Post – 2019-05-31

ः#इस्लामपूर्व_अरब_और_भारत

मुहम्मद साहब अब्दुल्ला की पत्नी अमीना के पुत्र थे। पिता की मृत्यु उनके जन्म से पहले ही हो गई थी। अपने पीछे एक मकान, कुछ ऊंट, और एक गुलाम लड़की छोड़ गए थे। उनका जन्म 20 अगस्त 570 को हुआ। इसकी सूचना उनके दादा अब्दुल मुत्तलिब को मिली तो वह उन्हें काबा में देवताओं को धन्यवाद के लिए ले गए और उनका नाम वहीं पर मुहम्मद रखा। उन दिनों शरीफ घरों की महिलाएं अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती थीं, इसके लिए दाई का इंतजाम किया जाता था। उनको बानी सईद कबीले की हलीमा नाम की दाई ने पाला पोसा। दो साल की उम्र के बाद जब मुहम्मद को वह उनकी मां के पास लेकर गई तो उनके स्वास्थ्य को देखते हुए मां को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने आगे के पालन पोषण के लिए उसी के हवाले कर दिया। दो साल और गुजरने के बाद हलीमा बच्चे को लेकर फिर मक्का आई। मां ने उसे फिर रेगिस्तानी जिंदगी के लिए उसके हवाले कर दिया। 1 साल और बीत जाने के बाद वह तीसरी बार बच्चे को लेकर मक्का, अमीना के पास आई। छह साल की उम्र होने पर मां के साथ अपने ननिहाल, मदीना आए और उस मकान में जिसमें उनके पिता की मृत्यु हुई थी, 1 माह का समय बिताया। वहां से लौटते समय उनकी माता की रास्ते में ही अबवा में मौत हो गई। उनके पिताजी का दासी उन्हें लेकर अब्दुल मुत्तलिब के पास आई जिनकी उम्र इस समय तक 80 हो गई थी। 2 साल तक उनकी देख रेख में वही दासी देखभाल करती रही। इसके बाद दादाजी का भी इंतकाल हो गया। मौत से पहले उन्होंने मुहम्मद की देखभाल की जिम्मेदारी उनके चाचा अबू तालिब को सौंप दी थी जिसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से निभाया। बारह साल की उम्र में वह अपने चाचा के साथ एक सौदागरी पर सीरिया गए। जैसा कि सभी अवतारी पुरुषों के साथ होता है मुहम्मद साहब के जीवन में भी बचपन से लेकर अंततक चमत्कारपूर्ण किंबदंतियाँ जुड़ी हुई है।

एक बार कुरैश कबीले और बानी हवाजीन कबीले के बीच 4 साल तक खूनी जंगे फिज्र भी चली जिसमें अपने चाचा के साथ मुहम्मद साहब भी पहुंचे तो पर किसी ओर से भाग नहीं लिया। [ कुरेशी बानी किनान के ही खानदान के थे। बानी किनान की छह संतानों में एक का नाम फिह्र था जिनकी सौदागरी में रुचि थी इसलिए उनका उपनाम कुरेश (करश का अर्थ है आवागमन, चलन्तू। सं. भाषियों के उत्तरी अरब में प्रभाव के कारण अरबी शब्दभंडार पर संस्कृत का काफी गहरा प्रभाव पड़ा है। चर>कर, कार> फा. कारवांां> कारूं का खजाना )।]

इसी कुरैशी वंश में जो मक्का का स्थाई निवासी था, जिसकी माली हालत काफी अच्छी थी, मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था, यद्यपि उनके परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती।

तकरार के खत्म होने के बाद आपसी झगड़े फसाद निपटाने, बेकसूर को बचाने और अन्याय करने वाले को दंडित करने तथा शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए हिल्फुल-फुजूल नाम का एक संगठन बना।

यह जानना उपयोगी हो सकता है कि इस समय तक जब मुहम्मद साहब ने अपने लिए किसी नई भूमिका की कल्पना भी नहीं की थी, मक्का की, और पूरे अरब की, जिसे बाद में जाहिलिया से ग्रस्त बताया जाता रहा, क्या दशा थी।

