Post – 2018-12-30

चले कहां को, देखिए तो कहां ठहरे हैं

(मैं चाहता था सांप्रदायिक भेदभाव के बीच सबके लिए सम्मानजनक जीवन निर्वाह का क्या आधार हो सकता है, इस पर विचार करूँ। अपनी बात समझाने के क्रम में फैलाव ऐसा हो गया कि बीच में ही रुक जाना पड़ा और जो शीर्षक चुना था उसे भी बदल कर इस रूप में रखना पड़ा, जिस रूप में आप इसे ऊपर देख रहे हैं।)

कांग्रेस ने जिस राष्ट्रवाद को अपनाया था, वह पश्चिमी राष्ट्रवाद नहीं था। उसकी जड़ें भारतीय जन-मानस में थीं। अनेक भाषाओं, अनेक राज्यों और राजाओं, खानपान की अनेक रीतियों, अनेक धर्मों, विश्वासों, परंपराओं, दर्शनों के बावजूद हिमालय से कन्याकुमारी तक एक देश की कल्पना और इससे गहरे जुड़ाव की भावना पश्चिमी जनों और पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को चकित करती हैं। एक अनपढ़ भारतीय को यह इतनी वास्तविक लगती है कि वह इस बात पर चकित होता है कि कोई इसे अविश्वसनीय मान सकता है।

एकता की यह भावना, आजीवन अपने गांव जवार में ही सिमटे रह जाने वाले अनपढ़ या मात्र साक्षर में कैसे पैदा हुई, इसे दोनों में से कोई नहीं जानता। पहले को जानने की जरूरत नहीं, जो प्रत्यक्ष है, वह है। इस पर इतना सर क्यों खपाना? दूसरे को जानने की जरूरत तो है, परंतु वह सभ्यता के निर्माणकाल को इतनी छोटी सीमा में रखकर देखना चाहता है कि इस रहस्य को समझ ही नहीं सकता। पश्चिमी कूटनीतिज्ञों को यह एकता माया, या आभासी लगती रही है और वे इसे रेत का ऐसा ढूह समझते रहे हैं जो तेज हवा से बिखर सकता है। यही मानकर वे अपनी कूटनीति करते रहे।

उनके इतिहासकारों को भी यह पता नहीं था कि कितने अंधड़ और तूफान सहने के बाद भी यह ज्यों का त्यों बना हुआ है। अपनी आशा के विपरीत वे पाते रहे हैं कि आपसी रगड़-झगड़ के बाद भी बाहरी आघात होने के क्षणों में यह एक महाशक्ति के रूप में तन कर खड़ा हो जाता है; कुछ न कर पाने की दशा में आहत अनुभव करता है। चोट कहीं लगे, दर्द की अनुभूति तेज कहीं भी हो, इसकी चेतना और सिहरन पूरी काया में अनुभव की जाती है।

इसका रहस्य क्या है, इसे न तो पश्चिमी विद्वान समझ सके, न भारतीय राजनीतिज्ञ। उन्होंने इसे विविधता में एकता की कामचलाऊ संज्ञा दी । यह संज्ञा सर्वप्रथम रिजले ने दी थी, जिसे भारतीय पंडित दुहराते रहे, परंतु यह समझने का प्रयास नहीं किया कि भारत में ही विविधता में यह एकता कैसे स्थापित हो पाई। अन्य देशों की विविधताओं के बीच ऐसी एकता क्यों नहीं स्थापित हुई?

यदि अपनी कल्पना शक्ति का सर्जनात्मक उपयोग करते, तो यह समझ जाते की इस्लाम के विस्तार के साथ, पूरे ईसाई जगत में ऐसी ही एकात्मता की अनुभूति पैदा हुई थी। यह सच है भारत में मजहब की वह एकता भी नहीं थी। यहां तो एक ही घर में एक वैष्णव और दूसरा शाक्त हो सकता था, एक हिंदू और दूसरा जैन हो सकता था, एक परिवार हिंदू और उसका बड़ा बेटा सिख हो सकता था। क्या यह देव समाज की साझी विरासत थी? इस पर किसी ने गौर नहीं किया। इसके साथ फिर वही समस्या सामने आ जाती थी कि यह साझा कैसे पैदा हुआ?

इसे हम उस आदिम अवस्था मैं लौट कर ही समझ सकते हैं जब भारतवर्ष में विचरने वाले समुदाय पर्वतीय और समुद्री बाधाओं के भीतर आहार और शिकार के लिए पूरे क्षेत्र में विचरण करते और प्राकृतिक उत्पादों की प्रचुरता के दिनों में किन्हीं क्षेत्रों में, आसानी से पहचाने जा सकने वाले, निश्चित स्थानों पर – नदी के संगम, उद्गम, मुहाने या किसी विशाल सरोवर के निकट, या समुद्र तट पर विशिष्ट पहचान वाले स्थलों पर समागम किया करते थे। यही आगे चलकर तीर्थ स्थानों के रूप में समादृत हुए। मोटे तौर पर पूरा देश उनका परिक्रमा क्षेत्र था। इसकी नदियों पहाड़ों को छोड़कर भूभाग की अलग पहचान न थी।

इसी का परिणाम है, सभी भाषाओं में, किसी न किसी रूप में, दूसरे सभी के तत्वों का पाया जाना।

