मैं सच को नहीं तुझको बार बार देखता
अपनी खुदी को तू जो एकबार देखता
तू क्या था, क्या बना है, कभी यह तो सोचता
हम थे जो नहीं, क्यों बने ऐ यार देखता।।
Month: December 2018
Post – 2018-12-31
अच्छे बच्चे अच्छी बातें सोचते हैं।
अच्छे बच्चे सिखाई हुई बाते दुहराते हैं।
अच्छे बच्चे बुरी चीजों पर नजर नहीं डालते।
अच्छे बच्चे मेरा लिखा समझ नहीं पाते । इसमें अच्छी नहीं सच्ची बातें होती हैं।
Post – 2018-12-30
चले कहां को, देखिए तो कहां ठहरे हैं
(मैं चाहता था सांप्रदायिक भेदभाव के बीच सबके लिए सम्मानजनक जीवन निर्वाह का क्या आधार हो सकता है, इस पर विचार करूँ। अपनी बात समझाने के क्रम में फैलाव ऐसा हो गया कि बीच में ही रुक जाना पड़ा और जो शीर्षक चुना था उसे भी बदल कर इस रूप में रखना पड़ा, जिस रूप में आप इसे ऊपर देख रहे हैं।)
कांग्रेस ने जिस राष्ट्रवाद को अपनाया था, वह पश्चिमी राष्ट्रवाद नहीं था। उसकी जड़ें भारतीय जन-मानस में थीं। अनेक भाषाओं, अनेक राज्यों और राजाओं, खानपान की अनेक रीतियों, अनेक धर्मों, विश्वासों, परंपराओं, दर्शनों के बावजूद हिमालय से कन्याकुमारी तक एक देश की कल्पना और इससे गहरे जुड़ाव की भावना पश्चिमी जनों और पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को चकित करती हैं। एक अनपढ़ भारतीय को यह इतनी वास्तविक लगती है कि वह इस बात पर चकित होता है कि कोई इसे अविश्वसनीय मान सकता है।
एकता की यह भावना, आजीवन अपने गांव जवार में ही सिमटे रह जाने वाले अनपढ़ या मात्र साक्षर में कैसे पैदा हुई, इसे दोनों में से कोई नहीं जानता। पहले को जानने की जरूरत नहीं, जो प्रत्यक्ष है, वह है। इस पर इतना सर क्यों खपाना? दूसरे को जानने की जरूरत तो है, परंतु वह सभ्यता के निर्माणकाल को इतनी छोटी सीमा में रखकर देखना चाहता है कि इस रहस्य को समझ ही नहीं सकता। पश्चिमी कूटनीतिज्ञों को यह एकता माया, या आभासी लगती रही है और वे इसे रेत का ऐसा ढूह समझते रहे हैं जो तेज हवा से बिखर सकता है। यही मानकर वे अपनी कूटनीति करते रहे।
उनके इतिहासकारों को भी यह पता नहीं था कि कितने अंधड़ और तूफान सहने के बाद भी यह ज्यों का त्यों बना हुआ है। अपनी आशा के विपरीत वे पाते रहे हैं कि आपसी रगड़-झगड़ के बाद भी बाहरी आघात होने के क्षणों में यह एक महाशक्ति के रूप में तन कर खड़ा हो जाता है; कुछ न कर पाने की दशा में आहत अनुभव करता है। चोट कहीं लगे, दर्द की अनुभूति तेज कहीं भी हो, इसकी चेतना और सिहरन पूरी काया में अनुभव की जाती है।
इसका रहस्य क्या है, इसे न तो पश्चिमी विद्वान समझ सके, न भारतीय राजनीतिज्ञ। उन्होंने इसे विविधता में एकता की कामचलाऊ संज्ञा दी । यह संज्ञा सर्वप्रथम रिजले ने दी थी, जिसे भारतीय पंडित दुहराते रहे, परंतु यह समझने का प्रयास नहीं किया कि भारत में ही विविधता में यह एकता कैसे स्थापित हो पाई। अन्य देशों की विविधताओं के बीच ऐसी एकता क्यों नहीं स्थापित हुई?
यदि अपनी कल्पना शक्ति का सर्जनात्मक उपयोग करते, तो यह समझ जाते की इस्लाम के विस्तार के साथ, पूरे ईसाई जगत में ऐसी ही एकात्मता की अनुभूति पैदा हुई थी। यह सच है भारत में मजहब की वह एकता भी नहीं थी। यहां तो एक ही घर में एक वैष्णव और दूसरा शाक्त हो सकता था, एक हिंदू और दूसरा जैन हो सकता था, एक परिवार हिंदू और उसका बड़ा बेटा सिख हो सकता था। क्या यह देव समाज की साझी विरासत थी? इस पर किसी ने गौर नहीं किया। इसके साथ फिर वही समस्या सामने आ जाती थी कि यह साझा कैसे पैदा हुआ?
इसे हम उस आदिम अवस्था मैं लौट कर ही समझ सकते हैं जब भारतवर्ष में विचरने वाले समुदाय पर्वतीय और समुद्री बाधाओं के भीतर आहार और शिकार के लिए पूरे क्षेत्र में विचरण करते और प्राकृतिक उत्पादों की प्रचुरता के दिनों में किन्हीं क्षेत्रों में, आसानी से पहचाने जा सकने वाले, निश्चित स्थानों पर – नदी के संगम, उद्गम, मुहाने या किसी विशाल सरोवर के निकट, या समुद्र तट पर विशिष्ट पहचान वाले स्थलों पर समागम किया करते थे। यही आगे चलकर तीर्थ स्थानों के रूप में समादृत हुए। मोटे तौर पर पूरा देश उनका परिक्रमा क्षेत्र था। इसकी नदियों पहाड़ों को छोड़कर भूभाग की अलग पहचान न थी।
इसी का परिणाम है, सभी भाषाओं में, किसी न किसी रूप में, दूसरे सभी के तत्वों का पाया जाना।
मैं इस बात को कुछ स्पष्ट कर दूँ।
संस्कृत में, ‘एक’ के लिए, ‘एक’ का प्रयोग होता है। बहुत पहले, इसके लिए ‘ऊन’ का प्रयोग होता था। इससे पहले उनका ‘ऊ’ प्रयोग दूर के लिए, बड़े के लिए, व्यापक के लिए प्रयुक्त होता था। और इसके ठीक विपरीत ‘ई’ का प्रयोग. निकट के लिए, यहां के लिए लघु के लिए होता था। ‘ऊन’ का अर्थ था ऊ-न, वह जो व्यापक नहीं है, बड़ा नहीं है, अर्थात् छोटा है और इसी तरह से यह संख्याओं में सबसे छोटी संख्या ‘एक’ के लिए प्रयोग में आता था।
काफी विश्वास के साथ यह बात करने के बाद भी यह निवेदन करना बाकी रह जाता है कि मैं स्वयं यह नहीं कह सकता कि यह स्वर ‘ऊ’ था या ‘ओ’ । ‘ऊ’ में ‘न’ जुड़ने के बाद ‘ऊन’ बना जो यूनुस, यूनिट, यूनियन आदि में बचा हुआ है या ‘ओ’ में ‘न’ जुड़ने के बाद ‘ओन’ जो अंग्रेजी के ‘वन’, तमिल से ‘ओन्र’ में बचा हुआ है, या ‘ओ’ में ‘म’ जुड़ने के बाद ‘ओम’ में जिसका उच्चारण अ+ऊ+म के संपृक्त उच्चारण, अर्थात् एक अक्षर के रूप में, ‘ऊँ’ के रूप में होता था – ‘ओम इत्येकाक्षरं विद्धि’।
इसी से एक ओर ‘ऊन’, दूसरी ओर ‘ओं’, तीसरी ओर ओन्र और चौथी ओर ‘ओन’ (onorous, onimid) रूढ़ हुए। अर्थ सबका एक ही, एक, अनन्य, सर्वोपरि, और सबसे छोटा। सबसे छोटा इसलिए कि तब तक (0) की कल्पना नहीं हुई थी। कम और सबसे छोटा का अर्थ एक ही था।
एक दूसरा शब्द है, पद, जिस के इतिहास में हम नहीं जाना चाहेंगे। पर इतना बताना जरूरी है कि इसका एक अर्थ सर्वोपरि, सबसे बड़ा, हुआ करता था जो गीता के ‘पदवी कवीनां’ और हमारे व्यवहार के ‘पद’ और ‘पदवी’ मे बचा हुआ है।
गणना के आदिम चरणों पर सबसे बड़ी संख्या के रूप में कभी ‘त्री’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘चार’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘पांच’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘सस्’ / ‘षष्ट’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘सत्त/ सप्त’ का प्रयोग हुआ, फिर आठ/ ‘अष्ट’ का प्रयोग हुआ और अंतत: ‘*तस/दस’ का प्रयोग हुआ। 8 और 10 के बीच इससे काम नहीं चल रहा था, इसलिए संस्कृत में ‘नौ/नव’ का प्रयोग हुआ जिस का अर्थ था नया यद्यपि या 10 की संकल्पना के बाद पैदा हुआ था। हम इनके विस्तार में नहीं जाएंगे, पर यह याद दिलाना चाहेंगे कि पद अर्थात् 10, इसी का द्योतक है।