मक्का में कई तरह के व्यापार चलते थे, आयात पर कर वसूल किया जाता था और व्यापारियों के काफिले दूर-दूर तक यात्रा करते थे। मुहम्मद साहब ऐसी यात्राओं पर समय-समय पर जाते रहे और औपचारिक शिक्षा के बिना भी तरह तरह के लोगों के संपर्क में आने के कारण उनको बहुत सी ऐसी जानकारियां सुलभ थीं जो पढ़े लिखे लोगों को प्राप्त नहीं हो पातीं।
[उनके आरंभिक जीवन की परिस्थितियों और उपलब्ध विवरणों से लगता है, वह सचमुच निरक्षर थे। काफिलों के साथ जुड़े रहने के कारण अनेक देशों और समुदायों के सभी स्तरों के लोगों से और उनकी विविध गतिविधियों परिचय ने उनको तत्वज्ञानी बना दिया था।]

कहें, वह भले कागज के कोरे रहे हों पर लोकानुभव और व्यवहार बुद्धि में प्रखर थे। पुरानी पीढी के भारतीय व्यापारी गिनती, जोड़, गुणा और अक्षरज्ञान से आगे की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं दिया करते थे और व्यवहार बुद्धि का हाल यह कि वे राजतंत्र के समानांतर अर्थतंत्र चलाते थे। यह नियम अरबों पर भी लागू माना जा सकता है।

व्यापारियों की हालत अच्छी थी और मक्का के लोग खुशहाल थे । लोग भूत-प्रेत में विश्वास करते थे। भूत-प्रेत और देवी-देवताओं से ऊपर एक परमेश्वर की अवधारणा थी, जिसे वे अल्लाह कहते थे। परंतु वे पैगंबरों के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। मूर्ति पूजा करने वाले मूर्ति में किसी देवता की प्रतिष्ठा मानते थे, फिर भी यह मानते थे कि समस्त सृष्टि का कर्ता एक है।

इस्लाम से पहले की अरब की धार्मिक मान्यताएं और नीतियां भारत से कितनी समानता रखती थीं इसके विस्तार में स्वयं न जाकर हम अपने पाठकों का ध्यान नीचे की टिप्पणी की ओर दिलाना और इनसे मिलते जुलते भारतीय प्रतिरूपों से इनका मिलान करने का अनुरोध करेंगे। लोगों को किसी भी मजहब को अपनाने, किसी भी देवता-देवी को मानने की आजादी थी। ईसाइयों और यहूदियों को अपने मजहब और रीति रिवाज का पालन करने की पूरी छूट थी और किसी को, किसी मत और मान्यता से शिकायत नहीं थी।
[The Arabs adored many gods. The belief in the influence of jinn was common, yet call above the jinn, above all the gods in the Kaaba, there was the Supreme One, Allah, the God. Masudi tells us that in the days of Ignorance, as the pre-Islamic times are called, some of the Quraish also proclaimed the unity of God, affirmed the existence of one Creator, and believed in the resurrection, whilst others denied the existence of Prophets and were attached to idolatry. Many of the people Look upon the idols as intercessors with one God. Still the doctrine of unity of God was not altogether unknown to the Arabs. Cannon Sell, 1913, The Life of Muhammad, www. muhammadism.org. 2003]

हम कह सकते हैं अरब समाज भारत से इतना मिलता जुलता था कि यदि कोई सोचना चाहे कि यह समानता भारतीय प्रभाव के कारण थी तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कारण, जैसे सुमेरी सभ्यता की प्रेरणा से बेबिलोनिया/ मेसोपोटामिया, मिस्र, लघु एशिया, ग्रीस, रोम और आज की सभ्यताओं का जन्म हुआ था उसी तरह सुमेरी सभ्यता का उत्थान ही भारतीय पहल से हुआ था। इसमें भारतीय परंपरा के अनुसार, जिसकी पुष्टि पश्चिमी परंपरा से भी होती है, प्रमुख भूमिका देवों (आर्यों) की नहीं, असुरों की थी, जो तकनीकी दृष्टि से कृषिकर्मियों से बहुत आगे बढ़े हुए थे और उनके कारण ही देवों के भी अपने नगर बसें। सबसे पहले नगर सभ्यता का आरंभ आर्य भूमि से निष्कासित हुए असुरों ने किया था, और उसके बाद उनकी ही सहायता से देवों (आर्यों) ने अपने नगर बसाए थे, परंतु उत्पादक श्रम से परहेज करने के कारण, असुर स्वयं कृषि और वाणिज्यिक गतिविधियों में आगे नहीं बढ़ सके।

भारत में भी भूत-प्रेत में विश्वास, जादू टोने में विश्वास, बालवध उन्हीं में प्रचलित था। सुमेर में पहुंचने के बाद भी वे स्थानीय आबादी को भ्रमित और नियंत्रित करके खेती बागवानी आदि का सारा काम उनसे कराते रहे और स्वयं अपने जादू टोने के बल पर पुरोधा बनकर उन पर शासन करते रहे। उनके अत्याचार की कहानियां दहलाने वाली हैं।

