Post – 2019-11-30

हँसो कुछ इस तरह, दहशत सी छा जाए जमाने में।
शुरू हो गुफ्तगू, क्या फर्क हँसने, बम बनाने में

Post – 2019-11-30

यह सुखद सूचना है कि बीएचयू के वीसी और डॉ. खान के लिए जो सुझाव मैंने दिया था, वे भी उसी निष्कर्ष पर पहुँचे।

Post – 2019-11-28

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (30)
संस्कृत भाषा का प्रसार
अर्थात् छिपाते छिपाते बयाँ कर गए

Sir William Jones -1746-1794, A Commemoration Volume, Oxford University Press,1998 के संपादकों में से एक Alexander Murray ग्रंथ के आमुख में खेद प्रकट करते हुए लिखते हैं, “history is unkind to polymaths” और जोंस की प्रतिभा और कृतित्व का हवाला देते हुए शिकायत करते हैं कि उनको भुला दिया गया। जिसकी हर शतवार्षिकी पर एक अभिनन्दन ग्रंथ निकलता हो, जिसे भाषाविज्ञान का जनक माना जाता हो, उसे भुला देने की शिकायत नहीं की जा सकती।

यदि आशय उनके सही मूल्यांकन से हो तो कहना होगा कि असमय मृत्यु और भुलाया जाना भी कभी कभी सौभाग्य होता है। यदि उनका सही मूल्यांकन कोई भारतीय खुले दिमाग से करता और गॉडफादर के रूप में चित्रित करता तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता था। वह इंग्लैंड वापस गए होते तो उनकी वह दुर्गति तो न होती जो क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स की हुई, परंतु उनको भी अपमानित अवश्य होना पड़ता। इसका आभास जेम्स मिल के इतिहास से होता है। जबान उसी तरह चलाता था जैसे भाप चमड़े पर राँपी। उसने जोंस को सीधे बेवकूफ तो नहीं कहा, पर उनकी आलोचना करते हुए जो कुछ सिद्ध किया, उसके लिए सटीक शब्द यही था।

संस्कृत का मूल क्षेत्र ईरान सिद्ध करने के उत्साह में उन्होंने विश्व की समस्त भाषाओं का उदय बाबा आदम की भाषा से दिखाने का जो तर्क दिया था उसे कोई समझदार व्यक्ति स्वीकार न कर सकता था। इसलिए मूल भूमि के अन्यत्र होने का तर्क स्वतः खंडित हो जाता था। जो कमी रह जाती है वह भी उन्होंने स्वयं पूरी कर दी, सो बात घूम-फिर कर वहीं लौट आती थी।

जो कचोट अभी तक मात्र एक संभावना के रूप में थी उसका जोंस ने सचाई सिद्ध कर दिया था। उन्होंने हिंदू सभ्यता को दुनिया की सर्वोपरि सभ्यता सिद्ध कर दी, क्योंकि उनको पूरे सभ्य जगत पर संस्कृत भाषा की छाप दिखाई दे रही थी। गोरे काले बंगालियों की ही संतान हैं इसे विलियम जोन्स ने अपनी असावधानी से सिद्ध कर दिया गया था। वह जिस बात को नकारना चाहते थे उसी के पक्ष में ऐसे प्रमाण देते जा रहे थे जिनसे सिद्ध होता था कि भारत अनेक दृष्टियों से विश्व में अग्रणी था। मिल संभवतः इसी से खीझ कर यह सिद्ध करने की जिद पर आ गए थे कि ‘सारा ज्ञान पश्चिम में पैदा हुआ और पूर्व की ओर फैला । जो देश पश्चिम के जितना ही निकट है, वह अपने पूर्व-वर्ती से उतना ही अधिक सभ्य है और अपने पश्चवर्ती से उसी अनुपात में पिछड़ा।’

हमने अपने 15 नवंबर की पोस्ट – महत्तर भारत – में इसका हवाला दिया था, परंतु उद्धरण लंबा था, नोट के रूप में था, इसलिए अधिक संभावना इस बात की है कि किसी ने उस पर ध्यान न दिया हो। उसे सार रूप में समझाना जरूरी है।

