Post – 2018-12-23

लोकतंत्र में सभी असुरक्षित हैं

मैं नसीरुद्दीन की कला और संवेदनशीलता का कायल हूं। दो एक साल पहले इसी किताब (फेस बुक) के एक पन्ने पर लिख चुका हूं कि उनकी कलात्मक तन्मयता मेरे लिए प्रेरक है। वह स्वयं असुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित अनुभव करते हैं। जाहिर है मैं भी असुरक्षित अनुभव करता हूं और यदि मेरी असुरक्षा उनकी असुरक्षा से पैदा हो तो यह हैरानी की बात न होनी चाहिए।
अपने को असुरक्षित अनुभव करने की स्वतंत्रता भी केवल लोकतंत्र में होती है। दूसरी शासन प्रणालियों में सताए जाने वालों को भी अपने को असुरक्षित कहने की हिम्मत नहीं होती। उदाहरण कश्मीर का है। अपमानित, प्रताड़ित, निर्वासित होने के बाद भी किसी ने न पहले कहा कि वह असुरक्षित है न ही बाद मे कहा। भोगने वालों को अपने को असुरक्षित कहने का भी अधिकार नहीं होता, वह किसी नाम से जाना जाए, लोकतंत्र नहीं होता। लोकतंत्र में छोटी से छोटी असुविधा पर लोग असुरक्षित अनुभव करते और इसलिए असुरक्षित अनुभव करने वालों की संख्या में वृद्धि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैमाना है। इसमें जिन पर दूसरों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी है वे अपने को असुरक्षित घोषित करके अपनी सुरक्षा का इतना पक्का इंतजाम करते हैं, कि उसी अनुपात में जनता की असुरक्षा बढ़ती जाती है। जो सबसे अधिक सुरक्षित हैं वे अपने को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव करते हैं। असुरक्षित होना हैसियत से जुड़ा मामला है। ऐसों की संख्या में बढ़त यह जताता है कि लोकतंत्र लंबे अरसे बाद पहली बार स्थापित हुआ है।
इसलिए असुरक्षित मैं भी अनुभव करता हूं। इसके फायदे अधिक हैं नुकसान कोई नहीं।