हमने एक अन्य प्रसंग में यह कहा है इन असुरों के देव समाज में प्रवेश करने के बाद ब्राह्मणवाद का वह रूप सामने आया जिसकी विकृतियों की आलोचना होती है और यही ब्राह्मणवाद के सबसे प्रबल समर्थक भी बने रहे, यद्यपि इनको उच्च कोटि का ब्राम्हण नहीं स्वीकार किया गया।
सुमेर में अपनी विशेष सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने ऊंचे मंदिर और निवास (जिगुरात/ जिग्गुरात) बनाए । भारतीय व्यापारियों ने असुरों की सहायता से ही उद्योग, शिल्प और नगर निर्माण के क्षेत्र में प्रगति की और भारत से बाहर भी अपने लिए सुरक्षित प्राकारयुक्त बस्तियों का निर्माण किया।

हम यहां इसके विस्तार में नहीं जा सकते, परंतु इस तथ्य को रेखांकित कर सकते हैं अन्य सभ्यताओं की उन्नत अवस्था में भी भारत का बहुत गहरा प्रभाव था। इसका सही आकलन करने में कृपणता और कपट से काम लिया गया। सुमेरी काल से लेकर 18 वीं शताब्दी तक यूरोप से लेकर बीच के सभी प्रदेशों का अर्थतंत्र भारतीय व्यापार से इस तरह जुड़ा था कि उन्हे भारतीय सभ्यता का आश्रित कहा जा सकता है। प्राचीनतम सुमेरी अभिलेखों से पता चलता है कि जिन स्थानों के जहाज वहां अपना माल लेकर पहुंचते थे, वे थे:
1. मेलुक्खा (Meluḫḫa ) [Meluḫḫa or Melukhkha ((Me-luh-haKI 𒈨𒈛𒄩𒆠) is the Sumerian name of a prominent trading partner of Sumer during the Middle Bronze Age. Its identification remains an open question, but most scholars associate it with the Indus Valley Civilization. Wikipedia,Meluḫḫa.]
2. माकन (Magan, Makkan) [Trade between the Indus Valley and Sumer took place through Magan, although that trade appears to have been interrupted.Wikipedia, Magan.]
3. दिलमुन (Dilmun/ Tilmun)[ it was located in the Persian Gulf, on a trade route between Mesopotamia and the Indus Valley Civilisation, close to the sea and to artesian springs
4. पंत (Punt), /पुंत [The exact location of Punt is still debated by historians. Most scholars today believe Punt was situated to the southeast of Egypt, most likely in the coastal region of modern Djibouti, Somalia, northeast Ethiopia, Eritrea, and the Red Sea littoral of Sudan].
5. सुतकागेन दोर (Sutkagan Dor) [Sokhta Koh is a Harappan site on the Makran coast, near the city of Pasni, in the Balochistan … A similar site at Sutkagen-dor (also spelt Sutkagan Dor) lies about 48 km (30 mi) inland, astride Dasht River, north of Jiwan]i.

महत्वपूर्ण बात केवल यह नहीं है कि इन सभी अड्डों से सुमेरियन सभ्यता का संपर्क था, बल्कि यह कि इन सभी से भारतीय माल या भारत-विशिष्ट पशुओं, पक्षियों, वन्य और कृषिलभ्य उत्पादों की ही नहीं, यदा-कदा शिल्पियों की आपूर्ति की जाती थी, और सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है ये अड्डे भारतीय क्षेत्र से आरंभ होकर खाड़ी क्षेत्र, पूर्वी अरब, और इथियोपिया तक फैले थे, अर्थात प्राचीन सभ्यताओं का सीधा और परोक्ष संबंध केवल भारत से था। प्राचीन सभ्य संसार का मतलब था भारत और इसका संपर्क क्षेत्र जिस पर भारतीय व्यापारियों का लगभग एकाधिकार 4000 साल तक बना रहा। इसने अपने प्रभाव क्षेत्र की भाषा, संस्कृति और समाजव्यवस्था को प्रभावित न किया होता तो ही विस्मय की बात थी। ऐसी स्थिति में जब प्रमाण भी उपलब्ध हों तो इस सचाई को नकारना दुसाहस की बात होगी।

Post – 2019-05-30

आपको सच में याद करते हैं
मरने के बाद याद करते हैं।
यही दस्तूर है जमाने का,
है नहीं उसको याद करते हैं।।

Post – 2019-05-30

भारतीय समाज

हम तो आईना हैं. ‘गर आप खुश रहें तो रहें।
तोड़ भी दें तो हमें टूटने की आदत है।।

Post – 2019-05-28

Modi does not kill. He appropriates.
Even if you correctly judge his designs, you can not escape.
Beware of this python.

