Post – 2019-05-26

#नया_आपातकाल और #युगान्तर

मैं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की विजय से इसलिए भी प्रसन्न हूँ कि इससे मेरे पूर्वानुमानों की पुष्टि हुई है। आज से 4 साल से भी पहले से मैं मोदी को भारत का सबसे योग्य नेता मानता था। इतिहास की समझ रखने वाले (उनका इतिहासकार होना जरूरी नहीं), वर्तमान में, अपने समय से आगे की बातें करते हैं, लोगों को इसे समझने में कठिनाई होती है। अपनी उतनी ही पुरानी एक पोस्ट में मैंने इतिहास की समझ रखने वाले को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा था परन्तु इस दुर्भाग्य पर खेद जताया था कि हमारे बीच इतिहासकार हैं ही नहीं।

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मोदी के महत्व को रेखांकित करते हुए 11,2. 2015 फेसबुक पोस्ट में, संवाद शैली मैं जो कुछ लिखा था उसकी कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार हैंः

“पहले इस कटु सत्य को समझो कि मोदी एक विषेष ऐतिहासिक परिस्थिति की उपज है। इतिहास पुरुष है। उसे भारतीय जन समाज ने 2013 में तानाशाह के रूप में…”
“2013 में नहीं, 2014 में और तानाशाह के रूप में नहीं, प्रधानमन्त्री के रूप में। तानाशाह वह खुद बनना चाहता है। जब तुम इतनी मामूली बातें भी नहीं समझ पाते तो …”
मैंने उसे वाक्य पूरा करने ही नहीं दिया, “2014 में निर्वाचन हुआ और जनता पार्टी जीती। जनता ने तो 2013 में ही उपलब्ध तानाशाहों में से किसी एक को चुनना आरंभ कर दिया था – अडवानी को इतने नम्बर, राहुल को इतने, सोनिया को इतने, नीतीश को इतने और मोदी को इ-त-ने। एक बार नहीं, बार बार मोदी को इ-त-ने नम्बर मिलते रहे। जब किसी एक व्यक्ति को केन्द्र में रख कर पूरा चुनाव हो तो जीत या हार किसी दल की नहीं होती, तानाशाह की होती है।
“जनता का विश्वास कांग्रेस के कारनामों के कारण लोकतन्त्र से उठ गया था। वह तानाशाह चुन रही थी और मोदी को चुन लिया था। कर्मकांड 2014 में पूरा हुआ। कांग्रेस 2013 में मान चुकी थी कि वह हार गई और जल्दी जल्दी जो जर जमीन हथियाया जा सकता था उसे हथियाने पर जुट गई थी फिर भी एक आखिरी बाज़ी उसने लगाई, सबको भोजन का अधिकार. समाज ने समझा ‘सब कुछ खा जाने का अधिकार.’ उसने कांग्रेस को यह बता दिया कि देश-हित तुम्हारी प्राथमिकता नही. उसने उसे हराया नहीं धक्के देकर बाहर कर दिया, यह देश का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है परन्तु इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है?”
अकेली ऎसी पार्टी जिसका देशव्यापी जनाधार था, जो ही विकल्प बन सकती थी, उसने अपना नैतिक औचित्य खो दिया. वह हारी नही. लोकतंत्र में हार-जीत होती रहती है. कांग्रेस का सफाया हो गया … इस बार कांग्रेस हारी नही है, अपनी भ्रष्टता के कारण अपना नैतिक अधिकार खोकर धंस गई है और अब नेहरू परिवार से बाहर आकर भी अपने मलबे संभाल नही सकती. दुखद स्थिति है, पर है. क्या किया जा सकता है.
इसमें आशा की किरण एक ही है कि लोगों ने भले तानाशाह चुना हो, इस व्यक्ति को लोकतंत्र में इतना अडिग विश्वास है कि यह अपना विकल्प स्वयं पैदा करेगा. पर वह विकल्प या विपक्ष विकास की नीतियों से संचालित होगा, जाति और धर्म से नही.
“और जानते हो यह भी मोदी के कारण नही होगा, इतिहास के कारण होगा. पूंजीवादी विकास के कारण होगा. तानाशाही पूंजीवाद को रास नही आती. तानाशाही मध्यकालीन मनोवृत्ति है. मोदी को इसकी समझ है दूसरों को नही. वह बार बार इसकी याद दिलाते हैं कि यह लोकतंत्र की महिमा है कि एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन गया. यह भारत में उभरते पूंजीवादी दबाव की भी महिमा है या नहीं?
“जनता ने भले तानाशाह चुना हो वह तानाशाह लोकतान्त्रिक बने रहने कि लिए संघर्ष कर रहा है, दुश्मनो और सगों दोनों से एक साथ लड़ता हुआ.”
11/2/2015

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अगले दिन की पोस्ट के कुछ अंश निम्न प्रकार थेः
त्रिकालदर्शी

“तुम एक दिन कह रहे थे, ‘इतिहासकार त्रिकालदर्शी होता है. ऋषि हो जाता है’. कहा था या नही?”
“कहा तो था.”
“आज भी मानते हो?”
“न मानने का कोई कारण नहीं.”
“तो यह देखो इतिहासकार क्या कहते है?” उसने हिन्दू का सम्पादकीय और समाचार वृत्त मेरे सामने कर दिया. …
अख़बार मेरे सामने पटकते हुए कहा, “देखो ये इतिहासकार क्या कहते है?”