विलियम जोन्स की समस्या भाषा की थी ही नहीं, समस्या संस्कृत बोलने वालों के रूप-रंग और देश की थी। उन्हें ईरान से निर्वासित करके वहाँ से भारत में पहुंचाने से उनका उद्देश्य पूरा हो जाता था। अतः विविध विविध देशों की पड़ताल करते हुए उनके ज्ञान और विश्वास पर भी विचार करते रहे थे । यही उनका वाटरलू सिद्ध हुआ । इस्लाम से पहले के अरब के धर्म और विश्वास पर विचार करते हुए उन्होंने कहा था उसकी मातृदेवियों की पूजा में भारत से समानता तो है, पर दोनों में यह पूजा उसी स्रोत से आई हो सकती है, जिससे भाषाओं का प्रसार और विस्तार हुआ था। इसके पीछे यह उम्मीद काम कर रही लगती है कि यदि अरब मे मातृदेवियां हैं पड़ोस के ईरान में अवश्य मिलेंगी ही। वहाँ वे नहीं मिली। अपने आठवें वार्षिक अभिभाषण में एशिया के अँतरों-कोनों को जाँचना शुरू किया तो दो विचित्र बातें देखने में आई:-
एक तो इस बात के प्रमाण मिले कि इथोपिया में भारतीय भाषा बोलने वाले लोगों का प्रभुत्व था। यहाँ भारत और भारत के सिवा कुछ नहीं रह जाता। क्योंकि आज के इथोपिया की भाषा यद्यपि सामी है पर लिपि नागरी सदृश है:That the written Abyssinian language, which we call Etheopick, is a dialect of old Chaldean…. We know at the same time, that it is written, like all the Indian characters, from the left hand to the right, and that the vowels are annexed, as in Devnagari, to the consonants, with which they form a syllabic system extremely clear and convenient, but disposed in a less artificial order than the system of letters now exhibited in the Sanscrit grammar… I have no doubt,…that Nagari and Ethiopean letters had at first a similar form. P.4
पता चलता है कि वे नौचालन में अग्रणी थे, यूरोप तक भारतीय माल पहुंचाने में समर्थ थे। एक दूसरे रास्ते से से भी भारत का माल यूरोप पहुंचता था। इसके कारण यूनानियों में यह विश्वास घर कर गया था कि भारत दो है, एक दक्षिण में, दूसरा दूर कहीं पूर्व में। According to Ephorus quoted by Strabo, they called all the southern nations in the world Ethiopeans, thus using the Indian and Ethiop as convertible words.

उन्होंने एक दंतकथा के हवाले से, जो कुछ कहा था उसे उनके ही शब्दों में रखना जरूरी है: M.D’ Herbelot mentions a tradition (which he treats, indeed, as a fable) that a colony of those Edumeans had migrated from the northern shores of the Erythrean sea, and sailed across the Mediterranean to Europe … and both Greeks and Romans were the progeny of those emigrants.

आप स्वयं तय कर सकते हैं कि 18वीं शताब्दी के रंगभेद से पीड़ित यूरोप के लिए यह कितनी आहत करने वाली बात थी। निगर उनकी सबसे तल्ख गाली थी।

भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय पट्टी (इदूमिया) से जहाँ हिन्दू बसे थे, लोगों के यूरोप में पहुँचने को रॉयल एशियाटिक सोसायटी के अध्यक्ष रह चुके न्यूटन भी मानते थे, जो कोई बात पूरी जाँच पड़ताल के बाद ही कहते थे। इन्हीं लोगों के माध्यम से रोम और ग्रीस में ज्ञान विज्ञान का प्रवेश हुआ: Newton, who advanced nothing in science without demonstration, and nothing in history without such evidence as he thought conclusive, asserts from authorities, which he had carefully examined, that the Idumean voyagers “carried with them both arts and sciences, among which their astronomy, navigations, and letters ….But the invention and propagation of letters and astronomy are by all so justly ascribed to the Indian family, that, if Strabo and Herodotus were not grossly deceived, the adventurous Idumeans, who first gave names to the stars, had hazarded long voyages in ships of their own construction, could be no other than a branch of the Hindu race….

इसका दूसरा पक्ष यह है कि फ्रीजियन जिनका मूल निवास अनातोलिया के पश्चिमी मध्य भाग में था और जिसकी ग्रीक से निकटता है, उसके देवशास्त्र से जोंस को यह पता चला कि मातृदेवी के उपासक थे, उसकी प्रतिमा के सिर पर ऊपर उठा हुआ मुकुट सजाया जाता था जैसे बंगाल में किया जाता है। उसे भी आद्या भगवती या प्रकृति का प्रतिरूप माना जाता शा और उसके भी विविध रूप थे। उसकी साधना दुर्गापूजा के मौसम मे ही होता था, वे भी उसे मां कहते थे, उसके हाथ में एक डमरू होता थी जिसे वे डिंडिम कहते थे जो संस्कृत का शब्द है, भारत में भी इसी नाम से पुकारा जाता है। मातृदेवी को भारत में सिंह की सवारी करते दिखाया जाता है, वहाँ सिंह के रथ पर सवार दिखाया जाता था। यूनान की देवी दिआना भी इसी का प्रतिरूप थी:
The Greeks and Phrygians, who, though differing somewhat in manners, and perhaps in dialect, had an apparent affinity as well as in language: the Dorian, Ionian, and the Aeolian families having emigrated from Europe, to which it is universally agreed that they first passed from … I shall only observe, on the authority of the Greeks, that the grand object of mysterious worship in that Country was the Mother of the Gods, or Nature personified, as we her among the Indians, in a thousand names. She was called in Phrygian dialect MA, and represented in a car driven by lions, with a drum in her hand, and a towered coronet on her head; her mysteries are solemnised in the autumnal equinox, where She is named, in one of her characters, MA, is adored in some of her temples, in all of them, as the great Mother, is figured sitting on a lion, and appears in some of her temples with a diadem on mitre of turrets: a drum is called dindima both in Sanskrit and Phrygian. The Diana of Ephesus was manifestly the same Goddess in the character of productive Nature;

