Post – 2019-11-22

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (29)
#भारत_की_खोज-ग्यारह

विलियम जोन्स जिन भाषाओं मे समानताएं देखकर उनकी जननी भाषा की भूमिका तैयार करके चले थे उसे तो तलाश न सके, बहुत पीछे जाकर विश्व की सभी भाषाओं की एक जननी की तलाश करने चले। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह भाषा की उत्पत्ति और विकास की समस्या थी। इसे वह ईसाई पुराण में तलाशने लगे जहाँ यह न मिल सकती थी न मिल सकी। बात बनने की जगह और बिगड़ गई। पर जहां बनाना कुछ था ही नहीं, सिर्फ उलझाए रखना था, वहां बात बन भी गई ।

कूटनीति के इतिहास में हमें विलियम जॉन्स से बड़ी किसी प्रतिभा का पता नहीं है। जितनी चालाकी, और छल प्रपंच से कंपनी ने एक पर एक भारतीय राज्यों पर विजय प्राप्त की थी, उससे अधिक चालाकी और छल प्रपंच से उन्होंने सांस्कृतिक विजय और आंतरिक दोहन की योजना तैयार की और उसको लागू करना आरंभ किया। भारतीय और पड़ोसी राज्यों की हड़पने से पहले उनकी कमजोरियों को समझने के लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो का काम एशियाटिक सोसाइटी ने किया था।

इसके साथ राजनीतिक विजय को सांस्कृतिक विजय द्वारा मजबूत करने के लिए उसके समानांतर समस्त ज्ञान संपदा पर अधिकार करके, भारतीय मानस का नियंत्रण करने का जो काम विलियम जोंस ने किया, वह आज तक किसी से संभव नहीं हुआ। जिन्हें बर्बाद किया जा रहा था वे भी कृतज्ञ भाव से वाह वाह कर रहे थे। राजनीतिक पराधीनता से भारत मुक्त हो गया; सांस्कृतिक पराधीनता पर गर्व करता है। मुक्त होने की चाह तक नहीं। यह जानते हुए कि सभी अग्रणी देशों का अभ्युदय उनकी अपनी भाषाओं को शिक्षा, प्रशासन और अनुसंधान का माध्यम बनाने से हुआ है, और जब तक इन सभी क्षेत्रों में विदेसी भाषा का प्रभुत्व है तब तक कोई देश आगे बढ़ ही नहीं सकता, अंग्रेजी को गौण भाषा बनाने का विचार तक जोखिम भरा लगता है।

कंपनी ने भारत के राजाओं को एक पर एक जीता था। 1857 का विद्रोह न हुआ होता तो जो रजवाड़े बचे रह गए थे वह भी कंपनी के अधीन होते। विद्रोह हुआ भी इसलिए कि विलियम जोंस की नसीहतों का ध्यान न रखा गया। मीठी छुरी की जगह जहर बुझा खजर काम में लाया जाने लगा।

सांस्कृतिक विजय अभियान में केवल एक बार ही जहर बुझे खजर से काम लिया गया। यह था, जेम्स मिल द्वारा लिखा गया ब्रिटिश भारत का इतिहास। इसकी चर्चा बाद में करेंगे। इस अपवाद को छोड़कर बाद में यदि खंजर चला भी तो सर्जन की छुरी बनकर (लाचारी है! मरीज, अर्थात सत्य की रक्षा के लिए इतना अंग काटकर अलग करना ही होगा), या जज का हथौड़ा बनकर ( लाचारी है! गवाह यही कह रहे हैं, नतीजा यही निकलता है, इसे बयान तो करना ही होगा) इसलिए हम वहां भी वाह-वाह करते रहे, जहां जख्म पर जख्म दिए जा रहे थे। इसकी आदत सी पड़ गई। इसमें मजा आने लगा। और इसी को आत्मपीड़न रति ( मैसोकिज्म ) कहते हैं। पहले यह व्याधि इतनी उग्र नहीं थी। हैरानी होती है कि उपनिवेशवाद से मुक्ति ( जिसे हम स्वतंत्रता कहते हैं) मिलने के बाद का बुद्धिजीवी वर्ग आत्मपीड़न रति से ग्रस्त है।

जब मैं कहता हूं कि हमें उपनिवेशवाद से मुक्ति मिली, स्वतंत्रता नहीं मिली, तो इस तर्क से कि मानसिक परनिर्भरता से मुक्त हुए बिना कोई व्यक्ति, देश, या समाज, स्वतंत्र कैसे हो सकता है?