अब तमिल के ओन्बदु (ऊन+पदु) = नव और संस्कृत के/हिंदी के भी ऊनविंशति/ उन्नीस और इसी क्रम में ऊपर की संख्याओं पर ध्यान दें तो शब्द विकास और अर्थविकास की अंतर्धारा को समझ पाएंगे जो आर्य और द्रविड़ दोनों में प्रवाहित है। इसी से हम उस अंतःसूत्र को पहचान सकते हैं जिससे भारतीयता का निर्माण हुआ है।
इसी क्रम में वे जीवन मूल्य विकसित हुए थे जिन्हें हम भारतीय मूल्य-प्रणाली का अंग कह सकते हैं। अन्य भिन्नताओं के होते हुए यही वे सर्वनिष्ठ सांस्कृतिक सूत्र रहे हैं जो पृथक दीखने वाले मनकों को एक में भी पिरोते हुए वैजयंती माला को अदृश्य रूप में भारतीयों के गले का हार बनाए रहे और जिनसे इसे यह शक्ति मिली कि वह अपने से भिन्न मूल्यों, मानो, रीतियों और विश्वासों का सम्मान कर सके। भारत की राष्ट्रीयता की आत्मा यही है। बाद में, स्थायी बस्ती बसने के बाद विकास के एक स्तर पर अलग अलग संवर्तों की सृष्टि हुई और उनके निवासी अपने अपने आवर्त से बाहर जाना अनिष्टकर मानने लगे।
आर्यावर्त का निवासी यदि तीर्थ को छोड़कर किसी अन्य प्रयोजन से उससे बाहर जाता है तो भ्रष्ट हो जाता है, परंतु यदि वहां से उसका कोई संबंध ही नहीं था, तो उसके तीर्थ उन क्षेत्रों में कैसे पड़ गए? यही वह सूत्र है जो हमे इतिहास की सुदूरतम अवस्था तक ले जाता है।
इसे आप हिंदुत्व कह सकते हैं, भारतीयता कह सकते हैं, और यह समझ सकते हैं कि अपनी ओर से किसी को अपना बनाए बिना समय-समय पर किसी भी रूप में आने वालों को यह कैसे आत्मसात करता रहा है। केवल इस्लाम को जिसके जन्म के साथ ही युयुत्सा और गृहकलह जुड़ा हुआ है, जो किसी का न हुआ, एक ही ग्रंथ में विश्वास रखने वालों को भी जोड़ कर नहीं रख सकता, उसके भारत में आने से यह प्रक्रिया बाधित हुई तो हैरानी की बात नहीं।
Post – 2018-12-29
देश, धर्म और राष्ट्र
आप मुसलमानों के साथ प्रेम से नहीं रह सकते। मित्र बनकर भी नहीं रह सकते। वह अपनी सदाशयता दिखाते हुए मनोवैज्ञानिक रूप से आप पर हावी होने का, अपनी सोच, अपने विचार, अपनी रुचि के अनुसार आप को ढालने का प्रयत्न करेगा। यदि दो हैं तो एक को दब कर रहना या दबाकर रखना ही पड़ेगा। यदि प्रकृति में भिन्नता है तो दो या अधिक, बराबरी पर नहीं रह सकते। ऐसा करते हैं, तो नुकसान में रहेंगे। यह मेरा कहना नहीं है। मुसलमानों में वे लोग जिन्होंने अपने समाज को दिशा दी उनका कहना है:
It is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and the inconceivable. (सर सैयद. मेरठ, 1888)
.. if the Muslims want to live in this country, they must understand religion to be a merely private affair which should be confined to individuals alone. Politically they should not regard themselves as a separate nation: they should rather lose themselves in the majority. इकबाल. पू., 305
“Hindus and Muslims belong to two different religious philosophies, social customs and literary traditions. They neither intermarry nor eat together, and indeed they belong to two different civilisations which are based mainly on conflicting ideas and conceptions.” ( जिन्ना. लाहौर, 1940)
मोहम्मद अली जिन्ना ने एक दूसरे अवसर पर यह भी कहा था कि “हिंदुओं के नायक हमारे खलनायक हैं और हमारे नायक उनके खलनायक।” यह मात्र लफ्फाजी नहीं है, कठोर सच है। इसे आज भी काम करते देख सकते हैं। पहल भले ही किसी ने की हो, पर्दे के पीछे प्राम्प्ट करने वाला कौन था, यह जानते हुए भी, इस सचाई को मुस्लिम नेताओं ने ही नहीं माना, हिंदू नेताओं – भाई परमानंद, सावरकर, गोलवलकर – ने भी इसे स्वीकार किया।
अंग्रेजी कूटनीतिज्ञों की चाल को भांपते हुए इस जाल से निकलने और आपसी भाईचारा कायम करने की वकालत करने वालों को पाखंडी, कांइया और अविश्वसनीय ठहराया जाता रहा।
दोनों की दृष्टि में अंतर यह नहीं था इनमें से कोई हिंदू और मुसलमान के भेद को नहीं मानता था या उनकी निजता का सम्मान नहीं करता था। परंतु दार्शनिक समझे जाने वाले शब्दजीवी अपने ही समुदाय को गुमराह करने के लिए, वाक्यों को तोड़-मरोड़ कर यही समझा रहे थे:
The Maulana has not realised that by offering his interpretation he has put before the Muslims two wrong and dangerous views. First, that the Muslims as a nation can be other than what they are as a millat. Secondly, because as a nation they happen to be Indian, they should, leaving aside their faith, lose their identity in the nationality of other Indian nations or in “Indianism”. It is merely quibbling on the words qaum and millat. इकबाल,305
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He (Nehru) thinks wrongly in my opinion, that the only way to Indian Nationalism lies in a total suppression of the cultural entities of the country through the inter-action of which India can evolve a rich and enduring culture. वही, 215
अंतर केवल यह था की एक का मानना था कि मजहबी और सांस्कृतिक भिन्नताएं होते हुए भी साथ साथ रहा जा सकता है। जबकि दूसरे कहते थे ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि वे मजहब को राजनीति से अलग नहीं कर सकते।
…the majority community in this country and its leaders are every day persuading the Indian Muslims to adopt, viz. that religion and politics are entirely separate, and if the Muslims want to live in this country, they must understand religion to be a merely private affair which should be confined to individuals alone. Politically they should not regard themselves as a separate nation: they should rather lose themselves in the majority.
व्यक्तित्व को मिटा कर, मतों को मिटा कर एक करने और झुंड में बदल जाने का आग्रह स्वयं इकबाल करते है:
1. मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे।
2. तू बचा बचा के न रख इसे तेरा आईना है वह आईना।
कि शिकस्ता हो ताे अजीजतर है निगाहे आईनासाज में।।
3.The second evil from which the Muslims of India are suffering is that the community is fast losing what is called the herd instinct. पू. 27
अपने ही समाज को भीड़ में बदलने वालों से उसका क्या भला हो सकता है?
