Post – 2019-11-24

निराकरण

मेरी कल की पोस्ट पर इतनी प्रतिक्रियाएँ आईं जिसकी आशा न थी। सभी पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं। मेरे विद्वान मित्र विनोद शाही ने मुझसे कुछ प्रश्न किए थे। मैंने तात्कालिक प्रतिक्रिया में उनका विस्तार से उत्तर देने के लिए कुछ समय माँगा था। ये या इनसे मिलते जुलते प्रश्न कुछ दूसरों के मन में भी उठे होंगे अतः इनका निराकरण जरूरी है।

एक – कर्मकांड साधन है या साध्य?

कर्मकांड और रीति-विधान युगों पुराने इतिहास का प्रतीकात्मक मूर्तन है जो जातीय विश्वास का हिस्सा बन जाने पर कई तरह के चामत्कारिक परिणामों का साधन मान लिया जाता है। जैसे यज्ञ जिसका शाब्दिक अर्थ है उत्पादन। आरंभ में यह अन्न उत्पादन या कृषि कर्म था। जोताई के साधनों के विकास से पहले झाड़-झंखाड़ जला कर जमीन तैयार की जाती। आगे के कई चरणों के विकास इसमें जुड़ते गए। पहले के खेतिहर खेती की जमीन पर मालिकाना हक जमाकर खेती दूसरों से कराने तगे और स्वयं उसकी नकल करने लगे- शतपथ ब्रा. में कुछ विधानों का औचित्य समझाया गया है कि देवों ने खेती के लिए पहले क्या क्या किया। फिर यज्ञ के लंबे आयोजन से अल्प दबाव क्षेत्र पैदा करके वर्षा कराने का भाव जुड़ा।

हर बार इच्छित परिणाम नहीं आते, अब बहाने तलाशे और कमी पूरी करने को कुछ और तत्व जुड़ने लगे। वर्षा का देवता इसी क्रम में पैदा ह्आ और उसे प्रसन्न, करने के लिए खानपान का अर्पण, स्तुति आरंभ हुई । नई विफलता, नया दोष, उसे दूर करने के दावे के साथ नई सावधानी के साथ यह इतना जटिल हो गया कि इन बारीकियों की पूरी जानकारी को यज्ञविज्ञान कहा जाने लगा। इसकी महिमा इतनी कि यज्ञ या इष्टि से संतान पैदा कराई जा सकती, भूविस्तार कराया जा सकता, किसी का नाश किया जा सकता, गरज कि इसी विज्ञान से सभी समस्याओं का हल। पाखंड का इतना विस्तार और इतने रूप कि यज्ञविज्ञान की शाखाएँ और उनके विशेषज्ञ होने लगे। किसी भी वस्तु या विधान में कोई कमी हुई, असावधानी हुई तो यजमान का ही सत्यानाश। इसे आप तय करें कि यह सिद्धि है या साधन या किसकी सिद्धि और किसका साधन।

दो – निष्ठावान व्यक्ति अच्छा आचार्य होने और कहलाने का अधिकारी कैसे होता है ? क्या निष्ठा से युक्त होना और आचार्य होना एक ही बात है?

यास्काचार्य, सायणाचिर्य, शंकराचार्य, धर्माचार्य से समझें। निष्ठा अनिवार्य नहीं, न ही बाधक है। विषय पर अधिकार मात्र जरूरी है।

३ – यह नियुक्ति धर्मशास्त्र में हुई है या धर्मविज्ञान में?

विभाग का नाम संस्कृत विभाग नहीं है। धर्मशास्त्र और धर्मविज्ञान में अंतर कितना है इसे समझने में प्रश्न एक का उत्तर देखें। संस्कृत का ज्ञान इसके लिए पर्याप्त नहीं। संस्कृत ज्ञान उच्चारण की शुद्धता वह भी सामपाठी, उच्चावच के साथ। वृत्र ने यज्ञ कराया इन्द्र के नाश के लिए, स्वर में एक चूक हुई और उसका सत्यानाश हो गया।

विधि- विधान और मंत्र की प्रभावकारिता में विश्वास जरूरी है। । यह मूर्खतापूर्ण लग सकता है। इसका एक औपचारिक पक्ष है जो विशेष आयोजनों से जुड़ कर उन्हें गरिमा प्रदान करता है। इसको हटाने पर वह यांत्रिक हो जाता है। हमारे आधुनिक जीवन में ऐसे प्रतीकात्मक आयोजन सर्वत्र मिलते हैं।

