाली से कलकत्‍ता तक के सबसे जघन्‍य और अकारण उकसाए गए दंगो का शिकार रहा और आज भी उससे उबर नहीं पाया है। सीपीएम के शासन में भी यदि दंगे हुए तो किदिरपुर में और बहुमत के बाद भी पूरा कलकत्‍ता कई दिन तक अपने बचाव के लिए चिन्तित रहा। अब त्रिणमूल के शासन में उपद्रवकारी घटनाओं और तैयारियों की बाढ़़ आ रही है जैसे सरकार स्‍वयं इसे बढ़ावा दे रही हैै। अनुपात में तनिक भी अन्‍तर आते ही उन्‍ही बंगालियों से जो मुसलमान बनी आबादी में कहां से वह हिंसात्मकता फूट पड़ती है कि हिन्‍दुओं का सम्‍मान से जीना मुश्किल हो जाता है और हिन्दुओं में इन उकसावों के बाद भी ऐसा कार्पण्य बना रहता है कि वे उनका प्रतिरोध तक नहीं कर पाते! ऐसी सभ्यता किस काम की जो आपको बलिपशु बना दे। बंगाली नक्सल आन्दोलन कर सकते हैं, माओवादी हो सकते है, अपनी सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं क्योंकि जानते हैं कि सरकार नागरिकों से उसी तरह पेश नहीं आ सकती जिस तरह वे सरकार और नागरिकों से पेश आते हैं, पर जहां सचमुच अपना साहस दिखानेे और आत्मसम्मान बचाने की चुनौती हो वे अपना बचाव करने की चिन्‍ता तक नहीं करते । क्‍या सभ्‍यता का नियम असभ्‍य लोगों के साथ निभाया जा सकता है। चिन्‍ता का विषय तो यह आपको भी लगता होगा, आप ने भी कभी इस पर तो लिखा नहीं । शिकायत तो मुझे आपसेे भी थी। ऐसी घटनाओं पर आप भी चुप रह जाते हैं या इनसे ध्‍यान हटाने के लिए वह तूूमार बांधते हैं जिसमें आए दिन हमें इनके उपद्रव झेलने पड़ते हैं और आप अमेरिका और गोरेे देशों का खतरा दिखाते हुए इनके साथ सहयाेग करने को कहते हैं । आप भी इतिहास से लेकर समाजशास्‍त्र तक का इकहरा पाठ करते हैं जिसमें हिन्‍दू की पीड़ा आपको भी पीड़ा से कुछ कम नजर आती है और उनकी पीड़ा पर आप धर्मोपदेश देने लगते हैं ।”

”शास्‍त्री जी, पहली बात तो यह कि यदि आप सोचते हैं कि इतनी जटिल समस्‍या का समाधान मेरे पास है तो मेरी समझ पर आप पर कुछ अधिक भरोसा है । सभ्‍यता का निर्वाह करते हुए हम पशुता का सामना नहीं कर सकते, असभ्‍य लोगों के साथ सभ्‍यता के नियम नहीं चल सकते, इसलिए हमे पशुओं के साथ पशु बन जाना चाहिए और असभ्‍योंं का प्रतिवाद करने के लिए हमें असभ्‍य हो जाना चाहिए और फिर जब उनसे निबट लें तो फिर सभ्‍य बनेें, यह मेरी समझ में नहीं आता । फिर भी मैं संतप्‍त लोगों को यह नहीं समझा सकता कि सभ्‍यता कादरता का पर्याय है। सदसि वाक्‍पटुता युधि विक्रम:, ऐसा ही कुछ है न भर्तृहरि के एक श्‍लोक में, आप को तो याद होगा।

”मनुष्‍य ने सभी दृष्टियों से अशक्‍त होते हुए भी पशुओं पर और असभ्‍य जनों पर विजय पाई है तो सभ्‍यता के बल पर ही। सभ्‍यता को दुर्बलता न समझें, यह मनुष्‍य को मनुष्‍य बनाती है और इसके बल पर ही मनुष्‍य ने समस्‍त प्राणियों पर और पिछड़े और बर्बर समाजों पर विजय पाई है ।”