अब ध्यान दें तो पाएंगे कि जहां उन्हें ईरान में कोई भी ऐसा निर्णायक प्रमाण नहीं मिला था जिस पर भरोसा कर सकें वहां उनकी कोशिशों के बाद भी भाषा और संस्कृति का मूल स्थान लौटकर पुनः भारत में आ चुका है। झमेला शुरू करने वाला स्वयं उसमें फंस गया है और सारे प्रमाण इस बात के ही रहे हैं की भाषा और संस्कृति का मूल केंद्र भारत है। हैरानी इस बात पर है इसके बाद भी 200 साल तक उस विवाद को जारी रखा गया और, जैसी विफलता जोंस को मिली थी वैसी ही विफलता इन भाषा विज्ञानियों को भी मिलती रही और जहां से पुरातत्व के अकाट्य साक्ष्य मिलने लगे, जालसाजी, धोखाधड़ी, प्रमाणों को छिपाना, झूठे प्रमाण पेश करना जारी हो गया और इसमें पूरे पश्चिमी जगत का सहयोग था। गांधी ने औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए, यह निकाला था यदि हम उनका माल खरीदना बंद कर दें, भले हमें कुछ कम भड़कीले, मामूली और सीमित उपयोग के सामानों से काम चलाना पड़े, अंग्रेजी दासता से मुक्ति मिल जाएगी। इसे पूरे मन से लागू नहीं किया गया पर जिस सीमा तक लागू किया गया डगमगाहट शुरू हो गई थी। इसी तरह यदि भारतीय समस्याओं पर – वे इतिहास की हों या वर्तमान की, भाषा की हों या राजनीति की – मी लेखकों के विचारों जानें तो परंतु मानने से इनकार करते हैं, स्वयं अपने समाधान प्रस्तुत करें तो भारत को मानसिक पराधीनता से मुक्ति मिल जाएगी। इससे छोटा रास्ता कोई दूसरा नहीं है अपने पांव पर खड़ा होने के लिए।

Post – 2019-11-25

सर की उपाधि का रीति-विधान. मुकुट के प्रति पूर्ण समर्पण। गूगल से साभार।
रवीन्द्रनाथ ने जलियाँवाला कांड के बाद इसे ही लौटाया था, पर स्वतंत्रता आंदोलन से उसके बाद भी किनारा कसते रहे। जो लोग कहते हैं जन गण उन्होंने सम्राट की वंदना में नहीं लिखा था, वे इसे भूल जाते हैं।

Post – 2019-11-24

विषयांतर होने के कारण अपनी लेखमाला से कुछ भटक गया हूँ। आज भी उस पर लिखने की इच्छा होते हुए लिख न पाया। काम न किया तो हाथ-पाँव ही हिला लेने के तर्क से कुछ फैशनेबल मूर्खताओं से हमें सावधान रहना चाहिए :
1. उदारता
यह आत्मसमर्पण और आत्मनिषेध का पर्याय नहीं है। यह पारस्परिकता पर निर्भर करती है। किसी को खुश करने के लिए आप झुकते चले जाएँ या दूसरे को झुकाते चले जाएँ, यह आत्मपीड़न या परपीड़न की व्याधि हो सकती है, उदारता नहीं।
2. वैज्ञानिकता
यह प्राकृत नियमों के निर्मम निर्वाह के बिना संभव नहीं। इसमें किसी के प्रति सदय या निर्दय नहीं हुआ जा सकता। निर्मम सत्य को कहने के साहस के बिना वैज्ञानिकता का निर्वाह नहीं हो सकता।
3. हिन्दू
यूरोप में ज्ञान, विज्ञान, दर्शन के क्षेत्र में सराहनीय योगदान के बाद भी यहूदी एक ऐसा घृणित शब्द बना दिया गया था कि यहूदी कह कर किसी का अपमान किया जा सकता था। इस डर से ही मार्क्स के पिता को अपना धर्म बदल कर ईसाई बनना पड़ा था। एकांगी कम्युनिस्ट धर्मनिरपेक्षता के प्रभाव से हिंदू को वैसा ही घृणित शब्द -हेट वर्ड- बना दिया गया। इससे बचा जाना चाहिए। पूजा से भी, घृणा से भी।

Post – 2019-11-24

निराकरण

मेरी कल की पोस्ट पर इतनी प्रतिक्रियाएँ आईं जिसकी आशा न थी। सभी पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं। मेरे विद्वान मित्र विनोद शाही ने मुझसे कुछ प्रश्न किए थे। मैंने तात्कालिक प्रतिक्रिया में उनका विस्तार से उत्तर देने के लिए कुछ समय माँगा था। ये या इनसे मिलते जुलते प्रश्न कुछ दूसरों के मन में भी उठे होंगे अतः इनका निराकरण जरूरी है।

एक – कर्मकांड साधन है या साध्य?