मैं इस बात को कुछ स्पष्ट कर दूँ।

संस्कृत में, ‘एक’ के लिए, ‘एक’ का प्रयोग होता है। बहुत पहले, इसके लिए ‘ऊन’ का प्रयोग होता था। इससे पहले उनका ‘ऊ’ प्रयोग दूर के लिए, बड़े के लिए, व्यापक के लिए प्रयुक्त होता था। और इसके ठीक विपरीत ‘ई’ का प्रयोग. निकट के लिए, यहां के लिए लघु के लिए होता था। ‘ऊन’ का अर्थ था ऊ-न, वह जो व्यापक नहीं है, बड़ा नहीं है, अर्थात् छोटा है और इसी तरह से यह संख्याओं में सबसे छोटी संख्या ‘एक’ के लिए प्रयोग में आता था।

काफी विश्वास के साथ यह बात करने के बाद भी यह निवेदन करना बाकी रह जाता है कि मैं स्वयं यह नहीं कह सकता कि यह स्वर ‘ऊ’ था या ‘ओ’ । ‘ऊ’ में ‘न’ जुड़ने के बाद ‘ऊन’ बना जो यूनुस, यूनिट, यूनियन आदि में बचा हुआ है या ‘ओ’ में ‘न’ जुड़ने के बाद ‘ओन’ जो अंग्रेजी के ‘वन’, तमिल से ‘ओन्र’ में बचा हुआ है, या ‘ओ’ में ‘म’ जुड़ने के बाद ‘ओम’ में जिसका उच्चारण अ+ऊ+म के संपृक्त उच्चारण, अर्थात् एक अक्षर के रूप में, ‘ऊँ’ के रूप में होता था – ‘ओम इत्येकाक्षरं विद्धि’।

इसी से एक ओर ‘ऊन’, दूसरी ओर ‘ओं’, तीसरी ओर ओन्र और चौथी ओर ‘ओन’ (onorous, onimid) रूढ़ हुए। अर्थ सबका एक ही, एक, अनन्य, सर्वोपरि, और सबसे छोटा। सबसे छोटा इसलिए कि तब तक (0) की कल्पना नहीं हुई थी। कम और सबसे छोटा का अर्थ एक ही था।

एक दूसरा शब्द है, पद, जिस के इतिहास में हम नहीं जाना चाहेंगे। पर इतना बताना जरूरी है कि इसका एक अर्थ सर्वोपरि, सबसे बड़ा, हुआ करता था जो गीता के ‘पदवी कवीनां’ और हमारे व्यवहार के ‘पद’ और ‘पदवी’ मे बचा हुआ है।

गणना के आदिम चरणों पर सबसे बड़ी संख्या के रूप में कभी ‘त्री’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘चार’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘पांच’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘सस्’ / ‘षष्ट’ का प्रयोग हुआ, फिर ‘सत्त/ सप्त’ का प्रयोग हुआ, फिर आठ/ ‘अष्ट’ का प्रयोग हुआ और अंतत: ‘*तस/दस’ का प्रयोग हुआ। 8 और 10 के बीच इससे काम नहीं चल रहा था, इसलिए संस्कृत में ‘नौ/नव’ का प्रयोग हुआ जिस का अर्थ था नया यद्यपि या 10 की संकल्पना के बाद पैदा हुआ था। हम इनके विस्तार में नहीं जाएंगे, पर यह याद दिलाना चाहेंगे कि पद अर्थात् 10, इसी का द्योतक है।

अब तमिल के ओन्बदु (ऊन+पदु) = नव और संस्कृत के/हिंदी के भी ऊनविंशति/ उन्नीस और इसी क्रम में ऊपर की संख्याओं पर ध्यान दें तो शब्द विकास और अर्थविकास की अंतर्धारा को समझ पाएंगे जो आर्य और द्रविड़ दोनों में प्रवाहित है। इसी से हम उस अंतःसूत्र को पहचान सकते हैं जिससे भारतीयता का निर्माण हुआ है।

इसी क्रम में वे जीवन मूल्य विकसित हुए थे जिन्हें हम भारतीय मूल्य-प्रणाली का अंग कह सकते हैं। अन्य भिन्नताओं के होते हुए यही वे सर्वनिष्ठ सांस्कृतिक सूत्र रहे हैं जो पृथक दीखने वाले मनकों को एक में भी पिरोते हुए वैजयंती माला को अदृश्य रूप में भारतीयों के गले का हार बनाए रहे और जिनसे इसे यह शक्ति मिली कि वह अपने से भिन्न मूल्यों, मानो, रीतियों और विश्वासों का सम्मान कर सके। भारत की राष्ट्रीयता की आत्मा यही है। बाद में, स्थायी बस्ती बसने के बाद विकास के एक स्तर पर अलग अलग संवर्तों की सृष्टि हुई और उनके निवासी अपने अपने आवर्त से बाहर जाना अनिष्टकर मानने लगे।

आर्यावर्त का निवासी यदि तीर्थ को छोड़कर किसी अन्य प्रयोजन से उससे बाहर जाता है तो भ्रष्ट हो जाता है, परंतु यदि वहां से उसका कोई संबंध ही नहीं था, तो उसके तीर्थ उन क्षेत्रों में कैसे पड़ गए? यही वह सूत्र है जो हमे इतिहास की सुदूरतम अवस्था तक ले जाता है।

इसे आप हिंदुत्व कह सकते हैं, भारतीयता कह सकते हैं, और यह समझ सकते हैं कि अपनी ओर से किसी को अपना बनाए बिना समय-समय पर किसी भी रूप में आने वालों को यह कैसे आत्मसात करता रहा है। केवल इस्लाम को जिसके जन्म के साथ ही युयुत्सा और गृहकलह जुड़ा हुआ है, जो किसी का न हुआ, एक ही ग्रंथ में विश्वास रखने वालों को भी जोड़ कर नहीं रख सकता, उसके भारत में आने से यह प्रक्रिया बाधित हुई तो हैरानी की बात नहीं।