आत्मचिंतन
मैं राहुल गांधी के इस निर्णय को सही मानता हूँ कि उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं रहना चाहिए। कारण पार्टी की हार नहीं है, हार और जीत होती रहती है। पिछले आंकड़े को कुछ तो सुधारा है। कारण यह है कि अपनी समझ से उन्होंने एक पर एक ब्रह्मास्त्र दागते हुए शिष्टता की मर्यादाएं तोड़ दीं। भारतीय नागरिकों ने उनके हथियारों को मौन भाव से उन्हीं की ओर फेर दिया। भाषा की मर्यादा लांघने के बाद व्यक्ति समाज की नजर में गिर जाता है। अब उसका सामना किस मुंह से करेंगे।
हार-जीत के बाद केवल हारने वाले को ही नहीं, जीतने वाले को भी अपने अपने ढंग से आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। सामान्यतः जीतने वाले आत्मनिरीक्षण नहीं करते, क्योंकि सफल होने के बाद वे मान लेते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया या नहीं किया, वह अचूक था। कहीं कोई चूक हुई ही नहीं और इसका प्रणाम है उनकी विजय।
इस सामान्य नियम के विपरीत कम से कम मोदी ने आत्मचिंतन किया कि जब उन्होने ‘सबका-साथ-सबका-विकास’ का संकल्प लिया था, और इसके अनुसार काम किया था, तो वे कौन सी कमियां थी जिनके कारण कुछ लोगों का साथ नहीं मिला। उसके प्रयत्न के बाद भी कुछ लोग जातिवाद से और कुछ दूसरे संप्रदायवाद से मुक्त क्यों नहीं हो पाए? इतनी भारी विजय के बाद होश हवास बनाए रखना राजनीतिक परिपक्वता का द्योतक है। मोदी ने अपने नए संकल्प में ‘सबका-साथ-सबका-विकास’ के साथ ‘सबका-विश्वास’ जोड़ दिया। उनके कहने और करने में एकरूपता देख कर मात्र इस घोषणा ने ही मुसलमानों के अविश्वास में सेंध लगा दी है।
राजनीतिक दलों में केवल कांग्रेस ने आत्म निरीक्षण किया और पाया की असाधारण पराजय के बाद भी कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार का ही कोई व्यक्ति कर सकता है, इसलिए राहुल की हार्दिक अनिच्छा के बावजूद भी उसका लगातार यह दोहराना कि उसके पास राहुल गांधी से अधिक योग्य कोई नहीं है, गलत नहीं है। पार्टी भी इस बात पर उतनी ही मुस्तैदी से डटी हुई है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर रहना ही होगा । कांग्रेस ने इतने लंबे समय से जिस संस्कृति को बढ़ावा दिया है उसके कारण राजवंश के सभी दोष उसमें घर कर गए है। इस तरह पराजय ने पूरे संगठन के आत्मबल को नष्ट कर दिया है।
कांग्रेस का बचा रहना आज की परिस्थितियों में जितना जरूरी हो गया है, उतना पहले कभी नहीं था, क्योंकि आज से बीस साल पहले माकपा के सीमांत क्षेत्रों तक सिमटे रहने के बाद भी यह खुशखयाली पाली जा सकती थी कि वह एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका का निर्वाह कर सकती है। उसके पास एक विजन था, जिसको लेकर उसके केंद्र में आने के सपने पाले जा सकते थे। आज उसकी दशा क्षेत्रीय दलों से भी बुरी है जिनके पास न विजन है, न दर्शन, न चरित्रबल, न मनोबल। लोकतंत्र के हित में है कि भले लंबे समय तक सत्ता किसी एक दल के पास रहे – लंबी योजनाओं के पूरा करने के लिए यह जरूरी भी है – परंतु एक प्रभावशाली विपक्ष लगातार उपस्थित रहना चाहिए जो अंकुश का काम करता है, और सत्ता को मतवाले हाथी की भूमिका में जाने से रोकता है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने विपक्ष को पनपने ही नहीं दिया, इसलिए बंगाल में उसकी हार नहीं हुई, वह एक साथ ओझल हो गई। कांग्रेस के साथ भी यह दोष भले रहा हो परंतु उसने पूरे इतिहास में गैर लोकतांत्रिक हथकंडों का प्रयोग करके भिन्न विचारधारा के लोगों को जनप्रतिनिधि बनने में यदा कदा ही रुकावट डाली । धनबल का प्रयोग करने से बची रहती तो कांग्रेस अनेक दूसरी व्याधियों से ही बची रह सकी होती।
मुझे शिकायत इस बात की है कांग्रेस ने चिंतन किया ही नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष में चिंतन और आत्म चिंतन की योग्यता नहीं। उन्होंने केवल दोषारोपण किया, जबकि वह दोष दूसरों में उनके ही परिवार के कारण पैदा हुआ, और जैसा कि मुहावरा है सूप तो हंस सकता है, छलनी नहीं हंस सकती, जिसमें हजारों छेद हैं।
आत्ममंथन के मुद्दे निम्न प्रकार हो सकते थेः
1. क्या पिछले 5 वर्षों में उसने विपक्ष में रहते हुए एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वाह किया? संसदीय कार्य में बाधा डालकर शोर मचाते हुए बिना सोचे समझे हर मुद्दे पर हंगामा करके इतने शक्तिशाली बहुमत वाली सरकार को विफल करने की नीति का जनता में क्या संदेश गया होगा और उसका निर्वाचन पर क्या असर पड़ा हो सकता है?