कर्मकांड और रीति-विधान युगों पुराने इतिहास का प्रतीकात्मक मूर्तन है जो जातीय विश्वास का हिस्सा बन जाने पर कई तरह के चामत्कारिक परिणामों का साधन मान लिया जाता है। जैसे यज्ञ जिसका शाब्दिक अर्थ है उत्पादन। आरंभ में यह अन्न उत्पादन या कृषि कर्म था। जोताई के साधनों के विकास से पहले झाड़-झंखाड़ जला कर जमीन तैयार की जाती। आगे के कई चरणों के विकास इसमें जुड़ते गए। पहले के खेतिहर खेती की जमीन पर मालिकाना हक जमाकर खेती दूसरों से कराने तगे और स्वयं उसकी नकल करने लगे- शतपथ ब्रा. में कुछ विधानों का औचित्य समझाया गया है कि देवों ने खेती के लिए पहले क्या क्या किया। फिर यज्ञ के लंबे आयोजन से अल्प दबाव क्षेत्र पैदा करके वर्षा कराने का भाव जुड़ा।

हर बार इच्छित परिणाम नहीं आते, अब बहाने तलाशे और कमी पूरी करने को कुछ और तत्व जुड़ने लगे। वर्षा का देवता इसी क्रम में पैदा ह्आ और उसे प्रसन्न, करने के लिए खानपान का अर्पण, स्तुति आरंभ हुई । नई विफलता, नया दोष, उसे दूर करने के दावे के साथ नई सावधानी के साथ यह इतना जटिल हो गया कि इन बारीकियों की पूरी जानकारी को यज्ञविज्ञान कहा जाने लगा। इसकी महिमा इतनी कि यज्ञ या इष्टि से संतान पैदा कराई जा सकती, भूविस्तार कराया जा सकता, किसी का नाश किया जा सकता, गरज कि इसी विज्ञान से सभी समस्याओं का हल। पाखंड का इतना विस्तार और इतने रूप कि यज्ञविज्ञान की शाखाएँ और उनके विशेषज्ञ होने लगे। किसी भी वस्तु या विधान में कोई कमी हुई, असावधानी हुई तो यजमान का ही सत्यानाश। इसे आप तय करें कि यह सिद्धि है या साधन या किसकी सिद्धि और किसका साधन।

दो – निष्ठावान व्यक्ति अच्छा आचार्य होने और कहलाने का अधिकारी कैसे होता है ? क्या निष्ठा से युक्त होना और आचार्य होना एक ही बात है?

यास्काचार्य, सायणाचिर्य, शंकराचार्य, धर्माचार्य से समझें। निष्ठा अनिवार्य नहीं, न ही बाधक है। विषय पर अधिकार मात्र जरूरी है।

३ – यह नियुक्ति धर्मशास्त्र में हुई है या धर्मविज्ञान में?

विभाग का नाम संस्कृत विभाग नहीं है। धर्मशास्त्र और धर्मविज्ञान में अंतर कितना है इसे समझने में प्रश्न एक का उत्तर देखें। संस्कृत का ज्ञान इसके लिए पर्याप्त नहीं। संस्कृत ज्ञान उच्चारण की शुद्धता वह भी सामपाठी, उच्चावच के साथ। वृत्र ने यज्ञ कराया इन्द्र के नाश के लिए, स्वर में एक चूक हुई और उसका सत्यानाश हो गया।

विधि- विधान और मंत्र की प्रभावकारिता में विश्वास जरूरी है। । यह मूर्खतापूर्ण लग सकता है। इसका एक औपचारिक पक्ष है जो विशेष आयोजनों से जुड़ कर उन्हें गरिमा प्रदान करता है। इसको हटाने पर वह यांत्रिक हो जाता है। हमारे आधुनिक जीवन में ऐसे प्रतीकात्मक आयोजन सर्वत्र मिलते हैं।