Post – 2019-05-28

‘मतिमतां च विलोक्य विमूढ़तां
विधिरहो बलवानिति मे मतिः।’

Post – 2019-05-27

रात अपनी है दिन भी अपना है,
नींद आई तो ख्वाब देखेंगे।।

Post – 2019-05-27

आत्मचिंतन

मैं राहुल गांधी के इस निर्णय को सही मानता हूँ कि उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं रहना चाहिए। कारण पार्टी की हार नहीं है, हार और जीत होती रहती है। पिछले आंकड़े को कुछ तो सुधारा है। कारण यह है कि अपनी समझ से उन्होंने एक पर एक ब्रह्मास्त्र दागते हुए शिष्टता की मर्यादाएं तोड़ दीं। भारतीय नागरिकों ने उनके हथियारों को मौन भाव से उन्हीं की ओर फेर दिया। भाषा की मर्यादा लांघने के बाद व्यक्ति समाज की नजर में गिर जाता है। अब उसका सामना किस मुंह से करेंगे।

हार-जीत के बाद केवल हारने वाले को ही नहीं, जीतने वाले को भी अपने अपने ढंग से आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। सामान्यतः जीतने वाले आत्मनिरीक्षण नहीं करते, क्योंकि सफल होने के बाद वे मान लेते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया या नहीं किया, वह अचूक था। कहीं कोई चूक हुई ही नहीं और इसका प्रणाम है उनकी विजय।

इस सामान्य नियम के विपरीत कम से कम मोदी ने आत्मचिंतन किया कि जब उन्होने ‘सबका-साथ-सबका-विकास’ का संकल्प लिया था, और इसके अनुसार काम किया था, तो वे कौन सी कमियां थी जिनके कारण कुछ लोगों का साथ नहीं मिला। उसके प्रयत्न के बाद भी कुछ लोग जातिवाद से और कुछ दूसरे संप्रदायवाद से मुक्त क्यों नहीं हो पाए? इतनी भारी विजय के बाद होश हवास बनाए रखना राजनीतिक परिपक्वता का द्योतक है। मोदी ने अपने नए संकल्प में ‘सबका-साथ-सबका-विकास’ के साथ ‘सबका-विश्वास’ जोड़ दिया। उनके कहने और करने में एकरूपता देख कर मात्र इस घोषणा ने ही मुसलमानों के अविश्वास में सेंध लगा दी है।

राजनीतिक दलों में केवल कांग्रेस ने आत्म निरीक्षण किया और पाया की असाधारण पराजय के बाद भी कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार का ही कोई व्यक्ति कर सकता है, इसलिए राहुल की हार्दिक अनिच्छा के बावजूद भी उसका लगातार यह दोहराना कि उसके पास राहुल गांधी से अधिक योग्य कोई नहीं है, गलत नहीं है। पार्टी भी इस बात पर उतनी ही मुस्तैदी से डटी हुई है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर रहना ही होगा । कांग्रेस ने इतने लंबे समय से जिस संस्कृति को बढ़ावा दिया है उसके कारण राजवंश के सभी दोष उसमें घर कर गए है। इस तरह पराजय ने पूरे संगठन के आत्मबल को नष्ट कर दिया है।

कांग्रेस का बचा रहना आज की परिस्थितियों में जितना जरूरी हो गया है, उतना पहले कभी नहीं था, क्योंकि आज से बीस साल पहले माकपा के सीमांत क्षेत्रों तक सिमटे रहने के बाद भी यह खुशखयाली पाली जा सकती थी कि वह एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका का निर्वाह कर सकती है। उसके पास एक विजन था, जिसको लेकर उसके केंद्र में आने के सपने पाले जा सकते थे। आज उसकी दशा क्षेत्रीय दलों से भी बुरी है जिनके पास न विजन है, न दर्शन, न चरित्रबल, न मनोबल। लोकतंत्र के हित में है कि भले लंबे समय तक सत्ता किसी एक दल के पास रहे – लंबी योजनाओं के पूरा करने के लिए यह जरूरी भी है – परंतु एक प्रभावशाली विपक्ष लगातार उपस्थित रहना चाहिए जो अंकुश का काम करता है, और सत्ता को मतवाले हाथी की भूमिका में जाने से रोकता है।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने विपक्ष को पनपने ही नहीं दिया, इसलिए बंगाल में उसकी हार नहीं हुई, वह एक साथ ओझल हो गई। कांग्रेस के साथ भी यह दोष भले रहा हो परंतु उसने पूरे इतिहास में गैर लोकतांत्रिक हथकंडों का प्रयोग करके भिन्न विचारधारा के लोगों को जनप्रतिनिधि बनने में यदा कदा ही रुकावट डाली । धनबल का प्रयोग करने से बची रहती तो कांग्रेस अनेक दूसरी व्याधियों से ही बची रह सकी होती।