4 . क्या किसी भी विश्वविद्यालय को यह अधिकार है कि वह कर्मकांड का ऐसा अध्ययन कराए जिसका आधार निष्ठा हो’ स्वाध्याय; विज्ञान और विवेक नहीं? तो क्या आप विश्वविद्यालय को ऐसे विषय में पठन-पाठन बंद करने के लिए कहना पसंद करेंगे।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय है। जैसे अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि.। इनका सेकुलर पक्ष यह कि इनमें किसी भी धर्म या जाति का छात्र शिक्षा पा सकता है। इनमें धर्मशास्त्र का विभाग होना गलत नहीं है। यदि समाज में कर्मकांड के आयोजन होते हैं तो अच्छा है कि इसका विधिवत ज्ञान कराने का स्तरीय प्रबंध हो। संस्कृत की परंपरागत पाठशालाओं और मदरसों से अच्छा है कुछ विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक धर्मशास्त्र के भी विभाग हों। किसी अन्य धर्म की न तो जड़ें इतनी गहरी और उलझी हुई हैे न इतिहास का प्रतीकविधान जितना हिंदू का। इनका अपना लालित्य भी है। हमारे सबसे बड़े त्यौहार होली, सतुआन, खिचड़ी, नवान्न, और नागपंचमी हमारे खाद्यान्न के विकास के इतिहास के स्मारक हैं।

धर्मशास्त्र का विभाग ही नहीं इसमें शोधकार्य को भी प्रोत्साहन मिलना चाहिए। वह अनुसंधान ही इससे जुडे अंधविश्वास की दवा है। बाहरी छेड़छाड़ काउंटर प्रोडक्टिव है।

मार्क्सवाद हमारे देश में दर्शन के रूप में नहीं व्याधि के रूप में आया अंध-हिंदुत्व विरोध बन कर लोकप्रिय बनने के प्रयत्न में रहा और मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ खड़ा हो कर इसने हिंदू सांप्रदायिकता को उभारा ।

धर्मशास्त्र के विभाग दुनिया के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी हैे – ऐड्र्यूज वि-वी. मिशिगन, ता स्एरा वि.वि. कैलिफोर्निया, नोत्रे देम (Notre Dame’s Department of Theology offers undergraduate programs as well as graduate degrees including a Ph.D., master of divinity, master of theological.), नटिंघम, अलीगढ़ आदि विश्वविद्यालयों में । भारत में ईसाइयत की शिक्षा देने वाली सेमिनरीज Academy of Integrated Christian Studies, Aizawl Theological College. Andhra, Bethel Bible College, Guntur., Bishop’s College, Calcutta.आदि। पता लगाइए इनमें किसी में उस धर्म की शिक्षा देने वाला किसी इतर धर्म का व्यक्ति है या नहीं। सेमनरी शीर्षक गूगल पर देखें, और दुनिया भर में इनकी हजारों संस्थाओं की तालिकाएँ। यदि धर्म और कर्मकांड हैं, तो इनके समुचित ज्ञान की व्यवस्था होना जरूरी है। गँवारों के हाथ में इसे नहीं सौंपा जा सकता।

५ – आप ने स्वयं को नास्तिक और वैज्ञानिक दृष्टि वाला व्यक्ति बताया है। तो इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि आप के मुताबिक कर्मकांड, जो किन्ही कारणों से हमारी समाज सांस्कृतिक जरूरत बन गए हैं, अवैज्ञानिक एवं अविवेकपूर्ण वस्तु है? आप ऐसा कह कर क्या दो नावों में एक साथ पैर रखने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?

मैं कभी किसी दूसरे को अपने जैसा नहीं बनाना चाहता। जो मुझसे अलग ढंग से सोचते और देखते हैे उनका उपहास करके उन्हे मिटाना नहीं चाहता। यदि वे गलत हैं तो स्वतः इसके परिणाम भोगेंगे। जापान के सूमो पहलवानों का जापानी उपहास नहीं करते। उनके साथ सम्मान से पेश आते हैं। मै ऐसा नास्तिक कभी न बनना चाहूँगा जो आस्तिक लोगों को दुनिया से मिटाने की ठान ले। अपनी ओर से लेखों. चर्चाओं में उनकी सीमाओं का जिक्र जरूरत पड़ने पर करूंगा। आशा करूँगा कि क्रमिक शिक्षा से लोगों की समझ में यह आ जाय कि धर्म पुराने जमाने की जरूरत थी जिसमें अपराध रोकने के लिए पुलिस बल न था। ईश्वर का डर पुलिस का काम करने लगा और बर्बर समाजों का ईश्वर तो अपनी भूमिका भूलकर स्वयं हथियारबंद लुटेरा और उपद्रवी बन गया।