”आप कहना चाहते हैं कि जिन्‍होंने विजय पाई है वे उन लोगों से अधिक सभ्‍य रहे हैं जिन पर उन्‍होंने विजय पाई । और इसलिए वे नृशंस जन जिन्‍होंने सभ्‍यताओं को नष्‍ट किया, सभ्‍य जनों को अपना दास बनाया वे उन सभ्‍य लोगों से अधिक सभ्‍य थे। इसके लिए तो हमे सभ्‍यता की एक विचित्र परिभाषा गढ़नी होगी, जो विेजेता है वह अधिक सभ्‍य है। जो उच्‍च जीवनमूल्‍यों के कारण पाशविकता पर न उतर पाया वह असभ्‍य था।” शास्‍त्री जो ने मुझे घेर लिया । इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि उनका अनुताप कम हो गया था और स्‍वर में आत्‍मविश्‍वास लौट आया था। अब उनसे तार्किक विचार विमर्श संभव था।

मैंने हंसते हुए उनके तर्क कौशल का सम्‍मान किया और फिर कहा, ”सभ्‍यता शक्ति प्रयोग का बहिष्‍कार नहीं है, युक्ति से शक्ति को गुणित करते हुए उसका उपयोग करते हुए पशुबल को तुच्‍छ बनाते हुए उस पर विजय पाने और उनकी पशुता को कम करने की कला है ।

”आपको अपनी ही परंपरा के कुछ विक्षोभकारी प्रसंगों की याद दिलाएं जिसे देवासुर संग्राम या असभ्‍य जनों के सभ्‍य जनों से लंबे समय तक चलने वाले कलह की घटनाओं को प्रतीकात्‍मक शैली में अंकित किया गया है। इनमें देवों को असुरों के अत्‍याचार और उत्‍पीड़न का बार बार शिकार होना पड़ता है परन्‍तु वेे असुर या राक्षसी जीवन पद्धति काेे नहीं अपनाते । बार बार घबरा कर अपने देवों से सहायता मागते हैं और उनकी सलाह पर या तो कोई नई युक्ति निकालते हैं या रक्षक देव स्‍वयं उनकी रक्षा के लिए अवतार लेते और उनकाेे दंडित करते हुए उनके उपद्रव को कम करते हैं परन्‍तु कभी अपने जीवनमूल्‍यों के साथ समझौता नहीं करते ।

”उनको आसुरी शक्तियों पर विजय हिंसा के बल पर नहीं मिलती, उनमें चेतना का प्रसार करने, उनके जीवनमूल्‍यों में परवर्तन लाने और अपरिहार्य स्थितियों में शक्ति के प्रयोग से मिलती है। विजय अपने उन्‍नत विकास के बल पर, उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय बनाने के द्वारा मिलती है और मिलती है अपने धैर्य और आर्थिक शक्ति के बल पर। आप तो संस्‍कृत साहित्‍य की मुझसे अधिक जानकारी रखते हैं, ”आपको वह सूत्र तो याद ही होगा, न वै देवा अश्रुुं कुर्वन्ति । देव रोते नही हैं ।

”और याद यह भी होगा और न याद हो , आप ने जैसा कहते हैं, मुझे अच्‍छी तरह पढ़ा है तो उसमें भी इसका संकेत मैने किया है कि देेवों काेे असुरों पर शस्‍त्र के बल पर विजय नहीं प्राप्‍त हुई, वह तो तात्‍कालिक उपचार था, विजय मिली आर्थिक प्रगति सेे । देेव रोते नहीं हैं, अध्‍यवसाय करते है, प्रयत्‍न में लगे रहते हैंं। वे जागरूक रहते हैं, जाग्रत‍ि देवा :। इसी का भाष्‍य है उत्तिष्‍ठ जाग्रत प्राप्‍य परान्निबोधत। देवो ने असुरों को शस्‍त्र से पराजित नहीं किया ‘ न वै देवा दंडै- धनुर्र्भि: वा असुरान् व्‍यजयन्‍त, उन्‍होंने यह चमत्‍कार शाकमेध से या आर्थिक प्रगति से की । ज्ञान साधना से की और वे ही असुर जो उनके साथ सहयोगी की भूमिका में नहीं आ सके विवश हो कर उनकी सेवा में आने को बाध्‍य हुए । शूद्राेें का इतिहास यही है। आज अपनी विफलता को भी एक उपलब्धि बना कर उसका लाभ उठाने के प्रयत्‍न में पुन: निष्क्रियता और परनिर्भरता को बढ़ाया जा रहा है यह आज की विडंबना है ।”