मुझे शिकायत इस बात की है कांग्रेस ने चिंतन किया ही नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष में चिंतन और आत्म चिंतन की योग्यता नहीं। उन्होंने केवल दोषारोपण किया, जबकि वह दोष दूसरों में उनके ही परिवार के कारण पैदा हुआ, और जैसा कि मुहावरा है सूप तो हंस सकता है, छलनी नहीं हंस सकती, जिसमें हजारों छेद हैं।

आत्ममंथन के मुद्दे निम्न प्रकार हो सकते थेः
1. क्या पिछले 5 वर्षों में उसने विपक्ष में रहते हुए एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वाह किया? संसदीय कार्य में बाधा डालकर शोर मचाते हुए बिना सोचे समझे हर मुद्दे पर हंगामा करके इतने शक्तिशाली बहुमत वाली सरकार को विफल करने की नीति का जनता में क्या संदेश गया होगा और उसका निर्वाचन पर क्या असर पड़ा हो सकता है?

2. हिंदू कार्ड खेल कर, अपने को सच्चा ब्राह्मण सिद्ध करते हुए यदि कोई ईसाई यह सोचे कि उसे इसका लाभ मिलेगा, तो इतिहास पर ध्यान देना चाहिए। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने का मामला हो या हिंदू बहुमत को अपनी ओर मोड़ने के लिए अपनाए गए दूसरे हथकंडे रहे हो उनका लाभ उस संगठन को मिला है जो हिंदू पहचान के साथ अपनी राजनीति करता रहा।

3, यह दल लंबे अरसे तक मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा करके उनको अपने वोट बैंक के रूप में काम में लाता रहा है। जब भी कांग्रेस ने हिंदू कार्ड खेला, एक ओर तो उसने अपनी विश्वसनीयता खोई, साथ ही उस वोटबैंक को किसी न किसी की ओर भागने को मजबूर किया। राजनीति में निस्पृहता, विश्वसनीयता, और सिद्धांतप्रियता ऐसी निधियां हैं जिनको खोने वाला लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता। इसे कैसे और क्या कीमत देकर दुबारा पाया जा सकता है. यह विचारणीय था।

4, पिछले 5 वर्षों में अनेक ऐसी अराजक घटनाएं पर्दे के पीछे रहकर कराई गई जिनमें सीधे किसी का नाम लिया नहीं जा सकता, परंतु यह संदेह किया जा सकता कि प्रशासन की विफलता प्रमाणित करने के लिए उनको सुनियोजित ढंग से कराया जा रहा था, जिससे राष्ट्रीय जन धन की भारी क्षति हुई, और मतदाताओं का बहुत छोटा सा हिस्सा मानता था इसमें उस गुप्त मंत्रणा का प्रयोग किया जा रहा है जिसके प्रशिक्षण के लिए राहुल को अज्ञातवास करना पड़ता था। विचारणीय था कि क्या आगे भी यह नीति जारी रहनी चाहिए?

6. कांग्रेस के पास काडर कभी न था, सत्ता से निकटता कायम करके कुछ न कुछ हासिल करने वाले समर्थकों की भीड़ अवश्य थी। उसके सत्ता से हटते ही उसका उत्साह ठंढा पड़ जाता है। कांग्रेस शासन के केंद्र से चले रुपये के पचासी पैसे को यही हजम करता था। समर्थकों की भीड़ जुटाने के लिए उस तक कुछ न कुछ पहुंचाने का कोई नया तरीका निकाला जाना चाहिए। अब तो सीधे बैंक खाते में पैसा भेजने का रास्ता निकल आने के बाद सत्ता थमा दी जाए ताे भी उसे कुछ न मिलेगा। वही कांग्रेस का जनाधार है। जनाधार तैयार करने का क्या तरीका हो सकता है?

