भले लोगों का बुरा हो कि वे भले क्यों हैं
किसी भी समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसका प्रतिनिधि होता है। जिसने उस समाज के केवल एक व्यक्ति को देखा वह उसके आचरण के माध्यम से ही उस पूरे समाज को देखने को बाध्य होगा। जिस समाज में विरोधी गुणों विचारों और कार्यों वाले लोगों की संख्या अधिक हो वहां तय करना कठिन हो जाता है उसका कौन सा तबका उसका सही प्रतिनिधित्व करता है। कोई भी समाज एकपिंडीय नहीं होता। जड़ पदार्थों तक में प्राकृतिक रूप में किसी भी तत्व की प्रधानता हो सकती है परंतु अनेक दूसरे तत्व मिले होते हैं, जिन को अलग करने के बाद उसे शुद्ध रूप में पाया जाता है। इसलिए किसी भी पूरे समाज को उसके किन्हीं तत्वों, या प्रवृत्तियों को आधार बनाकर अच्छा या बुरा सिद्ध करना गलत है।
यूरोप के ईसाई स्पर्धा में कमजोर सिद्ध होने के कारण यहूदियों से नफरत करते थे। इसके लिए उन्हें अपनी पुराणकथाओं से नफरत का आधार भी मिल जाता था। यहूदी लोभी होता है, पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है, उसने अपने मसीहा से भी विश्वासघात करते हुए उसे चंद सिक्कों के लिए शत्रुओं के हाथ में दे दिया। यह कहानी ईसाईयों ने गढ़ी थी। ईसा स्वयं यहूदी थे। उनके शिष्य यहूदी थे। यदि एक नया मजहब प्रचारित प्रसारित करने के कारण वह यहूदियों से अलग थे, पहले ईसाई थे, तो उनके वे शिष्य भी ईसाई थे। ईसा मसीह के साथ विश्वासघात यहूदियों ने नहीं, उनके विश्वास में दीक्षित ईसाईयों ने किया था।
संख्या में कम होने के बाद भी ईसाईयों से यहूदी अपने सांस्कृतिक कारणों से आगे पड़ते थे। कला, कौशल हो या व्यापार हो या ज्ञान-विज्ञान हो या दर्शन, किसी भी मामले में ईसाई यहूदियों के सामने ओछे दिखाई देते हैं। यूरोप को विश्व का सिरमौर बनाने में ईसाइयों से अधिक यहूदियों का हाथ है। अपने हीनता बोध के कारण उन्होंने आत्मरक्षा तंत्र (defense mechanism) के चलते उनसे घृणा करने का रास्ता अपनाया। इस हीनभावना ने यहूदीद्रोह (antisemetism) को जन्म दिया। हिटलर यहूदीद्रोह के लिए कुख्यात है, क्योंकि उसने उस घृणा को जो पूरे यूरोप के ईसाई समुदाय में व्याप्त थी, अपनी राजनीतिक जरूरतों के कारण, पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया, परंतु इससे, उसे अपराधी सिद्ध करके अपनी रक्षा करने वालों का अपराध कम नहीं होता।
किसी भी समाज को एक सिरे से किसी खाने में बंद करके देखना अपराध है। यूरोप जो यहूदीद्रोह का जनक था, वह आज इसे निंदनीय समझता है। इसके बाद भी यहूदीद्रोह अमेरिकी समाज में भी, जिसने मानवता का प्रथम उद्घोष किया था, बना रहा है और सोवियत संघ, जो नस्ल और मजहब से ऊपर उठ कर साम्यवाद का सपना दिखाते हुए, अस्तित्व में आया था, उसमें भी काम करता रहा।
यहां मैं न तो अमेरिका की निंदा करने के लिए यह बात कह रहा हूं न ही सोवियत संघ को अपराधी सिद्ध करने के लिए इसे उसके साथ जोड़ रहा हूं। मनुष्य का स्वभाव भौतिक और वैचारिक सीमाओं से आगे जाता है, इसे हम अपने यहां भी, उन लोगों में भी, जो वर्णवाद के विरोधी हैं, वर्णवादी प्रवृत्तियों के अवशेष के रूप में देख सकते हैं। लंबे अभ्यास के, बाद अवचेतन का हिस्सा बन चुके पूर्वाग्रह प्रयत्न करने के बाद भी आसानी से नहीं जाते। इसे समाज में परिवर्तन लाने को