वास्तविकता यह है कि जो मुस्लिम नेता अलगाव की बात पर अडे़ थे वे भी इस सच्चाई को अस्वीकार नहीं कर सकते थे कि दोनों का एक साथ रहना संभव है। उदाहरण के लिए सर सैयद अहमद दो कौमों की बात करते हुए, केवल अपनी कौम की तरक्की की बात सोचते थे। जिस रईस वर्ग की चिंता उनको थी, वह अपनी जमीन जायदाद छोड़ कर किसी पराए देश में जाने को तैयार नहीं हो सकता था, इसलिए उसके लिए देश को बांट कर रहना कल्पनातीत था। मुस्लिम लीग ऐसे ही रईसों के हित की चिंता करते हुए स्थापित हुई थी इसलिए उसकी कार्य योजना में भी बंटवारे की बात नहीं आ सकती थी। चिंता अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के कारण अवश्य थी। जब मोहम्मद इकबाल भारतीय संघ में ही मुस्लिम बहुल राज्यों को स्वायत्तता देने की बात करते थे, तो उसमें यह निहित था कि वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं को उसी तरह की असुविधा का सामना करना पड़ेगा, जिसका अंदेशा उन्हें अविभाजित देश में था, और शेष हिंदुस्तान में अल्पसंख्यक होने के बावजूद मुसलमानों को बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ रहना ही था।
जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद अपने भाषण में जब कहा था, आप सभी यहां स्वतंत्र हैं। जिस को मंदिर जाना है वह मंदिर जाए, जिसे मस्जिद जाना है मस्जिद में जाए। किसी पर कोई रोक नहीं है। अर्थात् हिंदू मुसलमान एक साथ अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने के बाद भी शांति और सम्मान से रह सकते हैं। इसलिए यह दावा ही मूर्खतापूर्ण था कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक, या हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते। ऐसी दशा में विभाजन के लिए जिद पालने वाले सिरफिरे लोग थे, यह भी उन्होंने ही सिद्ध किया।
उनके ही प्रयोग से यह सिद्ध हुआ कि मुसलमानों के बहुमत के बाद, किसी दूसरे धर्म का व्यक्ति ही नहीं, दूसरे मत का मुसलमान भी शांति और सम्मान से नहीं रह सकता। दूसरी भाषा बोलने वाला शांति से नहीं रह सकता। मुस्लिम समाज में, अंत:कलह की प्रवृत्ति इसकी बुनियाद में ही पड़ी हुई है, इसलिए अल्पसंख्यक होते हुए भी, वह केवल मुसलमान के होने के कारण एक राष्ट्र नहीं हो सकता।
इसके विपरीत हिंदुस्तानी होने के कारण, सभी मिलकर अपने भेदभाव को दरकिनार करते हुए, राष्ट्र के रूप में संगठित हो सकते हैं और पूरी स्वतंत्रता के साथ, ससम्मान रह सकते हैं , उसी प्रयोग से सिद्ध हुआ। केवल कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ राष्ट्रीय विशेषण राष्ट्रीयता का सूचक हो सकता था, और उन संकीर्णताओं से भी मुक्त रह सकता था, जो धर्म या नस्ल की एकता को आधार बनाने के कारण यूरोपीय राष्ट्रवाद में अपरिहार्य हो जाती हैं। मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद, दोनों राष्ट्र विरोधी संकल्पनाएं हैं और इसलिए सच्ची राष्ट्रीयता हासिल करने में बाधक हैं।
राष्ट्रीयता एक नई संकल्पना है, परंतु यह भावना अनंत काल से चलती आ रही है। इसको पूंजीवाद ने अपने लिए सबसे सस्ती दर पर, अधिकतम निष्ठा के साथ, अपनी प्रतिभा, शक्ति, यहां तक कि जीवन समर्पित करते हुए काम करने के लिए काम में लाया । इसका जातक ही कुटिलता पूर्ण था और इसकी परिणति भी पूंजीवादी, विस्तारवादी, साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की प्रतिस्पर्धा के कारण विध्वंसकारी रही।
इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करके किसी देश की बिखरी हुई ऊर्जा को एकजुट करते हुए उच्चतम संभावनाओं और लक्ष्यों को प्राप्त करने में लगाई जाए। कांग्रेस के नाम के साथ राष्ट्रीय शब्द जुड़ा हुआ था, परंतु वह शिक्षित मध्यवर्ग की लालसाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जा रहा था और यद्यपि इसने स्वतंत्रता को भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया था, पर बिखरी शक्तियों को जोड़ने का और इसे एक जनआंदोलन में बदलने का काम गांधी ने ही किया। भारत में राष्ट्र की चेतना पैदा करने वाले को, राष्ट्रपिता की संज्ञा देने वाला उसके लिए सही शब्द का प्रयोग कर रहा था। शायद इसका प्रयोग सुभाष चंद्र बोस ने किया था जैसे महात्मा का विरुद गुरुदेव ने दिया था। राष्ट्र की गलत समझ रखने वालों ने तो उन्हें केवल गालियां दी हैं, वे मुस्लिम राष्ट्रवादी हों, या हिंदू राष्ट्रवादी। संकीर्णता विराटता को नहीं समेट सकती।
राष्ट्रीयता किसी भूभाग में बिखरे हुए शक्ति पुंजको जोड़ती है, बिखराव पैदा नहीं करती। अलगाव और बिखराव पैदा करने वाले, शक्तिपुंजों को किसी लक्ष्य की सिद्धि के लिए एकाग्र करती है । यह लक्ष्य ऐसा होता है जिससे सभी को किसी न किसी रूप में राहत मिलती है, या सभी किसी दूसरे रूप में लाभान्वित होते हैं। यही उन्हें उस त्याग और बलिदान के लिए मानसिक रूप में तैयार करता है।
भारत के सामने लक्ष्य था विदेशी दासता से मुक्ति, जिससे सबका लाभ था, क्योंकि इसके कारण ही कारीगरों और मजदूरों को कामकाज और लाभ के अवसर से वंचित होना पड़ा था। इसके कारण ही मुसलमानों को दुर्गति का सामना करना पड़ा था और हिंदुओं को धार्मिक आधार पर पहले के भेदभाव से मुक्ति तो मिली थी, परंतु पूरे देश का आर्थिक दोहन हो रहा है इसकी समझ केवल उनके पास थी। इसे न समझ पाने के कारण तात्कालिक लाभ के लिए चिरकाल तक अंग्रेजों का गुलाम बने रहने का विकल्प चुनने वाले भावातुर मूर्ख थे, यह कहना सही तो होगा पर इसके परिणाम सही नहीं होंगे।
राष्ट्रीयता का आधार मजहब नहीं हो सकता। यदि होता तो पूरा यूरोप एक राष्ट्र होता। भाषा नहीं हो सकती। होती तो ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया एक राष्ट्र होते। एक शासन तो हो ही नहीं सकता , अन्यथा ब्रिटिश साम्राज्य का एक राष्ट्र होता।
विकलन पद्धति से, जो ही वैज्ञानिक पद्धति है, हम अंततः जिस एक तत्व पर पहुंचते हैं, वह है देश। यह देश की सभी समस्याओं का समाधान नहीं है, अपितु ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति है जिससे तात्कालिक रूप में सभी को किसी न किसी रूप में लाभ होगा और बाकी समस्याएं साधनों के अपने हाथ में आ जाने के बाद अधिक आसानी से सलटा सकेंगे। अपनी समस्याओं का हल दुश्मनों के हाथ में सौंपना उनके हाथ का खिलौना बनना है। गांधी की यह समझ थी और इस कसौटी पर गांधी सही सिद्ध हुए।
धार्मिक भावनाएं भड़का कर, भावना को दिमाग समझने वाले बुनियादी समस्याओं और अनुषंगिक समस्याओं के बीच भेद करने की योग्यता नहीं रखते थे। उन्होंने राष्ट्रीयता के सबसे महत्वपूर्ण घटक देश को ही दिमाग से ओझल कर दिया। जिनके पास, ठोस जमीन थी, वे होश हवास खो कर हवा में किले बनाने लगे:
मुस्लिम हैें हम वतन है सारा जहां हमारा।