7.अंतिम समस्या मुद्दों की है। अब कोई मुद्दा ऐसा बचा ही नही जिसे वह अपना कह सके। राजीव गांधी ने सैम पित्रोदा की मदद से आधुनिकीकरण का एक मुद्दा अपने लिए पैदा किया था। कांग्रेस के सभी मुद्दों पर जिन पर वह काम भी नहीं कर पाई, भाजपा बढ़-चढ़कर नए विजन के साथ काम कर रही है। ऐसी ही स्थिति में भारतीय भाषाओं के व्यवहार को मुद्दा बनाया जा सकता था परंतु सोनिया गांधी की रुचि भारत से अधिक अपने मजहब को आगे बढ़ाने में है जिसके साथ अंग्रेजी का गहरा संबंध है, इसलिए वह मुद्दा भी उसके काम नहीं आ सकता। नया मुद्दा क्या हो सकता है इस पर उसके सिद्धांतकारों के विचार करना चाहिए था ।

8. हार की जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र देने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह कुछ ऐसा लगता है जैस ईंट दर ईंट टूट कर बिखर रही हो। सबसे पहली समस्या इसको रोकने की है, इसके तरीके पर विचार किया जाना चाहिए।

वंशवाद भले व्याधि हो । आज के भारत में कांग्रेस की देश को जरूरत है। पहली जरूरत जो भी संख्या बल है उसको लेकर बहुत जिम्मेदार विरोधी पक्ष के रूप में अपनी भूमिका तय करने की है। लड़कपन के सारे प्रयोग हो गए। परिपक्वता का दर्शन होना चाहिए।

Post – 2019-05-26

#नया_आपातकाल और #युगान्तर

मैं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजय से इसलिए भी प्रसन्न हूँ कि इससे मेरे पूर्वानुमानों की पुष्टि हुई है। आज से 4 साल से भी पहले से मैं मोदी को भारत का सबसे योग्य नेता मानता था। इतिहास की समझ रखने वाले (उनका इतिहासकार होना जरूरी नहीं), वर्तमान में, अपने समय से आगे की बातें करते हैं, लोगों को इसे समझने में कठिनाई होती है। अपनी उतनी ही पुरानी एक पोस्ट में मैंने इतिहास की समझ रखने वाले को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा था परन्तु इस दुर्भाग्य पर खेद जताया था कि हमारे बीच इतिहासकार हैं ही नहीं।

1
मोदी के महत्व को रेखांकित करते हुए 11,2. 2015 फेसबुक पोस्ट में, संवाद शैली मैं जो कुछ लिखा था उसकी कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार हैंः

“पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहास पुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में…”
“2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, प्रधानमन्त्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो …”
मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, “2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था – अडवानी को इतने नम्बर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार बार मोदी को इ-त-ने नम्बर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केन्द्र में रख कर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है।
“जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतन्त्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी जल्दी जो जर जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी फिर भी एक आखिरी बाज़ी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार. समाज ने समझा ‘सब कुछ खा जाने का अधिकार.’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नही. उसने उसे हराया नहीं धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है परन्तु इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है?”
अकेली ऎसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया. वह हारी नही. लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है. कांग्रेस का सफाया हो गया … इस बार कांग्रेस हारी नही है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धंस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे संभाल नही सकती. दुखद स्थिति है, पर है. क्या किया जा सकता है.
इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा. पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नही.
“और जानते हो यह भी मोदी के कारण नही होगा, इतिहास के कारण होगा. पूंजीवादी विकास के कारण होगा. तानाशाही पूंजीवाद को रास नही आती. तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है. मोदी को इसकी समझ है दूसरों को नही. वह बार बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है कि एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया. यह भारत में उभरते पूंजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?
“जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतान्त्रिक बने रहने कि लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनो और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ.”
11/2/2015

2
अगले दिन की पोस्ट के कुछ अंश निम्न प्रकार थेः
त्रिकालदर्शी

“तुम एक दिन कह रहे थे, ‘इतिहासकार त्रिकालदर्शी होता है. ऋषि हो जाता है’. कहा था या नही?”
“कहा तो था.”
“आज भी मानते हो?”
“न मानने का कोई कारण नहीं.”
“तो यह देखो इतिहासकार क्या कहते है?” उसने हिन्दू का सम्पादकीय और समाचार वृत्त मेरे सामने कर दिया. …
अख़बार मेरे सामने पटकते हुए कहा, “देखो ये इतिहासकार क्या कहते है?”

