22 नवंबर को मैंने बहुत खिन्न होकर डॉक्टर खान के संस्कृत विभाग में नियुक्ति का विरोध करने वाले छात्रों के प्रति रोष प्रकट करते हुए टिप्पणी लिखी थी, और उस विरोध को संस्कृत भाषा का अपमान माना था। भाषा की पवित्रता की रक्षा करना उसके प्रसार में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न करना उस भाषा की हत्या करने के समान है। ब्राह्मणों ने या अपराध प्राचीन काल में किया और आज यह बंद होना चाहिए। कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसे कोई न पढ़ सके। इसका अपवाद धर्म ग्रंथ भी नहीं है, ऐसा मैं मानता हूं और कोई भी सुलझा व्यक्ति मानता है। यदि नहीं मानता तो वह रुग्ण है।
परंतु उसके बाद मुझे पता चला कि यह नियुक्ति धर्मशास्त्र और कर्मकांड विभाग में की गई है तो मैंने उसे वापस ले लिया। जितनी खिन्नता मुझे पहले संस्कृत विभाग के आचार्य के रूप में किसी अन्य धर्म के व्यक्ति की नियुक्ति का विरोध करने के सवाल पर हुई थी, उससे अधिक खिन्नता इस बात से है कि धर्म शास्त्र और कर्मकांड के विभाग में किसी ऐसे व्यक्ति की जाए जिसकी उसमें आस्था न हो, भले वह उसी धर्म का हो। इसकी मैं भर्त्सना करता हूं और उन लोगों की भर्त्सना करता हूं इस पर को समझते हुए भी, ऐसी नियुक्ति की हिमायत कर रहे हैं। इसमें केंद्र का शिक्षा विभाग भी है जिसने इस पर को समझे बिना यह निर्णय किया है कि यह नियुक्ति ठीक है। सरकार को धर्मशास्त्र विभाग को बंद करने का अधिकार है, उसमें दखल देने का नहीं।
किसी भी व्यक्ति को धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की छूट हो सकती है परंतु उसमें ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी उस धर्म में पूरी आस्था और विश्वास के बिना किसी व्यक्ति को उसका अध्यापक नहीं नियुक्त किया जा सकता। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के अनुसार भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। किसी के धर्म के मामले में सरकार को तब तक हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है जब तक की उसका और कोई भी विधान या आचार आपराधिक प्रकृति का न हो, जैसे सती, बाल विवाह, तीन तलाक।
धर्मशास्त्र ज्ञान का क्षेत्र नहीं है, विश्वास और आचार का क्षेत्र है। मैं स्वयं वेद का अध्येता हूँ, समय और सुविधा हो तो कर्मकांड का भी अध्ययन करना चाहूँगा। परंतु इसमें निष्णात होने के बाद भी मुझे शास्त्र पढ़ाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि मैं नास्तिक हूं। किसी भी धर्म की पाबंदियों को पाखंड मानता हूँ। यदि मैं जन्मना ब्राह्मण होऊँ तो भी नास्तिक होते हुए मुझे धर्मशास्त्र की बारीकियों को जानने का अधिकार है, परंतु जब तक मैं धर्म ग्रंथ में लिखें सभी विचारों को तर्कातीत नहीं मानता उनमें विश्वास नहीं करता, उनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रखता हूं, तब तक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए भी अध्यापक होने का अधिकार मुझे नहीं है।
पौरेपित्य तर्क और जिज्ञासा का क्षेत्र नहीं है। यह ज्ञान से अधिक एक तरह का प्रशिक्षण है। मंत्रों का अर्थ जानना जरूरी नहीं, परंतु उनका उच्चारण बिल्कुल शुद्ध होना, और पाठ साम गान के अनुसार पूरी तन्मयता से ठीक वही प्रभाव पैदा करने की क्षमता का विश्वास रखते हुए जिसके लिए उसका विधान है, करना अनिवार्य है। जब तक किसी भी धर्म सीमा में जन्म लेने वाले किन्हीं अवसरों पर धार्मिक आयोजन करते हैं, तब तक उनमें उसके विधि-विधान का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले, शुद्ध उच्चारण करने वाले, मुल्लों और पुरोहितों की जरूरत रहेगी। जानकारी बढ़ने या दूसरे कारणों से लोग धर्म सीमा वही रहते हुए भी इनके निर्वाह के प्रति उदासीन होते जाएंगे, पुरोहितों की संख्या भी घटती जाएगी, परंतु न तो हमें बलपूर्वक इस पर रोक लगाने का अधिकार है न ऐसे व्यक्ति को अध्यापक को रूप में घुसाने का जो आस्थावान यहां तक कि अंधविश्वासी न हो। प्रश्न धार्मिक उदारता का नहीं है, कठमुल्लेपन का है। एक विशेष प्रयोजन से जड़ीभूत होनो, यंत्रमानव बन जाने का है। कुलपति को और स्वयं डा खान को इस फर्क को समझते हुए अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे जान बूझ खुराफात कर रहे हैं। कुछ छात्रों को खान के समर्थन में खड़ा करना भी इसी का द्योतक है। समर्थन करने वाले छात्र धर्मशास्त्र के हो सकते हैं यह विश्वास नहीं होता।