और मुस्लिम देशों में भी उनको हिंदी के रूप में पहचाना जाता है। हिंदी थे तुम वतन था हिंदोस्तां तुम्हारा। आखिर दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश आज भी हिंदुस्तान ही है जिसे तुम्हारे विश्वासघात के कारण हिंदुस्थान कहने वालों से तुम्हें डर लगता है।
Post – 2018-12-27
भले लोगों का बुरा हो कि वे भले क्यों हैं
किसी भी समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसका प्रतिनिधि होता है। जिसने उस समाज के केवल एक व्यक्ति को देखा वह उसके आचरण के माध्यम से ही उस पूरे समाज को देखने को बाध्य होगा। जिस समाज में विरोधी गुणों विचारों और कार्यों वाले लोगों की संख्या अधिक हो वहां तय करना कठिन हो जाता है उसका कौन सा तबका उसका सही प्रतिनिधित्व करता है। कोई भी समाज एकपिंडीय नहीं होता। जड़ पदार्थों तक में प्राकृतिक रूप में किसी भी तत्व की प्रधानता हो सकती है परंतु अनेक दूसरे तत्व मिले होते हैं, जिन को अलग करने के बाद उसे शुद्ध रूप में पाया जाता है। इसलिए किसी भी पूरे समाज को उसके किन्हीं तत्वों, या प्रवृत्तियों को आधार बनाकर अच्छा या बुरा सिद्ध करना गलत है।
यूरोप के ईसाई स्पर्धा में कमजोर सिद्ध होने के कारण यहूदियों से नफरत करते थे। इसके लिए उन्हें अपनी पुराणकथाओं से नफरत का आधार भी मिल जाता था। यहूदी लोभी होता है, पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है, उसने अपने मसीहा से भी विश्वासघात करते हुए उसे चंद सिक्कों के लिए शत्रुओं के हाथ में दे दिया। यह कहानी ईसाईयों ने गढ़ी थी। ईसा स्वयं यहूदी थे। उनके शिष्य यहूदी थे। यदि एक नया मजहब प्रचारित प्रसारित करने के कारण वह यहूदियों से अलग थे, पहले ईसाई थे, तो उनके वे शिष्य भी ईसाई थे। ईसा मसीह के साथ विश्वासघात यहूदियों ने नहीं, उनके विश्वास में दीक्षित ईसाईयों ने किया था।
संख्या में कम होने के बाद भी ईसाईयों से यहूदी अपने सांस्कृतिक कारणों से आगे पड़ते थे। कला, कौशल हो या व्यापार हो या ज्ञान-विज्ञान हो या दर्शन, किसी भी मामले में ईसाई यहूदियों के सामने ओछे दिखाई देते हैं। यूरोप को विश्व का सिरमौर बनाने में ईसाइयों से अधिक यहूदियों का हाथ है। अपने हीनता बोध के कारण उन्होंने आत्मरक्षा तंत्र (defense mechanism) के चलते उनसे घृणा करने का रास्ता अपनाया। इस हीनभावना ने यहूदीद्रोह (antisemetism) को जन्म दिया। हिटलर यहूदीद्रोह के लिए कुख्यात है, क्योंकि उसने उस घृणा को जो पूरे यूरोप के ईसाई समुदाय में व्याप्त थी, अपनी राजनीतिक जरूरतों के कारण, पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया, परंतु इससे, उसे अपराधी सिद्ध करके अपनी रक्षा करने वालों का अपराध कम नहीं होता।
किसी भी समाज को एक सिरे से किसी खाने में बंद करके देखना अपराध है। यूरोप जो यहूदीद्रोह का जनक था, वह आज इसे निंदनीय समझता है। इसके बाद भी यहूदीद्रोह अमेरिकी समाज में भी, जिसने मानवता का प्रथम उद्घोष किया था, बना रहा है और सोवियत संघ, जो नस्ल और मजहब से ऊपर उठ कर साम्यवाद का सपना दिखाते हुए, अस्तित्व में आया था, उसमें भी काम करता रहा।
यहां मैं न तो अमेरिका की निंदा करने के लिए यह बात कह रहा हूं न ही सोवियत संघ को अपराधी सिद्ध करने के लिए इसे उसके साथ जोड़ रहा हूं। मनुष्य का स्वभाव भौतिक और वैचारिक सीमाओं से आगे जाता है, इसे हम अपने यहां भी, उन लोगों में भी, जो वर्णवाद के विरोधी हैं, वर्णवादी प्रवृत्तियों के अवशेष के रूप में देख सकते हैं। लंबे अभ्यास के, बाद अवचेतन का हिस्सा बन चुके पूर्वाग्रह प्रयत्न करने के बाद भी आसानी से नहीं जाते। इसे समाज में परिवर्तन लाने को व्यग्र आंदोलनकारी नहीं समझ पाते। निरे उत्साह से उमड़ने वाले आंदोलनों में विचार और संतुलित दृष्टि का अभाव होता है। इसके कारण ही वे प्रायः अपने लक्ष्य के विपरीत प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं। समस्या के समाधान को अधिक दुष्कर भी बनाते हैं। किसी पर अपराधी की मुहर लगाना आसान है, अपराध से मुक्ति का रास्ता निकालना बहुत धैर्य, और संतुलन की मांग करता है। इस मामले में दुनिया के सभी समाज इतिहास की परीक्षा में फेल हुए हैं।
किसी भी समाज को काले या सफेद रंग में रंग कर देखना, उसे फूटी आंख से देखने जैसा है। उसे अच्छा या बुरा कहने की जगह, इस बात पर ध्यान देना अधिक जरूरी है कि वह जो कुछ बना है वह किन परिस्थितियों में, किन कारणों से, बना है? उनको सुधरने में कितने प्रयत्न और कितने समय की जरूरत पड़ सकती है? बीमारी दवा से दूर हो सकती है, पर उससे पैदा हुई दुर्बलता दूर होने में समय, सावधानी और संयम तीनों की जरूरत होती है। इनमें से किसी की भी कमी जानलेवा हो सकती है। राजनीतिज्ञों से मुझे इसलिए डर लगता है कि वे, यदि उनका इरादा सही हो तो भी, जल्द से जल्द परिणाम चाहते हैं और इस जल्दबाजी के कारण न्याय के लिए खड़े होने वाले आंदोलनों द्वारा स्वयं जितना अन्याय किया जाता है उसका वजन प्रायः अपराधियों द्वारा किए गए समस्त कुकृत्य से अधिक पड़ता है। बीज डालते ही फल की कामना करने वाले, अधिक खाद, अधिक पानी देकर बीज को भी सड़ा सकते हैं ,परंतु मनचाहा फल नहीं पा सकते। राजनीतिज्ञों की बदहवासी दूर करने के लिए बुद्धिजीवियों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वही बता सकते हैं, कि कितनी खाद, कितना पानी, कितना धैर्य, और कितना समय फलागम के लिए जरूरी होता है। यही कारण है राजनीति से जुड़ने वाले बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों के चापलूस बन कर रह जाते हैं, वे अपने क्षेत्र के की मर्यादा में रहकर राजनीतिज्ञों को सही दिशा दिखाने का काम नहीं कर पाते।
इस बात का ध्यान बहुत कम लोग रख पाते हैं कि एक कट्टर मुसलमान, वर्ण की श्रेष्ठता में विश्वास करने वाला ब्राह्मण और एक नस्लवादी गोरे में गहरी समानता होती है फिर भी अपने ही समाज के दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा ये ही एक दूसरे से अधिक नफरत करते हैं, परंतु मैं इनमें से किसी को दंड या आतंक से न तो सुधारने का पक्षधर हूं न ही इस तरह किसी को सुधारा जा सकता है।
परंतु इस बोध के अभाव में यदि हम यह न समझ सकें किसके साथ हमें कैसे बर्ताव करना है, तो हम आत्मघाती तो सिद्ध हो सकते हैं, तत्वदर्शी नहीं। 19वीं शताब्दी के इतिहासकार एलफिंस्टन ने राजपूतों और मराठों के बीच अंतर बताते हुए कहा था, A Rajput Warrior, as long as he does not dishonour his race, seems almost indifferent to the result of any contest he is engaged in. A Maratha thinks of nothing but the result. and cares little for the means if he can attain his object.” इस पर अपनी ओर से टिप्पणी करते हुए अब्राहम इराली की टिप्पणी है For the Rajput, war was an end in itself, for the Maratha it was only a means. Rajput played the game, Marathas played to win. (The Mughal Throne,2004, p.435)