जब मैं कहता हूं, मैं किसी राजनीतिक दल से जुड़े बिना, सबसे अधिक समर्पित बौद्धिक आंदोलनकारी हूं तो एक बात कहने से रह जाती है कि अपनी समझ से मैं, अपने समय का, सबसे सक्रिय राजनीतिक बुद्धिजीवी हूँ। हँसना हो तो मुझ पर हंसे – मुहावरा भी है, परंतु कभी-कभी हंसने के अवसर पुनर्विचार के भी अवसर हो सकते हैं और उसी से यह तय होता है कि हंसने वाला दूसरे पर हँस रहा है या अपने आप पर हंस रहा है। हमारे बुद्धिजीवियों ने अपने समय के मुख्य अंतर्विरोध को समझा ही नहीं क्योंकि वे उपनिवेश सांचे में बंद हो सोचने का अभिनय कर रहे थे , और यह तक न समझ पाए कि उपनिवेश से मुक्ति मिलने के बाद यदि मानसिक स्वतंत्रता न हासिल की गई तो हम नव उपनिवेशवाद शिकार रहेंगे । उपनिवेशवादी को शांति-व्यवस्था की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी, नव-उपनिवेशवाद उपद्रव भड़काने पर फलता फूलता है।

पुराना उपनिवेशवाद राजनीतिक आधिपत्य कायम करके पहले के औद्योगिक देशों के उद्योग अंधों को नष्ट करके उन्हें बाजार बनाने के लिए कटिबद्ध था। हमारी पीड़ा यह नहीं थी कि राज किसका है. बल्कि यह कि इसका धन कहां रहता या जाता है – धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी । इसका उत्तर गांधी ने सोचा था और उनसे भी पहले बंगाल के आंदोलनकारियों ने समझा था। उत्तर इतिहास में था। औपनिवेशिक आधिपत्य के बाद, अंग्रेजों ने सारे उद्योग धंधों को नष्ट करके अपना बाजार बनाया था। यदि हम अपनी जरूरत की चीजें हैं स्वयं पैदा करने लगे, बाजार होने से इंकार कर दें, तो औपनिवेशिक सत्ता की रीढ़ टूट जाएगी। हमारी मुक्ति के कारणों में बहुत सारी चीजें गिनाई गई हैं। बाजार बनने से इंकार करने की जिद को सही- सही दर्ज नहीं किया गया है।

जल्द से जल्द पश्चिम बनने की नेहरू की लालसा ने आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ते कदम को रोक दिया. कुटीर उद्योग प्रबल आंदोलन बनने की जगह कर्मकांड बन कर समाप्त हो गया। राष्ट्रीय पूँजीवादी विकास को कम्युनिस्टों ने बर्वाद कर दिया और भारत को नए सिरे से बाजार बना दिया। शासक चले गए, उनका आर्थिक साम्राज्य कायम है। पहले वे हमें हथियारों से वंचित करके, हथियारों के बल पर, उपभोग के सामान में बेचते थे। आज अपनी बुनियादी जरूरत की चीजें हैं हम स्वयं बना सकते हैं, ऐश के सामान एशिया के वे देश हमें देने लगे हैं जो पहले उपनिवेश बनने से बचे रह गए थे और भारतीय पूँजीपति अधिक से अधिक उनका सहयोगी बन कर रह गया है। इससे आदतें बदलती हैं परंतु इतना बड़ा नुकसान नहीं होता, जितना नव उपनिवेशवाद के हथियारों का बाजार बन जाने के कारण होता है।

वे एशिया और अफ्रीका के देशों में सूचना और संचार के माध्यमों से खास करके उन्हीं देशों में फसाद पैदा करते हैं, जो पहले उनके उपनिवेश थे मुक्ति पाने के बाद भी अपना धन उनका हथियार खरीदने और एक दूसरे को बर्बाद करने पर लगाते हैं हमारे भीतर सही बुद्धिजीवी वर्ग पैदा नहीं हो सका। सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी हम पश्चिम के गुलाम हैं। यदि केवल अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त हो जाय तो उनके प्रचारतंत्र की रीढ़ टूट जाएगी। हमारा विचारतंत्र ओर प्रचारतंत्र उनके खुराफात की ताकत को निष्प्रभाव कर सकता है।

सांस्कृतिक विजय पाए बिना पराधीन रह चुके देश स्वतंत्र नहीं हो सकते। हम स्वतंत्र नहीं हैं। हमें स्वतंत्रता पाने के लिए नया संघर्ष करना है और जिन्हें संघर्ष करना चाहिए वे पश्चिम के पालतू कुत्ते बने हुए हैं। वहां से मान सम्मान और धन पाना चाहते हैं। वे आधुनिक महामहोपाध्याय, कविराज, आलिम फाजिल बन कर पश्चिम की बौद्धिक दासता को अपने लिए गौरव की चीज समझते हैं।

असली संघर्ष यहाँ है। कम से कम मेरी नजर में। विलियम जॉन्स का जादू आज भी काम कर रहा है, इससे बाहर आने की जरूरत है। मेरी राजनीतिक सक्रियता 1970 में यहाँ से जुड़ी और सभी तरह के लाभों और प्रलोभनों के विरुद्ध पर सांस्कृतिक दासता से मुक्ति के प्रति रही है।