मैंने पूछा ” इनमें इतिहासकार कौन है?”
वह हंसने लगा, “अब ऊँट आया पहाड़ के नीचे. मैं बताऊंगा ये कौन हैं?”
“बड़े लोग हैं, मैं भी जानता हूँ. पर इनमे इतिहासकार कौन है?” मैंने फिर दुहराया.
“तुम सीधे कहो कि ये इतिहासकार नही हैं.”
“यही तो कह रहा हूँ. और यह मैं नहीं कहता, ये बेचारे खुद कहते हैं कि ये धंधेबाज इतिहासकार हैं, प्रोफेशनल हिस्टोरियन. कहते हैं या नहीं?”
“कहते हैं. कहते इसलिए हैं कि ज़िंदगी भर इतिहास ही पढ़ाया है. प्रोफेसर रहे है हिस्ट्री के.”
“तो यह कहो कि इतिहास पढ़ाते रहे हैं. इतिहासकार क्यों कह दिया. जो आदमी ज़िन्दगी भर हिंदी साहित्य पढ़ाता रहा हो उसे साहित्यकार, आलोचक मान लोगे? जो फलसफा पढ़ाता रहा हो उसे फिलॉसफर मान लोगे. हद करते हो यार!”
“फिर तुम्ही बताओ कौन है इतिहासकार?”
“दूर-दूर तह कोई दिखाई नही देता. जो है उसे मैं खुद नहीं देख पाता. नाम लेना शिष्टाचार के विरुद्ध है, पर तुम देखना चाहो तो देख सकते हो.” …