जब मैं फेसबुक पर दक्षिण वाम की नोक झोंक में एक दूसरे पर अपने अपने सड़े अंडे फेंकते देखता हूं तो दोनों में काफी समानता दिखाई देती है। उद्देश्य में भी काफी समानता। दोनों अपने अपने तरीके से हिंदू मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं। एक राजपूतों की तरह, दूसरा मराठों की तरह। एक केसरिया बाने की चमक जौहर की कहानियां विरासत में सौंपते हुए अदृश्य हो गए, दूसरे किसी भी कीमत पर सफलता चाहते हैं क्योंकि सही और गलत का अंतिम फैसला सफलता से ही तय होता है। यह भी संयोग ही है कि दक्षिणपंथ की जन्मस्थली और राजधानी, दोनों मराठों की भूमि से ही संबंध रखते हैं।
हमने अपनी बात यहूदियों से इसलिए आरंभ की थी कि भारतीय सन्दर्भ मे, एक हजार साल यातना और अधोगति झेलने के बाद भी, हिंदुओं की भूमिका ठीक वही रही है जो यहूदियों की। ज्ञान, विज्ञान, कर्मठता, उद्योग, व्यापार, जीवनादर्श, सहिष्णुता सभी में अग्रणी रहे। यह मैं अपनी ओर से डींग हांकने के लिए नहीं कह रहा हूं। यह दो परस्पर उल्टी सोच वाले अग्रणी मुस्लिम नेताओं सर सैयद अहमद और अल्लामा इकबाल का कथन है। आधुनिक शिक्षा आदि के मामले मे हिंदुओं की अग्रता का रोना रोने के बाद सर सैयद कहते है:
In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. (1887, लखनऊ)
Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour. The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. …But to make friendship with the Bengalis in their mischievous political proposals, and join in them, can bring only harm. If my nation follow my advice they will draw benefit from trade and education. Otherwise, remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters. (1888, मेरठ)
उनकी ही स्वीकृति के अनुसार कट्टरता को ढाल बनाने वाले मुसलमानों की उत्पादक क्षमता नगण्य रही है। तलवारबाजी और रंगबाजी के अतिरिक्त उनकी कोई भूमिका नहीं। वे केवल अशांति पैदा कर सकते हैं। उनमें कामकाजी लोग किन्हीं परिस्थितियों में इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य हुए हिन्दू ही रहे हैं।
अल्लामा इकबाल के अनुसार
The Hindus, though ahead of us in almost all respects, have not yet been able to achieve the kind of homogeneity which is necessary for a nation, and which Islam has given you as a free gift. पूर्व. 26
यदि उक्त कथनों से बात समझ में न आती हो तो इस उदाहरण से समझें कि विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रदेश माना जाता था। नहरों की सुविधा के बाद पंजाब का भी वही हाल हो गया था। फिर भी बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों की आर्थिक दुर्दशा का कारण यह है कि वहां हिन्दू नहीं रह गया।
यह विचित्र संयोग है कि सभी दृष्टियों से अग्रता के बावजूद हिंदू के साथ भारत में ठीक वैसा ही नजरिया अपनाया जाता रहा जैसा यूरोप में यहूदियों के साथ। हिंदू शब्द, उसके संस्कृति का प्रतीक, मूल्य व्यवस्था अभी का उपहास किया जाता रहा। जो अपने खुराफाती होने पर गर्व करते हैं उनकी ऐसी आदतों विचारों और विश्वासों के तोष के लिए जिससे उनका भी अहित होना है, और होता रहा है, उल्टे हिंदू समाज को दोष दिया जाता रहा है।
Post – 2018-12-26
यारब न वे समझे हैं न समझेंगे मेरी
सीआईए के प्रधान ने जब कहा था कि मुझे एक अरब डालर दे दो और मैं सोवियत संघ की ऐसी गत कर दूंगा कि वह अपनी घरेलू समस्याओं में ही उलझ कर रह जाएगा, तब किसी को विश्वास भी न हुआ होगा कि वह सोवियत संघ को छिन्न भिन्न कर सकता है। अमरीका ने कम्युनिज्म के रास्ते पर चलने वाले चीन को पूंजीवादी रास्ते पर डाल दिया। सीआईए ने न जाने कितनी हत्याएं कराईं, कितने तख्ते पलटे इसका आंकड़ा किसी के पास होगा तो सीआईए के पास ही। जो रहस्य सबको पता है उसका भी सही तरीका और चेहरा दिखाई नहीं देता है। यह सब कूटनीतिक चतुराई और कम से कम पैसे के बल पर अधिक से अधिक कारीगरी के कौशल से ही संभव हो पाया ।
यूं तो दुनिया की हर बुराई के पीछे अमेरिका का हाथ देखना अन्यैय होगा, परंतु यह सही है, कि सऊदिया के तेल भंडार पर उसकी पकड़ रही है और सउदिया के निर्णय अमेरिका की सलाह पर होते रहे हैं। अमेरिका हो या उसका गुरु ब्रिटेन, ये जिसके दोस्त हो जाएं, उसे किसी दुश्मन की जरूरत नहीं है।
इनकी मोटी चाल यह रही है की जिन देशों और समाजों का दोहन करना है उनको मध्यकालीन पिछड़ेपन में घेर कर रखना है। यह जानवरों की रेवड़बंदी से काफी मिलता-जुलता है। तरीका जाना पहचाना हैः
उन देशों और समाजों की भावुकता को इतना प्रबल करना कि वह महाव्याधि की शक्ल ले ले। बौद्धिकता को हतोत्साहित करना कि यह आस्था पर उंगली उठाने जैसा है। किताब को खूँटे की तरह इस्तेमाल करते हु्ए, किताब के युग में बांध कर रखना, और किताब की व्याख्या का अधिकार अपने पास रखते हुए समाज को अपनी गिरफ्त में रखना, कि वे अपने हित और अहित को पहचानने और पहले से नियत सीमाओं से आगे बढ़ने से घबराहट अनुभव करें।
ब्राह्मणों ने हिंदू समाज को भी वेद पुराण से बांधकर रखने की। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उनके प्रयत्न पूरी तरह निष्फल गए। परंतु वेद में हर एक विचार का प्रतिवाद है। हम भारतीय मुस्लिम समाज की मानसिकता पर विचार कर रहे हैं इसके विस्तार में नहीं जाएंगे। यहां केवल इतना ही कह सकते हैं कि मुस्लिम समाज में भावुकता की जैसी प्रबलता रही है, उसकी संगठित किंतु अंध प्रतिक्रिया समय-समय पर जैसी इनमें देखी जाती रही है वैसी हिंदू समाज में नहीं। इसमें ईश्वर से लेकर वेद पुराण सभी पर प्रश्न करने, संदेह प्रकट करने का, अधिकार सभी व्यक्तियों को अपनी ज्ञान सीमा के अनुसार मिला रहा है।
मुस्लिम समाज में वैज्ञानिक और तार्किक व्यक्ति भी कुरान का नाम आते ही हाथ खड़े कर देते हैं। मुस्लिम देशों के लिए संसाधनों का अपने लाभ के लिए एकाधिकार करने के लिए प्रयत्नशील पूंजीवादी देश इस कमजोरी को जानते और इसका भरपूर लाभ उठाते रहे हैं । ऐसी स्थिति में वे बहुत चतुराई से कट्टरपंथी विचारों को हवा देते रहे हैं। यह ध्यान देने की बात है कि अरब देशों और ईरान के तेल भंडारों पर अधिकार जमाने के लिए प्रयत्नशील अमेरिका इन देशों का हितैषी बनकर इनको अपने इशारे पर चलाने का प्रयत्न करता रहा है ।ईरान में शाह का शासन ऐसा ही था। यदि वहाबी प्रवृत्तियों को बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में प्रोत्साहन दिया जाना आरंभ हुआ, मदरसों और मजदूरों की पढ़ाई के प्रति आसक्ति पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ी, और सउदिया, जो अमेरिकी इशारे पर चलता रहा है, मुस्लिम जगत का नेतृत्व संभालने के लिए इस पर पानी की तरह पैसा बहा रहा है, डॉलर भले उसका लगता रहा हो, दिमाग अमेरिका का ही लगता रहा है।
