Post – 2016-12-25

देवता आंसू नहीं बहाते

आज शास्त्री जी कल की अपेक्षा संयत थे। चेहरे पर एक झिझक भरा खिंचाव संभवतः कल की दुर्बलता के कारण था। वह कुछ कहते उससे पहले मैंने ही छेड़ा, ”कल आप कुछ अधिक विगलित हो गए थे ।

शास्त्री जी ने हंसते हुए झेंप छिपानी चाही तो झेंप अधिक उजागर हो गई, ‘‘मैं अपने लिए विगलित नहीं हो गया था! यह सोच कर विचलित था कि साहित्‍य, कला, दर्शन, शालीनता सभी दृृष्टियों से बंगाल अग्रणी रहा है। इसमें मुसलमानों की भी भागीदारी रही हैै फिर भी क्‍या कारण है वही बंगाल नोआखाली से कलकत्‍ता तक के सबसे जघन्‍य और अकारण उकसाए गए दंगो का शिकार रहा और आज भी उससे उबर नहीं पाया है। सीपीएम के शासन में भी यदि दंगे हुए तो किदिरपुर में और बहुमत के बाद भी पूरा कलकत्‍ता कई दिन तक अपने बचाव के लिए चिन्तित रहा। अब त्रिणमूल के शासन में उपद्रवकारी घटनाओं और तैयारियों की बाढ़़ आ रही है जैसे सरकार स्‍वयं इसे बढ़ावा दे रही हैै। अनुपात में तनिक भी अन्‍तर आते ही उन्‍ही बंगालियों से जो मुसलमान बनी आबादी में कहां से वह हिंसात्मकता फूट पड़ती है कि हिन्‍दुओं का सम्‍मान से जीना मुश्किल हो जाता है और हिन्दुओं में इन उकसावों के बाद भी ऐसा कार्पण्य बना रहता है कि वे उनका प्रतिरोध तक नहीं कर पाते! ऐसी सभ्यता किस काम की जो आपको बलिपशु बना दे। बंगाली नक्सल आन्दोलन कर सकते हैं, माओवादी हो सकते है, अपनी सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी कर सकते हैं क्योंकि जानते हैं कि सरकार नागरिकों से उसी तरह पेश नहीं आ सकती जिस तरह वे सरकार और नागरिकों से पेश आते हैं, पर जहां सचमुच अपना साहस दिखानेे और आत्मसम्मान बचाने की चुनौती हो वे अपना बचाव करने की चिन्‍ता तक नहीं करते । क्‍या सभ्‍यता का नियम असभ्‍य लोगों के साथ निभाया जा सकता है। चिन्‍ता का विषय तो यह आपको भी लगता होगा, आप ने भी कभी इस पर तो लिखा नहीं । शिकायत तो मुझे आपसेे भी थी। ऐसी घटनाओं पर आप भी चुप रह जाते हैं या इनसे ध्‍यान हटाने के लिए वह तूूमार बांधते हैं जिसमें आए दिन हमें इनके उपद्रव झेलने पड़ते हैं और आप अमेरिका और गोरेे देशों का खतरा दिखाते हुए इनके साथ सहयाेग करने को कहते हैं । आप भी इतिहास से लेकर समाजशास्‍त्र तक का इकहरा पाठ करते हैं जिसमें हिन्‍दू की पीड़ा आपको भी पीड़ा से कुछ कम नजर आती है और उनकी पीड़ा पर आप धर्मोपदेश देने लगते हैं ।”

”शास्‍त्री जी, पहली बात तो यह कि यदि आप सोचते हैं कि इतनी जटिल समस्‍या का समाधान मेरे पास है तो मेरी समझ पर आप पर कुछ अधिक भरोसा है । सभ्‍यता का निर्वाह करते हुए हम पशुता का सामना नहीं कर सकते, असभ्‍य लोगों के साथ सभ्‍यता के नियम नहीं चल सकते, इसलिए हमे पशुओं के साथ पशु बन जाना चाहिए और असभ्‍योंं का प्रतिवाद करने के लिए हमें असभ्‍य हो जाना चाहिए और फिर जब उनसे निबट लें तो फिर सभ्‍य बनेें, यह मेरी समझ में नहीं आता । फिर भी मैं संतप्‍त लोगों को यह नहीं समझा सकता कि सभ्‍यता कादरता का पर्याय है। सदसि वाक्‍पटुता युधि विक्रम:, ऐसा ही कुछ है न भर्तृहरि के एक श्‍लोक में, आप को तो याद होगा।