व्यग्र आंदोलनकारी नहीं समझ पाते। निरे उत्साह से उमड़ने वाले आंदोलनों में विचार और संतुलित दृष्टि का अभाव होता है। इसके कारण ही वे प्रायः अपने लक्ष्य के विपरीत प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं। समस्या के समाधान को अधिक दुष्कर भी बनाते हैं। किसी पर अपराधी की मुहर लगाना आसान है, अपराध से मुक्ति का रास्ता निकालना बहुत धैर्य, और संतुलन की मांग करता है। इस मामले में दुनिया के सभी समाज इतिहास की परीक्षा में फेल हुए हैं।
किसी भी समाज को काले या सफेद रंग में रंग कर देखना, उसे फूटी आंख से देखने जैसा है। उसे अच्छा या बुरा कहने की जगह, इस बात पर ध्यान देना अधिक जरूरी है कि वह जो कुछ बना है वह किन परिस्थितियों में, किन कारणों से, बना है? उनको सुधरने में कितने प्रयत्न और कितने समय की जरूरत पड़ सकती है? बीमारी दवा से दूर हो सकती है, पर उससे पैदा हुई दुर्बलता दूर होने में समय, सावधानी और संयम तीनों की जरूरत होती है। इनमें से किसी की भी कमी जानलेवा हो सकती है। राजनीतिज्ञों से मुझे इसलिए डर लगता है कि वे, यदि उनका इरादा सही हो तो भी, जल्द से जल्द परिणाम चाहते हैं और इस जल्दबाजी के कारण न्याय के लिए खड़े होने वाले आंदोलनों द्वारा स्वयं जितना अन्याय किया जाता है उसका वजन प्रायः अपराधियों द्वारा किए गए समस्त कुकृत्य से अधिक पड़ता है। बीज डालते ही फल की कामना करने वाले, अधिक खाद, अधिक पानी देकर बीज को भी सड़ा सकते हैं ,परंतु मनचाहा फल नहीं पा सकते। राजनीतिज्ञों की बदहवासी दूर करने के लिए बुद्धिजीवियों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वही बता सकते हैं, कि कितनी खाद, कितना पानी, कितना धैर्य, और कितना समय फलागम के लिए जरूरी होता है। यही कारण है राजनीति से जुड़ने वाले बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों के चापलूस बन कर रह जाते हैं, वे अपने क्षेत्र के की मर्यादा में रहकर राजनीतिज्ञों को सही दिशा दिखाने का काम नहीं कर पाते।
इस बात का ध्यान बहुत कम लोग रख पाते हैं कि एक कट्टर मुसलमान, वर्ण की श्रेष्ठता में विश्वास करने वाला ब्राह्मण और एक नस्लवादी गोरे में गहरी समानता होती है फिर भी अपने ही समाज के दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा ये ही एक दूसरे से अधिक नफरत करते हैं, परंतु मैं इनमें से किसी को दंड या आतंक से न तो सुधारने का पक्षधर हूं न ही इस तरह किसी को सुधारा जा सकता है।
परंतु इस बोध के अभाव में यदि हम यह न समझ सकें किसके साथ हमें कैसे बर्ताव करना है, तो हम आत्मघाती तो सिद्ध हो सकते हैं, तत्वदर्शी नहीं। 19वीं शताब्दी के इतिहासकार एलफिंस्टन ने राजपूतों और मराठों के बीच अंतर बताते हुए कहा था, A Rajput Warrior, as long as he does not dishonour his race, seems almost indifferent to the result of any contest he is engaged in. A Maratha thinks of nothing but the result. and cares little for the means if he can attain his object.” इस पर अपनी ओर से टिप्पणी करते हुए अब्राहम इराली की टिप्पणी है For the Rajput, war was an end in itself, for the Maratha it was only a means. Rajput played the game, Marathas played to win. (The Mughal Throne,2004, p.435)
