Post – 2018-12-22

कम्युनिस्ट कठमुल्लापन

इकबाल सामाजिक और आर्थिक अवमानवीकरण के घोर विरोधी थे। यह उनके निजी स्भाव का हिस्सा था। वह एक ओर हिंदू वर्ण-व्यवस्था के कटु आलोचक थे और दूसरी ओर पश्चिमी पूंजीवाद के। दोनों मामलों में ऐसे अतिसंवेदनशील कि वह सर्वनाशवादी (निहिलिस्ट) तक हो सकते थे।
जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर ख़ोश-ए-गंदुम को जला दो।

हिन्दू समाज में व्याप्त सामाजिक भेदभाव को वह लाइलाज पाते हैं क्योंकि कोई जाति नहीं है जो इस पर गर्व न करती हो –
Experience, however, shows that the various caste units and religious units in India have shown no inclination to sink their respective individualities in a larger whole. Each group is intensely jealous of its collective existence.

आर्थिक विषमता पर उनका आक्रोश उस मनोदशा को प्रकट करता है जिसके कारण मध्यकाल में क्षुब्ध किसान खेती करने से इन्कार कर देते थे, आज कल किसान अपना दूध, टमाटर, आलू जिसे इतने श्रम से पैदा किया है, उसका लागत मूल्य तक न मिल पाने के कारण, रास्तों पर फेंक देते हैं और मेरी जानकारी के अनुसार उनमें से कोई इकबाल की कविता से प्रेरित हो कर ऐसा नहीं करता।

परंतु इस मामले में वह पश्चिम को अपराधी मानते हैं
The peoples of Asia are bound to rise against the acquisitive economy which the West has developed and imposed on the nations of the East. Asia cannot comprehend modern Western capitalism with its undisciplined individualism.
इन दोनों विषमताओं का समाधान वह इस्लाम में पाते हैं परंतु मुस्लिम समाज में नहीं। उसमें दोनों विकृतियां हैं, इसलिए इस सामाजिक और आर्थिक विषमता से मुक्त साम्यवाद और मानवतावाद को पाने के लिए आदिम इस्लाम और कुरान शरीफ के विधानों की ओर लौटना होगा। और इसके लिए मुसलमानों को अपने को नए सांचे में ढालना होगा।
Let all come forward and contribute their respective shares in the great toll of the nation. Let the idols of class distinctions and sectarianism be smashed for ever; let the Mussalmans of the country be once more united into a great vital whole

अपनी अतिवादी इस्लामियत के कारण वह किसी अनीश्वरवादी दर्शन या विचारधारा के समर्थक नहीं हो सकते थे, वह भी जब उसका प्रेरक पश्चिम हो। इसलिए कम्युनिज्म के लिए उनके मन में कोई सहानुभूति नहीं थी। वह कम्युनिज्म के विरोधी थे। वह कम्युनिज्म और फासिज्म में कोई अंतर नहीं करते थे।
. But in spite of all these developments, the tyranny of imperialism struts abroad, covering its face in the masks of Democracy, Nationalism, Communism, Fascism and heaven knows what else besides. Under these masks, in every corner of the earth, the spirit of freedom and the dignity of man are being trampled underfoot in a way of which not even the darkest period of human history presents a parallel.

परंतु भारतीय कम्युनिज्म का जो हाल था उसमें ऐसी अंधी क्रांतिकारिता और भावाकुल लफ्फाजी के लिए काफी गुंजाइश थी जिसमें चांद तारे नोचने से लेकर आकाओं की हड्डियां चबाने तक का नुमाइशी गुस्सा था, और जबानी तूफान उठा कर जमाना बदलने का जोश क्षतिपूर्ति का काम करता और आत्मग्लानि से बचाता था, क्योंकि उनकी जीवनशैली और आय के साधन वही थे जिनके कारण ये परिस्थितियां पैदा होती हैं।

ऐसी स्थिति में प्रश्न यह है कि क्या भारतीय कम्युनिज्म ने यह मान लिया कि भारत में जनवादी क्रांति करने से अधिक आसान और अधिक उचित विकल्प इस्लामी मूल्यों का अनुमोदन है जिससे समर्थन के लिए पूरा मुस्लिम समुदाय मिल जाएगा, और मजहबी कारणों से यदि कोई हिचक है तो उसे हिंदुओं की भर्त्सना से पूरा किया जा सकता है।

भारतीय कम्युनिज्म आकाशबेलि की तरह आया, उसने जमीनी स्तर पर न काम किया न भारतीय यथार्थ को समझा, इसलिए पहले से किन्हीं कारणों से एकत्र समूहों को किसी भी कीमत पर हथियाने का प्रयत्न करता और उन्हें विषाक्त बनाता और दूसरों के उपयोग के लिए छोड़ता रहा है, वे मुसलमान हों, मिल मजदूर हों, या छात्र। यह विकल्प आकर्षक तो लगता है पर यह इतना इकहरा है कि इस पर विश्वास नहीं होता।

मैं इसे समझना चाहता हूं । क्या कोई समझा सकता है कि प्लेबीसाइट के समर्थन को अपनी चूक मानने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने आगे भी लगातार पश्चगामी मुस्लिम कट्टरवाद को ही अपना मुख्य कार्यभार क्यों बनाए रखा। मुसलमानों का हित तो उस मार्ग पर बढ़ने में था जिसे सर सैयद ने दिखाया था। यह यदि इकबाल का प्रभाव नहीं तो किसका प्रभाव है कि आर्थिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील मुस्लिम युवक भी कट्टरता का रास्ता अपना लेता है।

जहां हिंदुओं से उन्हें शिकायत थी, वहां भी वह हिंदुओं के अहित की बात सोच नहीं सकते थे, मुसलमानों का अहित करना नहीं चाहते थे, परंतु जो कुछ सोच और समझा रहे थे उससे हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का अहित हो रहा था।