मैंने पूछा ” इनमें इतिहासकार कौन है?”
वह हंसने लगा, “अब ऊँट आया पहाड़ के नीचे. मैं बताऊंगा ये कौन हैं?”
“बड़े लोग हैं, मैं भी जानता हूँ. पर इनमे इतिहासकार कौन है?” मैंने फिर दुहराया.
“तुम सीधे कहो कि ये इतिहासकार नही हैं.”
“यही तो कह रहा हूँ. और यह मैं नहीं कहता, ये बेचारे खुद कहते हैं कि ये धंधेबाज इतिहासकार हैं, प्रोफेशनल हिस्टोरियन. कहते हैं या नहीं?”
“कहते हैं. कहते इसलिए हैं कि ज़िंदगी भर इतिहास ही पढ़ाया है. प्रोफेसर रहे है हिस्ट्री के.”
“तो यह कहो कि इतिहास पढ़ाते रहे हैं. इतिहासकार क्यों कह दिया. जो आदमी ज़िन्दगी भर हिंदी साहित्य पढ़ाता रहा हो उसे साहित्यकार, आलोचक मान लोगे? जो फलसफा पढ़ाता रहा हो उसे फिलॉसफर मान लोगे. हद करते हो यार!”
“फिर तुम्ही बताओ कौन है इतिहासकार?”
“दूर-दूर तह कोई दिखाई नही देता. जो है उसे मैं खुद नहीं देख पाता. नाम लेना शिष्टाचार के विरुद्ध है, पर तुम देखना चाहो तो देख सकते हो.” …