जब मैं फेसबुक पर दक्षिण वाम की नोक झोंक में एक दूसरे पर अपने अपने सड़े अंडे फेंकते देखता हूं तो दोनों में काफी समानता दिखाई देती है। उद्देश्य में भी काफी समानता। दोनों अपने अपने तरीके से हिंदू मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं। एक राजपूतों की तरह, दूसरा मराठों की तरह। एक केसरिया बाने की चमक जौहर की कहानियां विरासत में सौंपते हुए अदृश्य हो गए, दूसरे किसी भी कीमत पर सफलता चाहते हैं क्योंकि सही और गलत का अंतिम फैसला सफलता से ही तय होता है। यह भी संयोग ही है कि दक्षिणपंथ की जन्मस्थली और राजधानी, दोनों मराठों की भूमि से ही संबंध रखते हैं।
हमने अपनी बात यहूदियों से इसलिए आरंभ की थी कि भारतीय सन्दर्भ मे, एक हजार साल यातना और अधोगति झेलने के बाद भी, हिंदुओं की भूमिका ठीक वही रही है जो यहूदियों की। ज्ञान, विज्ञान, कर्मठता, उद्योग, व्यापार, जीवनादर्श, सहिष्णुता सभी में अग्रणी रहे। यह मैं अपनी ओर से डींग हांकने के लिए नहीं कह रहा हूं। यह दो परस्पर उल्टी सोच वाले अग्रणी मुस्लिम नेताओं सर सैयद अहमद और अल्लामा इकबाल का कथन है। आधुनिक शिक्षा आदि के मामले मे हिंदुओं की अग्रता का रोना रोने के बाद सर सैयद कहते है:
In the whole nation there is no person who is equal to the Hindus in fitness for the work. (1887, लखनऊ)
Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour. The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. …But to make friendship with the Bengalis in their mischievous political proposals, and join in them, can bring only harm. If my nation follow my advice they will draw benefit from trade and education. Otherwise, remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters. (1888, मेरठ)
उनकी ही स्वीकृति के अनुसार कट्टरता को ढाल बनाने वाले मुसलमानों की उत्पादक क्षमता नगण्य रही है। तलवारबाजी और रंगबाजी के अतिरिक्त उनकी कोई भूमिका नहीं। वे केवल अशांति पैदा कर सकते हैं। उनमें कामकाजी लोग किन्हीं परिस्थितियों में इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य हुए हिन्दू ही रहे हैं।
अल्लामा इकबाल के अनुसार
The Hindus, though ahead of us in almost all respects, have not yet been able to achieve the kind of homogeneity which is necessary for a nation, and which Islam has given you as a free gift. पूर्व. 26
यदि उक्त कथनों से बात समझ में न आती हो तो इस उदाहरण से समझें कि विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रदेश माना जाता था। नहरों की सुविधा के बाद पंजाब का भी वही हाल हो गया था। फिर भी बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों की आर्थिक दुर्दशा का कारण यह है कि वहां हिन्दू नहीं रह गया।
यह विचित्र संयोग है कि सभी दृष्टियों से अग्रता के बावजूद हिंदू के साथ भारत में ठीक वैसा ही नजरिया अपनाया जाता रहा जैसा यूरोप में यहूदियों के साथ। हिंदू शब्द, उसके संस्कृति का प्रतीक, मूल्य व्यवस्था अभी का उपहास किया जाता रहा। जो अपने खुराफाती होने पर गर्व करते हैं उनकी ऐसी आदतों विचारों और विश्वासों के तोष के लिए जिससे उनका भी अहित होना है, और होता रहा है, उल्टे हिंदू समाज को दोष दिया जाता रहा है।