“ये इतिहास के तथ्यों से अवगत हैं परन्तु उनका उपयोग ईमानदारी से नही करते. इसका असर समझ पर पड़ता है. …वकीलों जैसी स्थिति है. सत्य और न्याय की रक्षा नहीं, जीत एकमात्र कसौटी है. लफ़्फ़ाज़ी और आत्मविज्ञापन पर अधिक भरोसा करते हैं.
“सत्ता से जुड़े लोग, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता, सफलता चाहते हैं, सत्य की प्रतिष्ठा नहीं. वे पक्षधर होते हैं, अतः समदर्शी और तत्वदर्शी नहीं हो सकते. … पक्षधर लोग तत्वद्रष्टा नही हो सकते. इतिहासकार जैसा कि तुमने याद रखा ऋषि होता है. दार्शनिक होता है वह. पूरी दुनिया में ऐसे द्रष्टा लम्बे समय बाद ही मिलते हैं. हम केवल यही कर सकते हैं कि निष्पक्ष होकर विचार करें और गलतियों का आभास मिलते ही उन्हें सुधार लें. इतिहासकार कहलाने के लिए इतना भी पर्याप्त है, परन्तु ये ऐसा नहीं करते.”…
“थोड़ा ठहर कर मैंने पूछा, “जानते हो, किसी भी अन्य शाखा का कोई विद्वान अपने को पेशेवर (पेशेवर समाजशास्त्री, पेशेवर अर्थशास्त्री आदि) नहीं कहता. पहले ये भी नही कहते थे. इन्होने अपने को पेशेवर इतिहासकार कब से और क्यों लिखना आरम्भ किया?”
वह नहीं जानता था. मैने बताया “1987 से.” …
“…ऐसे लोगों को तुम इतिहासकार कह सकते हो? ये इतिहास का पेशा करने वाले लोग हैं. इतिहासकार के पास दृष्टि होती है इनके पास कुर्सी रही है.”
“लेकिन एक बात तो मानोगे. अध्यापक बहुत अच्छे हैं”.
“वाक्कुशल हैं. अपनी बातों से मुग्ध कर देते हैं. अपनी गलत बातों को इस तरह रख लेते हैं की सुनने वाले को लगे यही सही है. पर अपने छात्रों को जान बूझ कर गलत इतिहास पढ़ाने वालों को अच्छा अध्यापक कह सकते हो? ये तो इतिहास के चार्ल्स शोभराज हैं. मशहूर वह भी कम नहीं है मगर वह अपनी सही जगह पर है, ये गलत जगह पर.
तुम कहोगे साहित्य और कला के भी चार्ल्स शोभराज होते है.
मैंने कहा, “तुम्हारे मुंह घी शक्कर!”
3.11.15
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परंतु मैंने ये अंश अपनी दूरदर्शिता प्रमाणित करने के लिए नहीं अपितु इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कह रहा हूं कि
1. बुद्धिजीवियों के लगातार राजनीतीकरण के कारण वस्तुपरक चिंतन का इतना अभाव हो चला है कि सोचने का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। सोचना मानने का पर्याय बन गया है। लोग बहुत लंबे सोच विचार के बाद उसी नतीजे पर पहुंच जाते हैं जिसे गलत मान कर सोचना विचारना आरंभ किया था। हाल की अकल्पनीय पराजय, जिसकी घोषणा मैंने महागठबंधन के समय ही कर दी थी, के बाद राजनीतिक दलों का आत्मचिंतन ही नहीं, बुद्धिजीवियों का भी आत्म चिंतन भी इसी का प्रमाण है। बुद्धिहीनता का बुद्धिजीवियों के भीतर ही संस्थाबद्ध हो जाना बौद्धिक आपातकाल है, जिसमें बोलने की आजादी तो इतनी है कि बुद्धिजीवी गालियों के नए मुहावरे अविष्कार करते और प्रयोग में लाते रहते हैं, और मान लेते हैं कि सोच रहे हैं।
2. कि केवल कांग्रेस ही नहीं सभी दल क्षरण और संभावित लोप की दिशा में बढ़ रहे हैं। उनके लोप का कारण उनकी सिद्धांतहीनता, या जिन सिद्धांतों के दावे वे करते रहे हैं उससे इतना भटक जाना है कि अब वापसी का रास्ता बंद हो गया। यदि प्रभावशाली विपक्ष ही समाप्त हो जाए, तो लोकतंत्र लोक निर्वाचित प्रतिनिधियों के बल पर जीवित नहीं रह सकता। तानाशाही अपनी संज्ञा से आए या विपक्ष की विकल्पहीनता के कारण, उसका आना अनिवार्य है।
3. कि राष्ट्रवाद स्वयं में कोई सिद्धांत नहीं है, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे राष्ट्रवाद मानता रहा है वह हिंदू राष्ट्रवाद रहा है। हिंदू की जितनी भी उदार व्याख्या की जाए, जातीयता राष्ट्रीयता नहीं हो सकती। यह उसी व्याधि का विस्तार है जिसमें सबसे पहले सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को अलग कौम या राष्ट्र कहा था। राष्ट्रीयता केवल देशज हो सकती है उसी में सर्वसमावेशी भाव संभव है और उस संकीर्णता से भी मुक्ति है जो यूरोपीय राष्ट्रवाद में पाई जाती है और हिंदू राष्ट्रवाद में अपना ली गई थी।
4. कि मोदी की सबसे बड़ी विशेषता यह है उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को भारतीयता से, पूजा को स्वच्छता से, मंदिरवादियों को आर्थिक नीतिकारों से, जाति, क्षेत्र, मत मतांतरों को सर्वसमावेशी राष्ट्रीयता से जोड़कर, पहचान के संकीर्ण दायरो को तोड़ कर भारत के नागरिक की पहचान दी, जो पुरानी सोच के लोगों को इतना अविश्वसनीय लगता है कि वे आज भी इसे एक छलावा मानते हैं जबकि इसे व्यावहारिक रूप दिया जा चुका है, और जो बचा है उसकी प्रतिज्ञा नरेंद्र मोदी के नए ‘सबका विश्वास’ प्राप्त करने के संकल्प में है।
5. अभी कल तक लोग सिंगापुर मॉडल की बात करते थे, फिर गुजरात माडल की बात करने लगे। आने वाले कल को हमारे आसपास के सभी देश और दूर-दराज के भी कुछ देश मोदी द्वारा कायाकल्प किए जाने वाले भारत के मॉडल की बात करेंगे।

परंतु मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अंग्रेजी को एक जरूरी विदेशी भाषा के रूप में प्रश्रय देना और व्यवहार की भाषा के रूप में बाहर करके भारतीय भाषाओं को शिक्षा से लेकर प्रशासन तक की भाषा बनाना, जिसके साथ जनवाद का एक नया अध्याय आरंभ हो सकता है। मात्र इस परिवर्तन सेः
मूक होइ बाचाल, पंगु चढ़ै गिरिवर गहन।

यही वह मुद्दा है जिसमें मोदी की विफलता के साथ आसन्न भविष्य में भाजपा का विकल्प तैयार किया और भारतीय जन को लामबंद किया जा सकता है।