”मनुष्‍य ने सभी दृष्टियों से अशक्‍त होते हुए भी पशुओं पर और असभ्‍य जनों पर विजय पाई है तो सभ्‍यता के बल पर ही। सभ्‍यता को दुर्बलता न समझें, यह मनुष्‍य को मनुष्‍य बनाती है और इसके बल पर ही मनुष्‍य ने समस्‍त प्राणियों पर और पिछड़े और बर्बर समाजों पर विजय पाई है ।”

”आप कहना चाहते हैं कि जिन्‍होंने विजय पाई है वे उन लोगों से अधिक सभ्‍य रहे हैं जिन पर उन्‍होंने विजय पाई । और इसलिए वे नृशंस जन जिन्‍होंने सभ्‍यताओं को नष्‍ट किया, सभ्‍य जनों को अपना दास बनाया वे उन सभ्‍य लोगों से अधिक सभ्‍य थे। इसके लिए तो हमे सभ्‍यता की एक विचित्र परिभाषा गढ़नी होगी, जो विेजेता है वह अधिक सभ्‍य है। जो उच्‍च जीवनमूल्‍यों के कारण पाशविकता पर न उतर पाया वह असभ्‍य था।” शास्‍त्री जो ने मुझे घेर लिया । इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि उनका अनुताप कम हो गया था और स्‍वर में आत्‍मविश्‍वास लौट आया था। अब उनसे तार्किक विचार विमर्श संभव था।

मैंने हंसते हुए उनके तर्क कौशल का सम्‍मान किया और फिर कहा, ”सभ्‍यता शक्ति प्रयोग का बहिष्‍कार नहीं है, युक्ति से शक्ति को गुणित करते हुए उसका उपयोग करते हुए पशुबल को तुच्‍छ बनाते हुए उस पर विजय पाने और उनकी पशुता को कम करने की कला है ।

”आपको अपनी ही परंपरा के कुछ विक्षोभकारी प्रसंगों की याद दिलाएं जिसे देवासुर संग्राम या असभ्‍य जनों के सभ्‍य जनों से लंबे समय तक चलने वाले कलह की घटनाओं को प्रतीकात्‍मक शैली में अंकित किया गया है। इनमें देवों को असुरों के अत्‍याचार और उत्‍पीड़न का बार बार शिकार होना पड़ता है परन्‍तु वेे असुर या राक्षसी जीवन पद्धति काेे नहीं अपनाते । बार बार घबरा कर अपने देवों से सहायता मागते हैं और उनकी सलाह पर या तो कोई नई युक्ति निकालते हैं या रक्षक देव स्‍वयं उनकी रक्षा के लिए अवतार लेते और उनकाेे दंडित करते हुए उनके उपद्रव को कम करते हैं परन्‍तु कभी अपने जीवनमूल्‍यों के साथ समझौता नहीं करते ।

”उनको आसुरी शक्तियों पर विजय हिंसा के बल पर नहीं मिलती, उनमें चेतना का प्रसार करने, उनके जीवनमूल्‍यों में परवर्तन लाने और अपरिहार्य स्थितियों में शक्ति के प्रयोग से मिलती है। विजय अपने उन्‍नत विकास के बल पर, उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय बनाने के द्वारा मिलती है और मिलती है अपने धैर्य और आर्थिक शक्ति के बल पर। आप तो संस्‍कृत साहित्‍य की मुझसे अधिक जानकारी रखते हैं, ”आपको वह सूत्र तो याद ही होगा, न वै देवा अश्रुुं कुर्वन्ति । देव रोते नही हैं ।

”और याद यह भी होगा और न याद हो , आप ने जैसा कहते हैं, मुझे अच्‍छी तरह पढ़ा है तो उसमें भी इसका संकेत मैने किया है कि देेवों काेे असुरों पर शस्‍त्र के बल पर विजय नहीं प्राप्‍त हुई, वह तो तात्‍कालिक उपचार था, विजय मिली आर्थिक प्रगति सेे । देेव रोते नहीं हैं, अध्‍यवसाय करते है, प्रयत्‍न में लगे रहते हैंं। वे जागरूक रहते हैं, जाग्रत‍ि देवा :। इसी का भाष्‍य है उत्तिष्‍ठ जाग्रत प्राप्‍य परान्निबोधत। देवो ने असुरों को शस्‍त्र से पराजित नहीं किया ‘ न वै देवा दंडै- धनुर्र्भि: वा असुरान् व्‍यजयन्‍त, उन्‍होंने यह चमत्‍कार शाकमेध से या आर्थिक प्रगति से की । ज्ञान साधना से की और वे ही असुर जो उनके साथ सहयोगी की भूमिका में नहीं आ सके विवश हो कर उनकी सेवा में आने को बाध्‍य हुए । शूद्राेें का इतिहास यही है। आज अपनी विफलता को भी एक उपलब्धि बना कर उसका लाभ उठाने के प्रयत्‍न में पुन: निष्क्रियता और परनिर्भरता को बढ़ाया जा रहा है यह आज की विडंबना है ।”