4 . क्या किसी भी विश्वविद्यालय को यह अधिकार है कि वह कर्मकांड का ऐसा अध्ययन कराए जिसका आधार निष्ठा हो’ स्वाध्याय; विज्ञान और विवेक नहीं? तो क्या आप विश्वविद्यालय को ऐसे विषय में पठन-पाठन बंद करने के लिए कहना पसंद करेंगे।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय है। जैसे अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि.। इनका सेकुलर पक्ष यह कि इनमें किसी भी धर्म या जाति का छात्र शिक्षा पा सकता है। इनमें धर्मशास्त्र का विभाग होना गलत नहीं है। यदि समाज में कर्मकांड के आयोजन होते हैं तो अच्छा है कि इसका विधिवत ज्ञान कराने का स्तरीय प्रबंध हो। संस्कृत की परंपरागत पाठशालाओं और मदरसों से अच्छा है कुछ विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक धर्मशास्त्र के भी विभाग हों। किसी अन्य धर्म की न तो जड़ें इतनी गहरी और उलझी हुई हैे न इतिहास का प्रतीकविधान जितना हिंदू का। इनका अपना लालित्य भी है। हमारे सबसे बड़े त्यौहार होली, सतुआन, खिचड़ी, नवान्न, और नागपंचमी हमारे खाद्यान्न के विकास के इतिहास के स्मारक हैं।

धर्मशास्त्र का विभाग ही नहीं इसमें शोधकार्य को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए। वह अनुसंधान ही इससे जुडे अंधविश्वास की दवा है। बाहरी छेड़छाड़ काउंटर प्रोडक्टिव है।

मार्क्सवाद हमारे देश में दर्शन के रूप में नहीं व्याधि के रूप में आया अंध-हिंदुत्व विरोध बन कर लोकप्रिय बनने के प्रयत्न में रहा और मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ खड़ा हो कर इसने हिंदू सांप्रदायिकता को उभारा ।

धर्मशास्त्र के विभाग दुनिया के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी हैे – ऐड्र्यूज वि-वी. मिशिगन, ता स्एरा वि.वि. कैलिफोर्निया, नोत्रे देम (Notre Dame’s Department of Theology offers undergraduate programs as well as graduate degrees including a Ph.D., master of divinity, master of theological.), नटिंघम, अलीगढ़ आदि विश्वविद्यालयों में । भारत में ईसाइयत की शिक्षा देने वाली सेमिनरीज Academy of Integrated Christian Studies, Aizawl Theological College. Andhra, Bethel Bible College, Guntur., Bishop’s College, Calcutta.आदि। पता लगाइए इनमें किसी में उस धर्म की शिक्षा देने वाला किसी इतर धर्म का व्यक्ति है या नहीं। सेमनरी शीर्षक गूगल पर देखें, और दुनिया भर में इनकी हजारों संस्थाओं की तालिकाएँ। यदि धर्म और कर्मकांड हैं, तो इनके समुचित ज्ञान की व्यवस्था होना जरूरी है। गँवारों के हाथ में इसे नहीं सौंपा जा सकता।

५ – आप ने स्वयं को नास्तिक और वैज्ञानिक दृष्टि वाला व्यक्ति बताया है। तो इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि आप के मुताबिक कर्मकांड, जो किन्ही कारणों से हमारी समाज सांस्कृतिक जरूरत बन गए हैं, अवैज्ञानिक एवं अविवेकपूर्ण वस्तु है? आप ऐसा कह कर क्या दो नावों में एक साथ पैर रखने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?

मैं कभी किसी दूसरे को अपने जैसा नहीं बनाना चाहता। जो मुझसे अलग ढंग से सोचते और देखते हैे उनका उपहास करके उन्हे मिटाना नहीं चाहता। यदि वे गलत हैं तो स्वतः इसके परिणाम भोगेंगे। जापान के सूमो पहलवानों का जापानी उपहास नहीं करते। उनके साथ सम्मान से पेश आते हैं। मै ऐसा नास्तिक कभी न बनना चाहूँगा जो आस्तिक लोगों को दुनिया से मिटाने की ठान ले। अपनी ओर से लेखों. चर्चाओं में उनकी सीमाओं का जिक्र जरूरत पड़ने पर करूंगा। आशा करूँगा कि क्रमिक शिक्षा से लोगों की समझ में यह आ जाय कि धर्म पुराने जमाने की जरूरत थी जिसमें अपराध रोकने के लिए पुलिस बल न था। ईश्वर का डर पुलिस का काम करने लगा और बर्बर समाजों का ईश्वर तो अपनी भूमिका भूलकर स्वयं हथियारबंद लुटेरा और उपद्रवी बन गया।

