Post – 2018-12-24

ऐसी मूढ़ता या मन की
(संपादित)

सामी मजहब कबीलाई मजहब है । इस्लाम में कबीलाई संस्कार अधिक प्रबल रहे हैं। कबीलाई व्यवस्था में भाईचारा होता है। सरदार को छोड़ कर सभी लोगों की स्थिति एक समान होती है। सरदार का चुनाव सबकी सहमति से होता है, इसे हम कबीलाई लोकतंत्र कह सकते हैं। इकबाल इसे मुस्लिम लोकतंत्र (Muslim Democracy) कहते थे। यदि सरदारी के दावेदार एक से अधिक हुए, और जनमत से कोई निर्णय नहीं हो सका फैसला तलवार के बल पर होता है।( “When the tribe was equally divided between two leaders, the rival sections separated from each other until one of the candidates relinquished his claim; otherwise the sword was appealed to.” Political Thought in Islam. op.cit.138)

इस्लाम के विस्तार में तलवार की भूमिका प्रधान रही है (The life of early Muslims was a life of conquest. Their whole energy was devoted to political expansion which tends to concentrate political power in fewer hands; and thus serves as an unconscious handmaid of despotism.) तलवार की ताकत लूटपाट की छूट ( माल ए गनीमत), से पैदा होती रही है। लुटेरों और तस्करों का एक छोटा सा जत्था भी इतना उपद्रव मचा सकता है कि उन्नत समाजों की फौज और पुलिस भी परेशान हो जाए पर उन्हें काबू में न कर सके। लुटेरों के साथ फिर भी एक कमी होती है, वे जानते हैं कि वे अपराध कर रहे हैं, समाज की नजर में गिरे हुए हैं। यदि लूट और हिंसा को मजहब का समर्थन मिल जाए, ऐसे कुकर्मों को महिमामंडित किया जाने लगे तो ऐसे जत्थों का आकार और मनोबल दोनों बढ़ जाता है और दुर्दांतता कल्पनातीत हो जाती है। जघन्य क्रूरता का प्रदर्शन गौरव का विषय बन जाता है।

लुटरों और तस्करों की उत्पादकता शून्य होती है, और इनकी लूटपाट के कारण उत्पादक समाजों की उत्पादकता बाधित होती है। कबीलाई अर्थव्यवस्था में अन्यथा भी संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होती। लूटो, छीनो, मौज करो, बर्वादी का भोंड़ा प्रदर्शन करो और जब हाथ खाली हो जाए तो फिर जान पर खेल कर लूट-पाट में लग जाओ। इन कारणों से मानवता के आर्थिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक उत्थान में इस्लाम की भूमिका नकारात्मक रही है और इसका चरित्र सभ्यताद्रोही रहा है।

इस नियम का अपवाद वह दौर था जब दूरदर्शी अब्बासी खलीफाओं या अन्यत्र किसी साहसी शासक के हस्तक्षेप से इसकी कट्टरता में कमी आई और स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा मिला। तलवार तब भी म्यान में नहीं लौटी थी पर अब्बासी खलीफाओं ने देश-विदेश के विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उनको अपूर्व सम्मान और सुख सुविधा देकर उनके ज्ञान, विज्ञान, दर्शन का अरबी में अनुवाद कराया और तकनीकी कौशल को अपनाया। इसमें प्रमुख भूमिका ईरान और उसके माध्यम से ग्रीस और रोम की तथा भारत की थी। सैद्धांतिक ज्ञान के मामले में चीन का योगदान नगण्य था जब कि भारत का प्रधान – गणित, ज्यामिति, ज्योतिर्विज्ञान, रसायन, चिकित्सा, शल्यचिकित्सा- योगदान था, पर चीन से चरखा, कागज भारत बहुत बाद तक न अपना सका जब कि अरबों ने इसे अपना लिया था। यूनान और रोम के ज्ञान के रक्षक उस दौर में जब पोप इंनोसेंट प्रथम के ज्ञानद्रोही, बहुदेववाद द्रोही, कलाद्रोही अभियान में विद्वानों, चिंतकों का संहार और उत्पीड़न आरंभ हुआ तो अपनी प्राणरक्षा के लिए सासानी शासकों की शरण में आ गए। यूनानी और रोमन ज्ञान विज्ञान उनके संरक्षण में स्थापित केंद्रों में पलता रहा था। इसलिए अरबी चिंतकों मे ईरानी मूल के चिंतकों की संख्या अधिक प्रभावशाली रही है। इन दो प्रमुख प्रभावों के अतिरिक्त दूसरे सभी सुलभ स्रोतों – मिस्री, ईसाई आदि – काे भी उसी आदर से अपनाया गया था। यह अरब संस्कृति का स्वर्ण काल था। विश्व सभ्यता की शिरो रेखा अरब संस्कृति थी। विश्व का अधिकतम ज्ञान अरबों के पास था। सभ्यता का मुकुट अरबों के सिर पर था।