अमेरिकी सरकार के ही एक आकलन के अनुसार अकेले सऊदिया की राजधानी रियाध ने वहाबी असहिष्णुता वाले इस्लाम को प्रचारित करने पर 10 अरब डालर खर्च किए (The US State Department has estimated that over the past four decades the capital Riyadh has invested more than $10bn (£6bn) into charitable foundations in an attempt to replace mainstream Sunni Islam with the harsh intolerance of Wahhabism. Wikipedia) ।
सऊदिया के विषय में कामिल दाऊद ने कहा है कि यह देश इस्लामिक कट्टरता पैदा करता, फैलाता और कट्टरपंथियों को शरण देता है जबकि वे ही इसे जड़ से उखाड़ने पर तुले हुए हैं और इसके भविष्य के लिए खतरा हैं (The country produces, sponsors, shelters and feeds the Islamism that threatens its foundations and its future.)।
यहां दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला यह कि 40 साल के भीतर इसमें तेजी आई है। और यही समय अमेरिका के सऊदी तेल भंडारों में दिलचस्पी लेने का भी है। दाऊद जब कहते हैं कि आरंभ में सउदिया एक ओर तो धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दे रहा था और दूसरी ओर मुस्कुराते हुए अमेरिका से हाथ मिला रहा था, अमेरिका ने इसकी और ध्यान नहीं दिया, (It took the West being heavily hit by Islamist terrorism for it to appreciate fully the measure of this menace, long camouflaged. Indeed, even as Saudi leaders were shaking hands and smiling at their Western counterparts, they were hosting preachers advocating jihad to the hundreds of thousands of people gathered in Mecca for the annual pilgrimage. Today, everyone sees through the facade beer.), तो वह इस सचाई को समझ नहीं पाते कि यह अमेरिका के गुदगुदाने से पैदा हुई मुस्कराहट थी।
मुसलमानों के तीर्थ मक्का और मदीना सऊदी में ही पड़ते हैं इसलिए धार्मिक कट्टरता बनी रहे, और बढ़े, इसमें उसकी दिलचस्पी हमेशा से रही है क्योंकि हज के लिए जुटने वाली भीड़ उसके आय का स्रोत रही है। संबंध वही रहा है जो हमारे कुंभ आज का पंडों पुरोहितों से रहा है। पंडे आज के होटल उद्योग की पुराने रूप हैं और अपने आचार व्यवहार में धार्मिक आस्था से मुक्त शुद्ध व्यावसायिक रहे हैं। व्यावसायिक कारणों से मुसलमानों के पिछड़ेपन में उनकी धार्मिक आस्था में सउदिया का रुचि लेना और मानसिक रूप में मध्यकालीन बने रहना एक अपरिहार्यता थी।
परंतु हम जिस दौर की बात कर रहे हैं उसने कमाने से अधिक खर्च करने का अभियान पहले से ठीक उलट था। यह उसकी कमजोरी को भुनाने वालों की चाल लगती है।
मुझे इसके पीछे अमेरिका का हाथ दिखाई देता है जिसे कुछ फैलाकर पश्चिमी जगत की चाल भी कहा जा सकता है। इसका सीधा संबंध पेट्रोल के उत्पादन, पेट्रोल के कमीशन, और पेट्रोल डालर को आधुनिकीकरण पर खर्च करने की जगह पिछड़ेपन की खेती कर खर्च करने की जुगत थी। सही इस्तेमाल से आधुनिक सोच और शिक्षा से अपनी संपदा और साधनों पर अमेरकी अधिकार से उबरने की चिंता पैदा हो सकती है । इसे रोकने के लिए, मध्यकालीन पिछड़ेपन में घेर कर रखने के लिए धार्मिकता को बढ़ावा दिया गया और इसके पीछे अमेरिका का हाथ था।
हम पीछे कह आए हैं इस्लाम के प्रचार में तलवार और पैसे की भूमिका प्रधान रही है , वह माले गनीमत के रूप में हो, या जजिया कर के रूप में, लगान वृद्धि और उसकी वसूली के उत्पीड़न के रूप में। इसमें पहले दो कारकों की ओर विद्वानों का ध्यान गया है तीसरे की ओर नहीं । चीन में भू राजस्व उत्पाद का नवां हिस्सा था। प्राचीन भारत में छठां, शेरशाह के समय तक एक तिहाई, अकबर ने शेरशाह का अनुकरण किया था। परंतु शाहजहां के समय में यह तीन गुना होू गया था। किसान खेती करने से इंकार करते हुए खेती बंद कर देते थे और तलवार के जोर पर उन्हें खेती के लिए बाध्य किया जाता था। जिन दिनों तख्तताऊस बनाने पर अकूत धन खर्च किया जा रहा था मुगल साम्राज्य के सबसे उपजाऊ माने जाने वाले गुजरात में ढाई साल तक अकाल पड़ा रहा और बादशाह ने कृपा करके लगान का 14 वां हिस्सा माफ किया था। इसका मतलब, यदि मरने की नौबत है तो इस्लाम कबूल करो और जिंदा रहो, वर्ना मरो। यह मेरी समझ है। हो सकता है गलत हो परंतु औरंगजेब की क्रूरता हमें दिखाई देती है शाहजहां की क्रूरता ताजमहल के संगमरमर में छिप जाती है।
भटकने की आदत है क्या कीजिए। कहना यह चाहता था कि वहाबी आंदोलन के साथ एक स्तर पर मौज मस्ती परंतु दूसरे स्तर पर नितांत सादगी और कबीलाई सहभागिता का ऐसा योग था कि एक डॉलर सौ डालर का काम करता है। यदि एक बिलियन डॉलर से रूस का सत्यानाश किया जा सकता था, तो उससे 10 गुना खर्च करने के बाद उसके बहुगुणित प्रभाव का अनुमान ही किया जा सकता है।
पश्चिमी देश पहले कांटे बोते हैं और फिर कांटो का सफाया करने के नाम पर कांटे बोते हुए जो लाभ कमाया था उससे कुछ अधिक लाभ कमाने का प्रयत्न करते हैं। वे रूस को हराने के लिए तालिबान पैदा करेंगे , और जब उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी, और वे उनके लिए ही खतरा बनने लगेंगे तो उनकी सफाई के नाम पर उन देशों को भी मटिया मेट कर देंगे जो उनके सहयोगी रहे थे।
राजनीतिक मामलों की मेरी समझ इतनी कम है इस तरह की बातें करते हुए स्वयं शंकित रहता हूं क्या मैंने सही निष्कर्ष निकाला। परंतु जिस बात को स्वयं अधिकारियों ने स्वीकार किया है उनके अनुसार हज करने वाले देशों के तीर्थयात्री कट्टरवादी प्रचार के लक्ष्य हुआ करते थे। और जिस बात को समझने के लिए किसी आधिकारिक ज्ञान की जरूरत नहीं है, वह यह कि हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार हज को प्रोत्साहित करती रही है
इसके लिए अनुदान भी देती रही है। वोट बैंक के लिए भारतीय मुसलमानों को कट्टरपंथी बनाने में हमारे राजनीतिज्ञों का भी योगदान रहा है।
सउदिया में नए शासक शासक ने इस पिछड़ेपन से अपने समाज को बाहर लाने का संकल्प कर लिया है:
The appearance of the man known as the “iron prince” — Mohammed bin Salman, the 32-year-old heir to the throne — suggests that there may be a solution to the Saudi problem. Young, fiery, seen as a reformer, the crown prince has been making a splash since his father placed him at the forefront of the political scene about two years ago. He is proposing, for example, another kind of economic model than the one, built around oil and gas, that prevails today, and has announced development mega projects and plans to open up the country to tourism unconditionally….
Whatever the real effect of these changes in Saudi Arabia, they already are being felt elsewhere. If this country, the motherland of fatwas, undertakes reforms, Islamists throughout the world will have to follow suit or risk winding up on the wrong side of orthodoxy.