Post – 2019-11-23

22 नवंबर को मैंने बहुत खिन्न होकर डॉक्टर खान के संस्कृत विभाग में नियुक्ति का विरोध करने वाले छात्रों के प्रति रोष प्रकट करते हुए टिप्पणी लिखी थी, और उस विरोध को संस्कृत भाषा का अपमान माना था। भाषा की पवित्रता की रक्षा करना उसके प्रसार में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करना उस भाषा की हत्या करने के समान है। ब्राह्मणों ने या अपराध प्राचीन काल में किया और आज यह बंद होना चाहिए। कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसे कोई न पढ़ सके। इसका अपवाद धर्म ग्रंथ भी नहीं है, ऐसा मैं मानता हूं और कोई भी सुलझा व्यक्ति मानता है। यदि नहीं मानता तो वह रुग्ण है।
परंतु उसके बाद मुझे पता चला कि यह नियुक्ति धर्मशास्त्र और कर्मकांड विभाग में की गई है तो मैंने उसे वापस ले लिया। जितनी खिन्नता मुझे पहले संस्कृत विभाग के आचार्य के रूप में किसी अन्य धर्म के व्यक्ति की नियुक्ति का विरोध करने के सवाल पर हुई थी, उससे अधिक खिन्नता इस बात से है कि धर्म शास्त्र और कर्मकांड के विभाग में किसी ऐसे व्यक्ति की जाए जिसकी उसमें आस्था न हो, भले वह उसी धर्म का हो। इसकी मैं भर्त्सना करता हूं और उन लोगों की भर्त्सना करता हूं इस पर को समझते हुए भी, ऐसी नियुक्ति की हिमायत कर रहे हैं। इसमें केंद्र का शिक्षा विभाग भी है जिसने इस पर को समझे बिना यह निर्णय किया है कि यह नियुक्ति ठीक है। सरकार को धर्मशास्त्र विभाग को बंद करने का अधिकार है, उसमें दखल देने का नहीं।

किसी भी व्यक्ति को धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की छूट हो सकती है परंतु उसमें ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी उस धर्म में पूरी आस्था और विश्वास के बिना किसी व्यक्ति को उसका अध्यापक नहीं नियुक्त किया जा सकता। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के अनुसार भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। किसी के धर्म के मामले में सरकार को तब तक हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है जब तक की उसका और कोई भी विधान या आचार आपराधिक प्रकृति का न हो, जैसे सती, बाल विवाह, तीन तलाक।

धर्मशास्त्र ज्ञान का क्षेत्र नहीं है, विश्वास और आचार का क्षेत्र है। मैं स्वयं वेद का अध्येता हूँ, समय और सुविधा हो तो कर्मकांड का भी अध्ययन करना चाहूँगा। परंतु इसमें निष्णात होने के बाद भी मुझे शास्त्र पढ़ाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि मैं नास्तिक हूं। किसी भी धर्म की पाबंदियों को पाखंड मानता हूँ। यदि मैं जन्मना ब्राह्मण होऊँ तो भी नास्तिक होते हुए मुझे धर्मशास्त्र की बारीकियों को जानने का अधिकार है, परंतु जब तक मैं धर्म ग्रंथ में लिखें सभी विचारों को तर्कातीत नहीं मानता उनमें विश्वास नहीं करता, उनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रखता हूं, तब तक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए भी अध्यापक होने का अधिकार मुझे नहीं है।

पौरेपित्य तर्क और जिज्ञासा का क्षेत्र नहीं है। यह ज्ञान से अधिक एक तरह का प्रशिक्षण है। मंत्रों का अर्थ जानना जरूरी नहीं, परंतु उनका उच्चारण बिल्कुल शुद्ध होना, और पाठ साम गान के अनुसार पूरी तन्मयता से ठीक वही प्रभाव पैदा करने की क्षमता का विश्वास रखते हुए जिसके लिए उसका विधान है, करना अनिवार्य है। जब तक किसी भी धर्म सीमा में जन्म लेने वाले किन्हीं अवसरों पर धार्मिक आयोजन करते हैं, तब तक उनमें उसके विधि-विधान का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले, शुद्ध उच्चारण करने वाले, मुल्लों और पुरोहितों की जरूरत रहेगी। जानकारी बढ़ने या दूसरे कारणों से लोग धर्म सीमा वही रहते हुए भी इनके निर्वाह के प्रति उदासीन होते जाएंगे, पुरोहितों की संख्या भी घटती जाएगी, परंतु न तो हमें बलपूर्वक इस पर रोक लगाने का अधिकार है न ऐसे व्यक्ति को अध्यापक को रूप में घुसाने का जो आस्थावान यहां तक कि अंधविश्वासी न हो। प्रश्न धार्मिक उदारता का नहीं है, कठमुल्लेपन का है। एक विशेष प्रयोजन से जड़ीभूत होनो, यंत्रमानव बन जाने का है। कुलपति को और स्वयं डा खान को इस फर्क को समझते हुए अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे जान बूझ खुराफात कर रहे हैं। कुछ छात्रों को खान के समर्थन में खड़ा करना भी इसी का द्योतक है। समर्थन करने वाले छात्र धर्मशास्त्र के हो सकते हैं यह विश्वास नहीं होता।

Post – 2019-11-22

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (29)
#भारत_की_खोज-ग्यारह

विलियम जोन्स जिन भाषाओं मे समानताएं देखकर उनकी जननी भाषा की भूमिका तैयार करके चले थे उसे तो तलाश न सके, बहुत पीछे जाकर विश्व की सभी भाषाओं की एक जननी की तलाश करने चले। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह भाषा की उत्पत्ति और विकास की समस्या थी। इसे वह ईसाई पुराण में तलाशने लगे जहाँ यह न मिल सकती थी न मिल सकी। बात बनने की जगह और बिगड़ गई। पर जहां बनाना कुछ था ही नहीं, सिर्फ उलझाए रखना था, वहां बात बन भी गई ।