आप यदि मुसलमान हैं तो आप खीझ सकते हैं कि इसे सीधे इस्लामी या मुस्लिम सभ्यता क्यों नहीं कहते? ऐसा इसलिए नहीं कहता कि इस्लाम भक्ति भावना का संप्रदाय है। तर्क के लिए इसमें जगह नहीं है। अब्बासी खलीफों ने किताब के भीतर घुसने की जगह किताब में से उन बिंदुओं को पहचानने का प्रयास किया जो किताब से बाहर, दूसरी किताबों और विचारों की ओर ले जाते हैं। यदि यह सच है कि मोहम्मद साहब ने कहा थाी ज्ञान यदि चीन से भी हासिल हो उसे हासिल करना चाहिए। उस समय चीन अरबों के ज्ञात जगत में सबसे दूर था।

अब्बासी खलीफों ने कुरान और हदीस के ऐसे ही संकेतों का उपयोग करते हुए, किताब से बाहर का रास्ता निकाला। हिन्द्स्तानी मुसलमानों में ऐसे ही विद्वान हुए हैं जो एक ओर अरबी सभ्यता पर गर्व करते रहे हैं और दूसरी ओर किताब में वापस जाने की वकालत करते रहे हैं। दुर्भाग्य से इकबाल ऐसे ही लोगों में आते हैं।

अरबी संस्कृति किताब से बाहर निकलने की कोशिश है इस्लाम किताब में बंद होने का प्रयास है। इस्लाम और ईसाइयत का तंत्र ज्ञान-विरोधी, और सभ्यता द्रोही है। वह अरब संस्कृति जिस पर कोई मुसलमान गर्व कर सकता है वह किताबों से बाहर जाने का संघर्ष है , विश्व की अन्य किताबों और ग्रंथागारों तक पहुंचने का प्रयास है। किताब जलाने वाले पुस्तकालय जलाने वाले ज्ञान के केंद्रों को नष्ट करने वाले, अरब संस्कृति को नहीं समझ सकते।

अरब संस्कृति का विनाश करने वाले मंगोल थे जिन्होंने खलीफाओं के साम्राज्य का नाश कर दिया था। सामरिक विजय के बाद भी धार्मिक रूप में वे उनसे पराजित हुए थे और इस्लाम कबूल कर लिया था।

भारत पर जिन मुसलमानों ने आक्रमण किया था या जिनके प्रभाव में अफगानों ने हमले किए थे वे उन्हीं तुर्कों और मंगोलों की संस्कृति से प्रभावित थे जिनके हस्तक्षेप से अरब संस्कृति पराभव का शिकार हुई। कबीलाई किताब अरबों के स्वर्ण युग पर हावी हो गई। मुल्ले खलीफों पर भारी पड़े।

आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का जन्म, धर्मयुद्धों के दौरान अरब संस्कृति से परिचय से बाद उसका शिष्य बनकर प्राप्त शिक्षा से हुआ। उसी के माध्यम से उसने अपने यूनानी अतीत की भी खोज की और वर्तमान ऊर्जा को भी प्राप्त किया। सभ्यता की मसाल यूरोप को थमाकर उसे अंधकार युग से बाहर लाने वाला, यूरोप के नवजागरण का जन्मदाता, स्वयं उस अंधकार युग में लौट गया जिससे उसने यूरोप को बाहर निकाला था।

भारत हो या अरब या चीन, पश्चिम हमसे अलग नहीं है, वह हमारा वारिस है और अपनी विरासत को पाने के लिए उसका शिष्य बन कर उसी तरह उसकी उपलब्धियों को ग्रहण करना होगा जिस तरह शिष्य बन कर उसने पूर्व को आत्मसात करते हुए आधुनिक पश्चिम काे जन्म दिया था। पूरब पूरब है, पश्चिम पश्चिम, दोनों कभी मिल नहीं सकते, यह कविता है, पर सत्य नहीं। सत्य यह है कि पूर्व पश्चिम का जन्मदाता है, और उसे अपना नवजीवन प्राप्त करने के लिए पश्चिम का शिष्य बनना होगा। यह समझ एशिया के दूसरे सभी देशों में है, केवल इस्लामी जगत में नहीं है, क्योंकि वह अपने ही स्वर्ण युग की महिमा को भूल गया है। वह किताब में बंद होने को आतुर है, किताबों को जलाना तो उसके बस की बात नहीं, परंतु किताबों से कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं है। भारत पर भी अपनी किताब लादने की कोशिश के कारण इसका बौद्धिक पर्यावरण कितना प्रभावित हुआ है, यह तय करना कठिन है।