कट्टरपंथी इस सुधार कार्यक्रम से घबराए हुए जहालत का अपना साम्राज्य बचाने के लिए प्रयतनशील हैं। भारतीय मुसलमान भी अपनी पहचान पिछड़ेपन से जोड़ कर पिछड़ते रहने के लिए संघर्ष कर रहा है।
Post – 2018-12-24
ऐसी मूढ़ता या मन की
(संपादित)
सामी मजहब कबीलाई मजहब है । इस्लाम में कबीलाई संस्कार अधिक प्रबल रहे हैं। कबीलाई व्यवस्था में भाईचारा होता है। सरदार को छोड़ कर सभी लोगों की स्थिति एक समान होती है। सरदार का चुनाव सबकी सहमति से होता है, इसे हम कबीलाई लोकतंत्र कह सकते हैं। इकबाल इसे मुस्लिम लोकतंत्र (Muslim Democracy) कहते थे। यदि सरदारी के दावेदार एक से अधिक हुए, और जनमत से कोई निर्णय नहीं हो सका फैसला तलवार के बल पर होता है।( “When the tribe was equally divided between two leaders, the rival sections separated from each other until one of the candidates relinquished his claim; otherwise the sword was appealed to.” Political Thought in Islam. op.cit.138)
इस्लाम के विस्तार में तलवार की भूमिका प्रधान रही है (The life of early Muslims was a life of conquest. Their whole energy was devoted to political expansion which tends to concentrate political power in fewer hands; and thus serves as an unconscious handmaid of despotism.) तलवार की ताकत लूटपाट की छूट ( माल ए गनीमत), से पैदा होती रही है। लुटेरों और तस्करों का एक छोटा सा जत्था भी इतना उपद्रव मचा सकता है कि उन्नत समाजों की फौज और पुलिस भी परेशान हो जाए पर उन्हें काबू में न कर सके। लुटेरों के साथ फिर भी एक कमी होती है, वे जानते हैं कि वे अपराध कर रहे हैं, समाज की नजर में गिरे हुए हैं। यदि लूट और हिंसा को मजहब का समर्थन मिल जाए, ऐसे कुकर्मों को महिमामंडित किया जाने लगे तो ऐसे जत्थों का आकार और मनोबल दोनों बढ़ जाता है और दुर्दांतता कल्पनातीत हो जाती है। जघन्य क्रूरता का प्रदर्शन गौरव का विषय बन जाता है।
लुटरों और तस्करों की उत्पादकता शून्य होती है, और इनकी लूटपाट के कारण उत्पादक समाजों की उत्पादकता बाधित होती है। कबीलाई अर्थव्यवस्था में अन्यथा भी संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होती। लूटो, छीनो, मौज करो, बर्वादी का भोंड़ा प्रदर्शन करो और जब हाथ खाली हो जाए तो फिर जान पर खेल कर लूट-पाट में लग जाओ। इन कारणों से मानवता के आर्थिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक उत्थान में इस्लाम की भूमिका नकारात्मक रही है और इसका चरित्र सभ्यताद्रोही रहा है।
इस नियम का अपवाद वह दौर था जब दूरदर्शी अब्बासी खलीफाओं या अन्यत्र किसी साहसी शासक के हस्तक्षेप से इसकी कट्टरता में कमी आई और स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा मिला। तलवार तब भी म्यान में नहीं लौटी थी पर अब्बासी खलीफाओं ने देश-विदेश के विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उनको अपूर्व सम्मान और सुख सुविधा देकर उनके ज्ञान, विज्ञान, दर्शन का अरबी में अनुवाद कराया और तकनीकी कौशल को अपनाया। इसमें प्रमुख भूमिका ईरान और उसके माध्यम से ग्रीस और रोम की तथा भारत की थी। सैद्धांतिक ज्ञान के मामले में चीन का योगदान नगण्य था जब कि भारत का प्रधान – गणित, ज्यामिति, ज्योतिर्विज्ञान, रसायन, चिकित्सा, शल्यचिकित्सा- योगदान था, पर चीन से चरखा, कागज भारत बहुत बाद तक न अपना सका जब कि अरबों ने इसे अपना लिया था। यूनान और रोम के ज्ञान के रक्षक उस दौर में जब पोप इंनोसेंट प्रथम के ज्ञानद्रोही, बहुदेववाद द्रोही, कलाद्रोही अभियान में विद्वानों, चिंतकों का संहार और उत्पीड़न आरंभ हुआ तो अपनी प्राणरक्षा के लिए सासानी शासकों की शरण में आ गए। यूनानी और रोमन ज्ञान विज्ञान उनके संरक्षण में स्थापित केंद्रों में पलता रहा था। इसलिए अरबी चिंतकों मे ईरानी मूल के चिंतकों की संख्या अधिक प्रभावशाली रही है। इन दो प्रमुख प्रभावों के अतिरिक्त दूसरे सभी सुलभ स्रोतों – मिस्री, ईसाई आदि – काे भी उसी आदर से अपनाया गया था। यह अरब संस्कृति का स्वर्ण काल था। विश्व सभ्यता की शिरो रेखा अरब संस्कृति थी। विश्व का अधिकतम ज्ञान अरबों के पास था। सभ्यता का मुकुट अरबों के सिर पर था।
आप यदि मुसलमान हैं तो आप खीझ सकते हैं कि इसे सीधे इस्लामी या मुस्लिम सभ्यता क्यों नहीं कहते? ऐसा इसलिए नहीं कहता कि इस्लाम भक्ति भावना का संप्रदाय है। तर्क के लिए इसमें जगह नहीं है। अब्बासी खलीफों ने किताब के भीतर घुसने की जगह किताब में से उन बिंदुओं को पहचानने का प्रयास किया जो किताब से बाहर, दूसरी किताबों और विचारों की ओर ले जाते हैं। यदि यह सच है कि मोहम्मद साहब ने कहा थाी ज्ञान यदि चीन से भी हासिल हो उसे हासिल करना चाहिए। उस समय चीन अरबों के ज्ञात जगत में सबसे दूर था।
अब्बासी खलीफों ने कुरान और हदीस के ऐसे ही संकेतों का उपयोग करते हुए, किताब से बाहर का रास्ता निकाला। हिन्द्स्तानी मुसलमानों में ऐसे ही विद्वान हुए हैं जो एक ओर अरबी सभ्यता पर गर्व करते रहे हैं और दूसरी ओर किताब में वापस जाने की वकालत करते रहे हैं। दुर्भाग्य से इकबाल ऐसे ही लोगों में आते हैं।
अरबी संस्कृति किताब से बाहर निकलने की कोशिश है इस्लाम किताब में बंद होने का प्रयास है। इस्लाम और ईसाइयत का तंत्र ज्ञान-विरोधी, और सभ्यता द्रोही है। वह अरब संस्कृति जिस पर कोई मुसलमान गर्व कर सकता है वह किताबों से बाहर जाने का संघर्ष है , विश्व की अन्य किताबों और ग्रंथागारों तक पहुंचने का प्रयास है। किताब जलाने वाले पुस्तकालय जलाने वाले ज्ञान के केंद्रों को नष्ट करने वाले, अरब संस्कृति को नहीं समझ सकते।
अरब संस्कृति का विनाश करने वाले मंगोल थे जिन्होंने खलीफाओं के साम्राज्य का नाश कर दिया था। सामरिक विजय के बाद भी धार्मिक रूप में वे उनसे पराजित हुए थे और इस्लाम कबूल कर लिया था।
भारत पर जिन मुसलमानों ने आक्रमण किया था या जिनके प्रभाव में अफगानों ने हमले किए थे वे उन्हीं तुर्कों और मंगोलों की संस्कृति से प्रभावित थे जिनके हस्तक्षेप से अरब संस्कृति पराभव का शिकार हुई। कबीलाई किताब अरबों के स्वर्ण युग पर हावी हो गई। मुल्ले खलीफों पर भारी पड़े।
आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का जन्म, धर्मयुद्धों के दौरान अरब संस्कृति से परिचय से बाद उसका शिष्य बनकर प्राप्त शिक्षा से हुआ। उसी के माध्यम से उसने अपने यूनानी अतीत की भी खोज की और वर्तमान ऊर्जा को भी प्राप्त किया। सभ्यता की मसाल यूरोप को थमाकर उसे अंधकार युग से बाहर लाने वाला, यूरोप के नवजागरण का जन्मदाता, स्वयं उस अंधकार युग में लौट गया जिससे उसने यूरोप को बाहर निकाला था।
भारत हो या अरब या चीन, पश्चिम हमसे अलग नहीं है, वह हमारा वारिस है और अपनी विरासत को पाने के लिए उसका शिष्य बन कर उसी तरह उसकी उपलब्धियों को ग्रहण करना होगा जिस तरह शिष्य बन कर उसने पूर्व को आत्मसात करते हुए आधुनिक पश्चिम काे जन्म दिया था। पूरब पूरब है, पश्चिम पश्चिम, दोनों कभी मिल नहीं सकते, यह कविता है, पर सत्य नहीं। सत्य यह है कि पूर्व पश्चिम का जन्मदाता है, और उसे अपना नवजीवन प्राप्त करने के लिए पश्चिम का शिष्य बनना होगा। यह समझ एशिया के दूसरे सभी देशों में है, केवल इस्लामी जगत में नहीं है, क्योंकि वह अपने ही स्वर्ण युग की महिमा को भूल गया है। वह किताब में बंद होने को आतुर है, किताबों को जलाना तो उसके बस की बात नहीं, परंतु किताबों से कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं है। भारत पर भी अपनी किताब लादने की कोशिश के कारण इसका बौद्धिक पर्यावरण कितना प्रभावित हुआ है, यह तय करना कठिन है।
Post – 2018-12-24
मेरी कल की टिप्पणी इकबाल के विचार का अनुमोदन थीः
Democracy lets loose all sorts of aspirations and grievances which were suppressed or unrealised under autocracy; it arouses hopes and ambitions often quite unpractical and it relies not on authority but on argument or controversy from the platform, in the Press, in Parliament, gradually to educate people to the acceptance of a solution which may not be ideal but which is the only practical one in the circumstances of the time.