कूटनीति के इतिहास में हमें विलियम जॉन्स से बड़ी किसी प्रतिभा का पता नहीं है। जितनी चालाकी, और छल प्रपंच से कंपनी ने एक पर एक भारतीय राज्यों पर विजय प्राप्त की थी, उससे अधिक चालाकी और छल प्रपंच से उन्होंने सांस्कृतिक विजय और आंतरिक दोहन की योजना तैयार की और उसको लागू करना आरंभ किया। भारतीय और पड़ोसी राज्यों की हड़पने से पहले उनकी कमजोरियों को समझने के लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो का काम एशियाटिक सोसाइटी ने किया था।

इसके साथ राजनीतिक विजय को सांस्कृतिक विजय द्वारा मजबूत करने के लिए उसके समानांतर समस्त ज्ञान संपदा पर अधिकार करके, भारतीय मानस का नियंत्रण करने का जो काम विलियम जोंस ने किया, वह आज तक किसी से संभव नहीं हुआ। जिन्हें बर्बाद किया जा रहा था वे भी कृतज्ञ भाव से वाह वाह कर रहे थे। राजनीतिक पराधीनता से भारत मुक्त हो गया; सांस्कृतिक पराधीनता पर गर्व करता है। मुक्त होने की चाह तक नहीं। यह जानते हुए कि सभी अग्रणी देशों का अभ्युदय उनकी अपनी भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और अनुसंधान का माध्यम बनाने से हुआ है, और जब तक इन सभी क्षेत्रों में विदेसी भाषा का प्रभुत्व है तब तक कोई देश आगे बढ़ ही नहीं सकता, अंग्रेजी को गौण भाषा बनाने का विचार तक जोखिम भरा लगता है।

कंपनी ने भारत के राजाओं को एक पर एक जीता था। 1857 का विद्रोह न हुआ होता तो जो रजवाड़े बचे रह गए थे वह भी कंपनी के अधीन होते। विद्रोह हुआ भी इसलिए कि विलियम जोंस की नसीहतों का ध्यान न रखा गया। मीठी छुरी की जगह जहर बुझा खजर काम में लाया जाने लगा।

सांस्कृतिक विजय अभियान में केवल एक बार ही जहर बुझे खजर से काम लिया गया। यह था, जेम्स मिल द्वारा लिखा गया ब्रिटिश भारत का इतिहास। इसकी चर्चा बाद में करेंगे। इस अपवाद को छोड़कर बाद में यदि खंजर चला भी तो सर्जन की छुरी बनकर (लाचारी है! मरीज, अर्थात सत्य की रक्षा के लिए इतना अंग काटकर अलग करना ही होगा), या जज का हथौड़ा बनकर ( लाचारी है! गवाह यही कह रहे हैं, नतीजा यही निकलता है, इसे बयान तो करना ही होगा) इसलिए हम वहां भी वाह-वाह करते रहे, जहां जख्म पर जख्म दिए जा रहे थे। इसकी आदत सी पड़ गई। इसमें मजा आने लगा। और इसी को आत्मपीड़न रति ( मैसोकिज्म ) कहते हैं। पहले यह व्याधि इतनी उग्र नहीं थी। हैरानी होती है कि उपनिवेशवाद से मुक्ति ( जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं) मिलने के बाद का बुद्धिजीवी वर्ग आत्मपीड़न रति से ग्रस्त है।

जब मैं कहता हूं कि हमें उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली, स्वतंत्रता नहीं मिली, तो इस तर्क से कि मानसिक परनिर्भरता से मुक्त हुए बिना कोई व्यक्ति, देश, या समाज, स्वतंत्र कैसे हो सकता है?

जब मैं कहता हूं, मैं किसी राजनीतिक दल से जुड़े बिना, सबसे अधिक समर्पित बौद्धिक आंदोलनकारी हूं तो एक बात कहने से रह जाती है कि अपनी समझ से मैं, अपने समय का, सबसे सक्रिय राजनीतिक बुद्धिजीवी हूँ। हँसना हो तो मुझ पर हंसे – मुहावरा भी है, परंतु कभी-कभी हंसने के अवसर पुनर्विचार के भी अवसर हो सकते हैं और उसी से यह तय होता है कि हंसने वाला दूसरे पर हँस रहा है या अपने आप पर हंस रहा है। हमारे बुद्धिजीवियों ने अपने समय के मुख्य अंतर्विरोध को समझा ही नहीं क्योंकि वे उपनिवेश सांचे में बंद हो सोचने का अभिनय कर रहे थे , और यह तक न समझ पाए कि उपनिवेश से मुक्ति मिलने के बाद यदि मानसिक स्वतंत्रता न हासिल की गई तो हम नव उपनिवेशवाद शिकार रहेंगे । उपनिवेशवादी को शांति-व्यवस्था की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी, नव-उपनिवेशवाद उपद्रव भड़काने पर फलता फूलता है।