“ये इतिहास के तथ्यों से अवगत हैं परन्तु उनका उपयोग ईमानदारी से नही करते. इसका असर समझ पर पड़ता है. …वकीलों जैसी स्थिति है. सत्य और न्याय की रक्षा नहीं, जीत एकमात्र कसौटी है. लफ़्फ़ाज़ी और आत्मविज्ञापन पर अधिक भरोसा करते हैं.
“सत्ता से जुड़े लोग, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता, सफलता चाहते हैं, सत्य की प्रतिष्ठा नहीं. वे पक्षधर होते हैं, अतः समदर्शी और तत्वदर्शी नहीं हो सकते. … पक्षधर लोग तत्वद्रष्टा नही हो सकते. इतिहासकार जैसा कि तुमने याद रखा ऋषि होता है. दार्शनिक होता है वह. पूरी दुनिया में ऐसे द्रष्टा लम्बे समय बाद ही मिलते हैं. हम केवल यही कर सकते हैं कि निष्पक्ष होकर विचार करें और गलतियों का आभास मिलते ही उन्हें सुधार लें. इतिहासकार कहलाने के लिए इतना भी पर्याप्त है, परन्तु ये ऐसा नहीं करते.”…
“थोड़ा ठहर कर मैंने पूछा, “जानते हो, किसी भी अन्य शाखा का कोई विद्वान अपने को पेशेवर (पेशेवर समाजशास्त्री, पेशेवर अर्थशास्त्री आदि) नहीं कहता. पहले ये भी नही कहते थे. इन्होने अपने को पेशेवर इतिहासकार कब से और क्यों लिखना आरम्भ किया?”
वह नहीं जानता था. मैने बताया “1987 से.” …
“…ऐसे लोगों को तुम इतिहासकार कह सकते हो? ये इतिहास का पेशा करने वाले लोग हैं. इतिहासकार के पास दृष्टि होती है इनके पास कुर्सी रही है.”
“लेकिन एक बात तो मानोगे. अध्यापक बहुत अच्छे हैं”.
“वाक्कुशल हैं. अपनी बातों से मुग्ध कर देते हैं. अपनी गलत बातों को इस तरह रख लेते हैं की सुनने वाले को लगे यही सही है. पर अपने छात्रों को जान बूझ कर गलत इतिहास पढ़ाने वालों को अच्छा अध्यापक कह सकते हो? ये तो इतिहास के चार्ल्स शोभराज हैं. मशहूर वह भी कम नहीं है मगर वह अपनी सही जगह पर है, ये गलत जगह पर.
तुम कहोगे साहित्य और कला के भी चार्ल्स शोभराज होते है.
मैंने कहा, “तुम्हारे मुंह घी शक्कर!”
3.11.15
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परंतु मैंने ये अंश अपनी दूरदर्शिता प्रमाणित करने के लिए नहीं अपितु इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कह रहा हूं कि
1. बुद्धिजीवियों के लगातार राजनीतीकरण के कारण वस्तुपरक चिंतन का इतना अभाव हो चला है कि सोचने का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। सोचना मानने का पर्याय बन गया है। लोग बहुत लंबे सोच विचार के बाद उसी नतीजे पर पहुंच जाते हैं जिसे गलत मान कर सोचना विचारना आरंभ किया था। हाल की अकल्पनीय पराजय, जिसकी घोषणा मैंने महागठबंधन के समय ही कर दी थी, के बाद राजनीतिक दलों का आत्मचिंतन ही नहीं, बुद्धिजीवियों का भी आत्म चिंतन भी इसी का प्रमाण है। बुद्धिहीनता का बुद्धिजीवियों के भीतर ही संस्थाबद्ध हो जाना बौद्धिक आपातकाल है, जिसमें बोलने की आजादी तो इतनी है कि बुद्धिजीवी गालियों के नए मुहावरे अविष्कार करते और प्रयोग में लाते रहते हैं, और मान लेते हैं कि सोच रहे हैं।
2. कि केवल कांग्रेस ही नहीं सभी दल क्षरण और संभावित लोप की दिशा में बढ़ रहे हैं। उनके लोप का कारण उनकी सिद्धांतहीनता, या जिन सिद्धांतों के दावे वे करते रहे हैं उससे इतना भटक जाना है कि अब वापसी का रास्ता बंद हो गया। यदि प्रभावशाली विपक्ष ही समाप्त हो जाए, तो लोकतंत्र लोक निर्वाचित प्रतिनिधियों के बल पर जीवित नहीं रह सकता। तानाशाही अपनी संज्ञा से आए या विपक्ष की विकल्पहीनता के कारण, उसका आना अनिवार्य है।
3. कि राष्ट्रवाद स्वयं में कोई सिद्धांत नहीं है, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे राष्ट्रवाद मानता रहा है वह हिंदू राष्ट्रवाद रहा है। हिंदू की जितनी भी उदार व्याख्या की जाए, जातीयता राष्ट्रीयता नहीं हो सकती। यह उसी व्याधि का विस्तार है जिसमें सबसे पहले सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को अलग कौम या राष्ट्र कहा था। राष्ट्रीयता केवल देशज हो सकती है उसी में सर्वसमावेशी भाव संभव है और उस संकीर्णता से भी मुक्ति है जो यूरोपीय राष्ट्रवाद में पाई जाती है और हिंदू राष्ट्रवाद में अपना ली गई थी।
4. कि मोदी की सबसे बड़ी विशेषता यह है उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को भारतीयता से, पूजा को स्वच्छता से, मंदिरवादियों को आर्थिक नीतिकारों से, जाति, क्षेत्र, मत मतांतरों को सर्वसमावेशी राष्ट्रीयता से जोड़कर, पहचान के संकीर्ण दायरो को तोड़ कर भारत के नागरिक की पहचान दी, जो पुरानी सोच के लोगों को इतना अविश्वसनीय लगता है कि वे आज भी इसे एक छलावा मानते हैं जबकि इसे व्यावहारिक रूप दिया जा चुका है, और जो बचा है उसकी प्रतिज्ञा नरेंद्र मोदी के नए ‘सबका विश्वास’ प्राप्त करने के संकल्प में है।
5. अभी कल तक लोग सिंगापुर मॉडल की बात करते थे, फिर गुजरात माडल की बात करने लगे। आने वाले कल को हमारे आसपास के सभी देश और दूर-दराज के भी कुछ देश मोदी द्वारा कायाकल्प किए जाने वाले भारत के मॉडल की बात करेंगे।

परंतु मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अंग्रेजी को एक जरूरी विदेशी भाषा के रूप में प्रश्रय देना और व्यवहार की भाषा के रूप में बाहर करके भारतीय भाषाओं को शिक्षा से लेकर प्रशासन तक की भाषा बनाना, जिसके साथ जनवाद का एक नया अध्याय आरंभ हो सकता है। मात्र इस परिवर्तन सेः
मूक होइ बाचाल, पंगु चढ़ै गिरिवर गहन।

यही वह मुद्दा है जिसमें मोदी की विफलता के साथ आसन्न भविष्य में भाजपा का विकल्प तैयार किया और भारतीय जन को लामबंद किया जा सकता है।

Post – 2019-05-25

हँसो यह जानकर, हँसने का अपना व्याकरण भी है।
हुआ कारक गलत तो लानतों में डूब जाओगे।

Post – 2019-05-25

जब भी मैं तुझको याद करता हूं
तू ही, बस तू ही, याद आता है।
जब भी मैं तुझको भूल जाता हूं
अपना होना भी भूल जाता है।।