शास्‍त्री जी ने हाथ जोड़ लिए, ”डाक्‍साब, आप विषय को इस तरह फैला देते हैं कि विषय ही गायब हो जाता हैै। बच रहता है एक आभामंडल जो चकित तो करता है परन्‍तु समस्‍या का समाधान नहीं हो पाता ।”

”कुछ देर के लिए मैं भी विस्मित रह गया कि मुझसे चूक कहां हुई है। मुझे लग रहा था मैं अपने विषय पर ही बाेेल रहा हूं । खुलासा शास्‍त्री जी ने ही किया, ”धृष्‍टता के लिए क्ष्‍ामा करेे, पर मैं चााहता था कि आप इस बात का जवाब दें कि उसी समाज से ये दो तरह की प्रवृत्तियां कैसे पैदा हो गईं । यह जानना चाहता था कि इनके प्रति हमाारे बुद्धिजीवी उदासीन क्‍यों रहते हैं । जानना चाहता कि इसका तात्‍कालिक समाधान क्‍या हैै । जानना चाहता था कि आप स्‍वयं इन सवालों पर चुप क्‍यों रहते हैं और आप फिर वही पुुरानी हवा बांधने लगेे जो सुनने में तो अच्‍छा लग रहा है पर संकट से बाहर निकलनेका रास्‍ता नही दिखाई नहीं देता ।”

”शास्‍त्री जी आप विषय का इतना विस्‍तार कर देते हैं कि मुझे यह समझने में कठिनाई होती है कि आप का केन्‍द्रीय प्रश्‍न क्‍या है। सभ्‍यता का प्रश्‍न आप ने ही उठाया था। उसे ही समझाने का प्रयत्‍न कर रहा था। विषयविस्‍तार हुआ हो सकता है। अभी आपनेे जो प्रश्‍न उठाए उनमें भी कुछ बहुत उलझे हुए हैं । यह कि हिन्‍दू पीड़ा के प्रति संवेदनशून्‍यता का कारण क्‍या है। इस पर तो मैं विस्‍तार से कल की कुछ कह सकता हूं । रही बात कि मैं ऐसे विषयों पर क्‍यों नहीं लिखता तो मेरा सुझाव है कि इस पर अपने विचार और निर्णय देते हुए बुद्धिजीवियों को बचना चाहिए परन्‍तु सियासत का हिस्‍सा और उसी भाषा में सोचने और विचार करने के कारण संचारमाध्‍यम और बुद्धिजीवी दोनों अपनी ओर से फैसले देने के लिए उतावाले हो जाते हैं। यह राज्‍य की कानून और व्‍यवस्‍था की समस्‍या है और इसके असंख्‍य रूप हैै, गुुडागर्दी, चोरी, डाका, फिरौती, रेप,मिलावट ये अपराध जगत से जुड़ी समस्‍यायें हैंं जिन पर सरकार को काम करना चाहिए और उसकी विफलता या पक्षधरता सामने आने पर समाचार और मतनिर्माण के पेशों से जुडे बुद्धिजीवियों को उसकी आलोचना करना चाहिए । मैं इस विषय पर नहीं लिखता क्‍योंकि यह मेरे कार्यक्षेत्र में नहीं आता। मैं सक्रिय राजनीति का हिस्‍सा नहीं बनना चाहता। परन्‍तु यह याद दिला दूं कि जिन्‍हें नीेद में तानाशाही के बढ़ते हुए कदम दिखाई देते हैं उन्‍हें उन कदमोंं को रोकने के लिए इसकी कटु आलोचना अवश्‍य करनी चाहिए क्‍योंकि कानून और व्‍यवस्‍था की विफललताएं ही तानाशाही का रास्‍ता तैयार करती हैं और तब पूरा जनमततानाशाही के पक्ष में इस तरह हो चुका रहता है। आपका चीत्‍कार ‘तानाशाही आ रही है, आ गई है’ सुन कर लोग असंख्‍य कंठों से दुहराते हैं, अब इसी की जरूरत है, आने दो । बचाव का कोई अन्‍य उपाय नहीं ।

”हां, वे ऐसा करेंगे नहींं। यह उनके एजेंडे पर नहीं है। उनकी मानसिकता पर तो आज चर्चा होने से रही । इसेे कल के लिए रखिए।”