(Iqbal, Extract from a Letter to Sir Francis Younghusband, published in The Civil and Military Gazette on 30th July, 1931 )
Post – 2018-12-23
लोकतंत्र में सभी असुरक्षित हैं
मैं नसीरुद्दीन की कला और संवेदनशीलता का कायल हूं। दो एक साल पहले इसी किताब (फेस बुक) के एक पन्ने पर लिख चुका हूं कि उनकी कलात्मक तन्मयता मेरे लिए प्रेरक है। वह स्वयं असुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित अनुभव करते हैं। जाहिर है मैं भी असुरक्षित अनुभव करता हूं और यदि मेरी असुरक्षा उनकी असुरक्षा से पैदा हो तो यह हैरानी की बात न होनी चाहिए।
अपने को असुरक्षित अनुभव करने की स्वतंत्रता भी केवल लोकतंत्र में होती है। दूसरी शासन प्रणालियों में सताए जाने वालों को भी अपने को असुरक्षित कहने की हिम्मत नहीं होती। उदाहरण कश्मीर का है। अपमानित, प्रताड़ित, निर्वासित होने के बाद भी किसी ने न पहले कहा कि वह असुरक्षित है न ही बाद मे कहा। भोगने वालों को अपने को असुरक्षित कहने का भी अधिकार नहीं होता, वह किसी नाम से जाना जाए, लोकतंत्र नहीं होता। लोकतंत्र में छोटी से छोटी असुविधा पर लोग असुरक्षित अनुभव करते और इसलिए असुरक्षित अनुभव करने वालों की संख्या में वृद्धि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमाना है। इसमें जिन पर दूसरों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी है वे अपने को असुरक्षित घोषित करके अपनी सुरक्षा का इतना पक्का इंतजाम करते हैं, कि उसी अनुपात में जनता की असुरक्षा बढ़ती जाती है। जो सबसे अधिक सुरक्षित हैं वे अपने को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव करते हैं। असुरक्षित होना हैसियत से जुड़ा मामला है। ऐसों की संख्या में बढ़त यह जताता है कि लोकतंत्र लंबे अरसे बाद पहली बार स्थापित हुआ है।
इसलिए असुरक्षित मैं भी अनुभव करता हूं। इसके फायदे अधिक हैं नुकसान कोई नहीं।
Post – 2018-12-22
कम्युनिस्ट कठमुल्लापन
इकबाल सामाजिक और आर्थिक अवमानवीकरण के घोर विरोधी थे। यह उनके निजी स्भाव का हिस्सा था। वह एक ओर हिंदू वर्ण-व्यवस्था के कटु आलोचक थे और दूसरी ओर पश्चिमी पूंजीवाद के। दोनों मामलों में ऐसे अतिसंवेदनशील कि वह सर्वनाशवादी (निहिलिस्ट) तक हो सकते थे।
जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर ख़ोश-ए-गंदुम को जला दो।
हिन्दू समाज में व्याप्त सामाजिक भेदभाव को वह लाइलाज पाते हैं क्योंकि कोई जाति नहीं है जो इस पर गर्व न करती हो –
Experience, however, shows that the various caste units and religious units in India have shown no inclination to sink their respective individualities in a larger whole. Each group is intensely jealous of its collective existence.
आर्थिक विषमता पर उनका आक्रोश उस मनोदशा को प्रकट करता है जिसके कारण मध्यकाल में क्षुब्ध किसान खेती करने से इन्कार कर देते थे, आज कल किसान अपना दूध, टमाटर, आलू जिसे इतने श्रम से पैदा किया है, उसका लागत मूल्य तक न मिल पाने के कारण, रास्तों पर फेंक देते हैं और मेरी जानकारी के अनुसार उनमें से कोई इकबाल की कविता से प्रेरित हो कर ऐसा नहीं करता।
परंतु इस मामले में वह पश्चिम को अपराधी मानते हैं
The peoples of Asia are bound to rise against the acquisitive economy which the West has developed and imposed on the nations of the East. Asia cannot comprehend modern Western capitalism with its undisciplined individualism.
इन दोनों विषमताओं का समाधान वह इस्लाम में पाते हैं परंतु मुस्लिम समाज में नहीं। उसमें दोनों विकृतियां हैं, इसलिए इस सामाजिक और आर्थिक विषमता से मुक्त साम्यवाद और मानवतावाद को पाने के लिए आदिम इस्लाम और कुरान शरीफ के विधानों की ओर लौटना होगा। और इसके लिए मुसलमानों को अपने को नए सांचे में ढालना होगा।
Let all come forward and contribute their respective shares in the great toll of the nation. Let the idols of class distinctions and sectarianism be smashed for ever; let the Mussalmans of the country be once more united into a great vital whole
अपनी अतिवादी इस्लामियत के कारण वह किसी अनीश्वरवादी दर्शन या विचारधारा के समर्थक नहीं हो सकते थे, वह भी जब उसका प्रेरक पश्चिम हो। इसलिए कम्युनिज्म के लिए उनके मन में कोई सहानुभूति नहीं थी। वह कम्युनिज्म के विरोधी थे। वह कम्युनिज्म और फासिज्म में कोई अंतर नहीं करते थे।
. But in spite of all these developments, the tyranny of imperialism struts abroad, covering its face in the masks of Democracy, Nationalism, Communism, Fascism and heaven knows what else besides. Under these masks, in every corner of the earth, the spirit of freedom and the dignity of man are being trampled underfoot in a way of which not even the darkest period of human history presents a parallel.
परंतु भारतीय कम्युनिज्म का जो हाल था उसमें ऐसी अंधी क्रांतिकारिता और भावाकुल लफ्फाजी के लिए काफी गुंजाइश थी जिसमें चांद तारे नोचने से लेकर आकाओं की हड्डियां चबाने तक का नुमाइशी गुस्सा था, और जबानी तूफान उठा कर जमाना बदलने का जोश क्षतिपूर्ति का काम करता और आत्मग्लानि से बचाता था, क्योंकि उनकी जीवनशैली और आय के साधन वही थे जिनके कारण ये परिस्थितियां पैदा होती हैं।
ऐसी स्थिति में प्रश्न यह है कि क्या भारतीय कम्युनिज्म ने यह मान लिया कि भारत में जनवादी क्रांति करने से अधिक आसान और अधिक उचित विकल्प इस्लामी मूल्यों का अनुमोदन है जिससे समर्थन के लिए पूरा मुस्लिम समुदाय मिल जाएगा, और मजहबी कारणों से यदि कोई हिचक है तो उसे हिंदुओं की भर्त्सना से पूरा किया जा सकता है।
भारतीय कम्युनिज्म आकाशबेलि की तरह आया, उसने जमीनी स्तर पर न काम किया न भारतीय यथार्थ को समझा, इसलिए पहले से किन्हीं कारणों से एकत्र समूहों को किसी भी कीमत पर हथियाने का प्रयत्न करता और उन्हें विषाक्त बनाता और दूसरों के उपयोग के लिए छोड़ता रहा है, वे मुसलमान हों, मिल मजदूर हों, या छात्र। यह विकल्प आकर्षक तो लगता है पर यह इतना इकहरा है कि इस पर विश्वास नहीं होता।
मैं इसे समझना चाहता हूं । क्या कोई समझा सकता है कि प्लेबीसाइट के समर्थन को अपनी चूक मानने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने आगे भी लगातार पश्चगामी मुस्लिम कट्टरवाद को ही अपना मुख्य कार्यभार क्यों बनाए रखा। मुसलमानों का हित तो उस मार्ग पर बढ़ने में था जिसे सर सैयद ने दिखाया था। यह यदि इकबाल का प्रभाव नहीं तो किसका प्रभाव है कि आर्थिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील मुस्लिम युवक भी कट्टरता का रास्ता अपना लेता है।
जहां हिंदुओं से उन्हें शिकायत थी, वहां भी वह हिंदुओं के अहित की बात सोच नहीं सकते थे, मुसलमानों का अहित करना नहीं चाहते थे, परंतु जो कुछ सोच और समझा रहे थे उससे हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का अहित हो रहा था।