शास्‍त्री जी ने हाथ जोड़ लिए, ”डाक्‍साब, आप विषय को इस तरह फैला देते हैं कि विषय ही गायब हो जाता हैै। बच रहता है एक आभामंडल जो चकित तो करता है परन्‍तु समस्‍या का समाधान नहीं हो पाता ।”

”कुछ देर के लिए मैं भी विस्मित रह गया कि मुझसे चूक कहां हुई है। मुझे लग रहा था मैं अपने विषय पर ही बाेेल रहा हूं । खुलासा शास्‍त्री जी ने ही किया, ”धृष्‍टता के लिए क्ष्‍ामा करेे, पर मैं चााहता था कि आप इस बात का जवाब दें कि उसी समाज से ये दो तरह की प्रवृत्तियां कैसे पैदा हो गईं । यह जानना चाहता था कि इनके प्रति हमाारे बुद्धिजीवी उदासीन क्‍यों रहते हैं । जानना चाहता कि इसका तात्‍कालिक समाधान क्‍या हैै । जानना चाहता था कि आप स्‍वयं इन सवालों पर चुप क्‍यों रहते हैं और आप फिर वही पुुरानी हवा बांधने लगेे जो सुनने में तो अच्‍छा लग रहा है पर संकट से बाहर निकलनेका रास्‍ता नही दिखाई नहीं देता ।”

”शास्‍त्री जी आप विषय का इतना विस्‍तार कर देते हैं कि मुझे यह समझने में कठिनाई होती है कि आप का केन्‍द्रीय प्रश्‍न क्‍या है। सभ्‍यता का प्रश्‍न आप ने ही उठाया था। उसे ही समझाने का प्रयत्‍न कर रहा था। विषयविस्‍तार हुआ हो सकता है। अभी आपनेे जो प्रश्‍न उठाए उनमें भी कुछ बहुत उलझे हुए हैं । यह कि हिन्‍दू पीड़ा के प्रति संवेदनशून्‍यता का कारण क्‍या है। इस पर तो मैं विस्‍तार से कल की कुछ कह सकता हूं । रही बात कि मैं ऐसे विषयों पर क्‍यों नहीं लिखता तो मेरा सुझाव है कि इस पर अपने विचार और निर्णय देते हुए बुद्धिजीवियों को बचना चाहिए परन्‍तु सियासत का हिस्‍सा और उसी भाषा में सोचने और विचार करने के कारण संचारमाध्‍यम और बुद्धिजीवी दोनों अपनी ओर से फैसले देने के लिए उतावाले हो जाते हैं। यह राज्‍य की कानून और व्‍यवस्‍था की समस्‍या है और इसके असंख्‍य रूप हैै, गुुडागर्दी, चोरी, डाका, फिरौती, रेप,मिलावट ये अपराध जगत से जुड़ी समस्‍यायें हैंं जिन पर सरकार को काम करना चाहिए और उसकी विफलता या पक्षधरता सामने आने पर समाचार और मतनिर्माण के पेशों से जुडे बुद्धिजीवियों को उसकी आलोचना करना चाहिए । मैं इस विषय पर नहीं लिखता क्‍योंकि यह मेरे कार्यक्षेत्र में नहीं आता। मैं सक्रिय राजनीति का हिस्‍सा नहीं बनना चाहता। परन्‍तु यह याद दिला दूं कि जिन्‍हें नीेद में तानाशाही के बढ़ते हुए कदम दिखाई देते हैं उन्‍हें उन कदमोंं को रोकने के लिए इसकी कटु आलोचना अवश्‍य करनी चाहिए क्‍योंकि कानून और व्‍यवस्‍था की विफललताएं ही तानाशाही का रास्‍ता तैयार करती हैं और तब पूरा जनमततानाशाही के पक्ष में इस तरह हो चुका रहता है। आपका चीत्‍कार ‘तानाशाही आ रही है, आ गई है’ सुन कर लोग असंख्‍य कंठों से दुहराते हैं, अब इसी की जरूरत है, आने दो । बचाव का कोई अन्‍य उपाय नहीं ।

”हां, वे ऐसा करेंगे नहींं। यह उनके एजेंडे पर नहीं है। उनकी मानसिकता पर तो आज चर्चा होने से रही । इसेे कल के लिए रखिए।”