2. हिंदू कार्ड खेल कर, अपने को सच्चा ब्राह्मण सिद्ध करते हुए यदि कोई ईसाई यह सोचे कि उसे इसका लाभ मिलेगा, तो इतिहास पर ध्यान देना चाहिए। बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने का मामला हो या हिंदू बहुमत को अपनी ओर मोड़ने के लिए अपनाए गए दूसरे हथकंडे रहे हो उनका लाभ उस संगठन को मिला है जो हिंदू पहचान के साथ अपनी राजनीति करता रहा।
3, यह दल लंबे अरसे तक मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा करके उनको अपने वोट बैंक के रूप में काम में लाता रहा है। जब भी कांग्रेस ने हिंदू कार्ड खेला, एक ओर तो उसने अपनी विश्वसनीयता खोई, साथ ही उस वोटबैंक को किसी न किसी की ओर भागने को मजबूर किया। राजनीति में निस्पृहता, विश्वसनीयता, और सिद्धांतप्रियता ऐसी निधियां हैं जिनको खोने वाला लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता। इसे कैसे और क्या कीमत देकर दुबारा पाया जा सकता है. यह विचारणीय था।
4, पिछले 5 वर्षों में अनेक ऐसी अराजक घटनाएं पर्दे के पीछे रहकर कराई गई जिनमें सीधे किसी का नाम लिया नहीं जा सकता, परंतु यह संदेह किया जा सकता कि प्रशासन की विफलता प्रमाणित करने के लिए उनको सुनियोजित ढंग से कराया जा रहा था, जिससे राष्ट्रीय जन धन की भारी क्षति हुई, और मतदाताओं का बहुत छोटा सा हिस्सा मानता था इसमें उस गुप्त मंत्रणा का प्रयोग किया जा रहा है जिसके प्रशिक्षण के लिए राहुल को अज्ञातवास करना पड़ता था। विचारणीय था कि क्या आगे भी यह नीति जारी रहनी चाहिए?
6. कांग्रेस के पास काडर कभी न था, सत्ता से निकटता कायम करके कुछ न कुछ हासिल करने वाले समर्थकों की भीड़ अवश्य थी। उसके सत्ता से हटते ही उसका उत्साह ठंढा पड़ जाता है। कांग्रेस शासन के केंद्र से चले रुपये के पचासी पैसे को यही हजम करता था। समर्थकों की भीड़ जुटाने के लिए उस तक कुछ न कुछ पहुंचाने का कोई नया तरीका निकाला जाना चाहिए। अब तो सीधे बैंक खाते में पैसा भेजने का रास्ता निकल आने के बाद सत्ता थमा दी जाए ताे भी उसे कुछ न मिलेगा। वही कांग्रेस का जनाधार है। जनाधार तैयार करने का क्या तरीका हो सकता है?
7.अंतिम समस्या मुद्दों की है। अब कोई मुद्दा ऐसा बचा ही नही जिसे वह अपना कह सके। राजीव गांधी ने सैम पित्रोदा की मदद से आधुनिकीकरण का एक मुद्दा अपने लिए पैदा किया था। कांग्रेस के सभी मुद्दों पर जिन पर वह काम भी नहीं कर पाई, भाजपा बढ़-चढ़कर नए विजन के साथ काम कर रही है। ऐसी ही स्थिति में भारतीय भाषाओं के व्यवहार को मुद्दा बनाया जा सकता था परंतु सोनिया गांधी की रुचि भारत से अधिक अपने मजहब को आगे बढ़ाने में है जिसके साथ अंग्रेजी का गहरा संबंध है, इसलिए वह मुद्दा भी उसके काम नहीं आ सकता। नया मुद्दा क्या हो सकता है इस पर उसके सिद्धांतकारों के विचार करना चाहिए था ।
8. हार की जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र देने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह कुछ ऐसा लगता है जैस ईंट दर ईंट टूट कर बिखर रही हो। सबसे पहली समस्या इसको रोकने की है, इसके तरीके पर विचार किया जाना चाहिए।
वंशवाद भले व्याधि हो । आज के भारत में कांग्रेस की देश को जरूरत है। पहली जरूरत जो भी संख्या बल है उसको लेकर बहुत जिम्मेदार विरोधी पक्ष के रूप में अपनी भूमिका तय करने की है। लड़कपन के सारे प्रयोग हो गए। परिपक्वता का दर्शन होना चाहिए।