पुराना उपनिवेशवाद राजनीतिक आधिपत्य कायम करके पहले के औद्योगिक देशों के उद्योग अंधों को नष्ट करके उन्हें बाजार बनाने के लिए कटिबद्ध था। हमारी पीड़ा यह नहीं थी कि राज किसका है. बल्कि यह कि इसका धन कहां रहता या जाता है – धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी । इसका उत्तर गांधी ने सोचा था और उनसे भी पहले बंगाल के आंदोलनकारियों ने समझा था। उत्तर इतिहास में था। औपनिवेशिक आधिपत्य के बाद, अंग्रेजों ने सारे उद्योग धंधों को नष्ट करके अपना बाजार बनाया था। यदि हम अपनी जरूरत की चीजें हैं स्वयं पैदा करने लगे, बाजार होने से इंकार कर दें, तो औपनिवेशिक सत्ता की रीढ़ टूट जाएगी। हमारी मुक्ति के कारणों में बहुत सारी चीजें गिनाई गई हैं। बाजार बनने से इंकार करने की जिद को सही- सही दर्ज नहीं किया गया है।

जल्द से जल्द पश्चिम बनने की नेहरू की लालसा ने आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ते कदम को रोक दिया. कुटीर उद्योग प्रबल आंदोलन बनने की जगह कर्मकांड बन कर समाप्त हो गया। राष्ट्रीय पूँजीवादी विकास को कम्युनिस्टों ने बर्वाद कर दिया और भारत को नए सिरे से बाजार बना दिया। शासक चले गए, उनका आर्थिक साम्राज्य कायम है। पहले वे हमें हथियारों से वंचित करके, हथियारों के बल पर, उपभोग के सामान में बेचते थे। आज अपनी बुनियादी जरूरत की चीजें हैं हम स्वयं बना सकते हैं, ऐश के सामान एशिया के वे देश हमें देने लगे हैं जो पहले उपनिवेश बनने से बचे रह गए थे और भारतीय पूँजीपति अधिक से अधिक उनका सहयोगी बन कर रह गया है। इससे आदतें बदलती हैं परंतु इतना बड़ा नुकसान नहीं होता, जितना नव उपनिवेशवाद के हथियारों का बाजार बन जाने के कारण होता है।

वे एशिया और अफ्रीका के देशों में सूचना और संचार के माध्यमों से खास करके उन्हीं देशों में फसाद पैदा करते हैं, जो पहले उनके उपनिवेश थे मुक्ति पाने के बाद भी अपना धन उनका हथियार खरीदने और एक दूसरे को बर्बाद करने पर लगाते हैं हमारे भीतर सही बुद्धिजीवी वर्ग पैदा नहीं हो सका। सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी हम पश्चिम के गुलाम हैं। यदि केवल अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त हो जाय तो उनके प्रचारतंत्र की रीढ़ टूट जाएगी। हमारा विचारतंत्र ओर प्रचारतंत्र उनके खुराफात की ताकत को निष्प्रभाव कर सकता है।

सांस्कृतिक विजय पाए बिना पराधीन रह चुके देश स्वतंत्र नहीं हो सकते। हम स्वतंत्र नहीं हैं। हमें स्वतंत्रता पाने के लिए नया संघर्ष करना है और जिन्हें संघर्ष करना चाहिए वे पश्चिम के पालतू कुत्ते बने हुए हैं। वहां से मान सम्मान और धन पाना चाहते हैं। वे आधुनिक महामहोपाध्याय, कविराज, आलिम फाजिल बन कर पश्चिम की बौद्धिक दासता को अपने लिए गौरव की चीज समझते हैं।

असली संघर्ष यहाँ है। कम से कम मेरी नजर में। विलियम जॉन्स का जादू आज भी काम कर रहा है, इससे बाहर आने की जरूरत है। मेरी राजनीतिक सक्रियता 1970 में यहाँ से जुड़ी और सभी तरह के लाभों और प्रलोभनों के विरुद्ध पर सांस्कृतिक दासता से मुक्ति के प्रति रही है।

Post – 2019-11-20

रोते हुए आए थे तड़पते हुए जाते हैं
जीना इन्ही दोनों के दरम्यान रहा होगा।
कुछ याद नहीं मुझको तुमको हो पता शायद
जो झेल न पाया मैं तुमने ही सहा होगा।।

Post – 2019-11-20

यदि यों न हुआ होता तो वों तो हुआ होता
यों वों की बगलबन्दी, इतिहास कहो इसको।।