Post – 2016-12-26

इतिहास के पीछे इतिहास

”हम दुनिया के सबसे भले लोग हैं। भला कहाने का उससे अधिक चाव है । इसे आप हमारा भोलापन भी समझ सकते हैं। भोला का कुछ संबंध भूलने से भी है। जिन्‍हे देश दुनिया का पता न हो, अपने वर्तमान और इतिहास का पता न हो, जिममें किसी तरह की चालाकी न हो, उन अबोध शिशुओं और बच्‍चों के लिए हम भोला का प्रयोग करते हैं और करते हैं भोलानाथ के लिए जिनको भी इस नासमझी के लिए ही जाना जाता है। भोला व्‍यक्ति दूसरों की नजर में भला बने रहने के लिए उसकी इच्‍छा की पूर्ति करता हुआ गौरव अनुभव करता है। वह अपनी समस्‍याओं का सामना नहीं करना चाहता, या अपनी समस्‍या को अपनी भलमनसाहत की रक्षा की समस्‍या के रूप में देखता है । यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें जातीय अपमान को सहन करते हुए, अल्‍पतम संरक्षण को अपने सम्‍मान की बात समझा जाता है और अपमानित होने के बाद भी स्‍वामी के हित की चिन्‍ता से न डिगने को अपने गौरव की कसौटी माना जाता है। परंपरागत रूप में इसे स्‍वामिभक्ति कहा जाता रहा है जिसमें अपना मान सम्‍मान अपमान और उत्‍पीड़न कोई अर्थ नहीं रखता, सम्‍मान की कसौटी है स्‍वामी के अोदश, हित या नियोजित कार्य की सिद्धि
– मोहि न कछु बांधे कर लाजा । करन चहहुं निज प्रभु कर काजा । व्‍यक्ति इसमें निमित्‍त बन कर रह जाता है, या उसकी हैसियत औजार, या हथियार की हो जाती है। इसे अमानवीकरण की प्रक्रिया से जोड़ कर देखें तो चौंक उठेंगे यह सोच कर कि प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्‍यक्ति ही नहीं, पूरा समुदाय डिह्यूमनाइजेशन का शिकार होने के बाद भी अपने को दूसरों से अधिक उदार और समावेशी मानते हुए इस पर गर्व करता है। ज्ञान उसके पास होता है, परन्‍तु न वह आत्‍मज्ञान होता है, न ही इतिहासबोध, न वस्‍तुबोध। वह बौद्धिक रूप में अपने स्‍वामी या स्‍वामिवर्ग के समक्ष समर्पण कर देता है और अपनी जानकारी को उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति काे उचित सिद्ध करने पर लगाता है।”

शास्‍त्री जी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ”डाक्‍साब आज आप यह समझाने वाले थे कि यह हिन्‍दू द्रोह हिन्‍दुअों के भीतर कैसे पैदा हुआ और आप भले बुरे की मीमांसा आरंभ कर दी ।”

यह दासता का ऐसा रूप है जिसमें भला सिद्ध होने की उत्‍कंठा

”जब हम सभ्‍य हुए दुनिया बर्बरता की अवस्‍था में थी। जिन पुरानी सभ्‍यताओं को

इससे एक लालसा पैदा हुई कि हमें सभी बहुत अच्‍छा समझें और पैदा हुआ वह विश्‍ववाद या कहिए धरती का जितना भूगोल हमें पता था उसके प्रति एक मैत्री भाव, उसके कल्‍याण की चिन्‍ता, उसके साथ अपना और उन सबका भला सोचने और करने की एक लालसा। यह लालसा व्‍यक्तिनामों में विश्‍वामित्र, विश्‍वबन्‍धु, सु्न्‍धु, जैसे नामों में भी व्‍यक्‍त है और उन दिवस्‍पुत्रा अंगिरसा भवेम, कामनाओं में भी कि सभी कृषि, पशुपालन, बागबानी सीख कर सभ्‍य जीवन अपनाएं या आर्यव्रत धारण करें इसकी चिन्‍ता थी और उन मूल्‍यों के प्रसार का आवेश था जिसमें उनको लगता थ कि वे समस्‍त जगत में आर्यव्रत का प्रसार कर देंगे। आर्याव्रता विसृजन्‍त: अधिक्षमि । या कृण्‍वामो विश्‍वमार्यं का व्रत । परन्‍तु इससे एक ग्रन्थि भी पैदा हुई इसे यदि हिन्‍दी में कहें तो ‘मो सम और न कोय’ ग्रन्थि कहा जा सकता है जो अग्रणी समाजों में अपने अग्रता के दिनों में पाई जाती है। परन्‍तु हम अपने ह्रास के दिनों में दूसरी सभ्‍यताओं के कुछ आगे सथे

ास्‍त्री जी, इतिहास की विडंबना यह है कि इसे हमेशा बीच से आरंभ करना हाेेता है क्‍योंकि कोई घटना या क्रिया जहां हमेंं दिखाई देती है उसके पीछे ज्ञात और अज्ञात कार्यों और कारणों की एक लंबी शृखला होती है जिस पर ध्‍यान दें तो लगेगा दुनिया में कुछ भी ऐसा है ही नहीं जा नया हो । शेक्‍सपियर का वह वाक्‍य याद है न ‘दुनिया में कुछ भी नया नहीं है। नथिंग इज न्‍यू अंडर दि सन।

”मुझे अंडर दि सन का एक दूसरा मतलब समझ में आता है, जो दुनिया में नहीं, बल्कि ‘हमारी जानकारी में’ । जो भी हो , इससे फर्क नहीं पड़ता । यह एक पुरानी, बहुत पुरानी सूझ है जो वटबीज में वटवृक्ष की उपस्थिति से या पुरुष सूक्‍त की उस व्‍याख्‍या से जुडी है जिसमें सृष्टि के आदि में ही एक साथ सब कुछ के घटित हो जाने परन्‍तु हमारी दृष्टि में यथाक्रम आने के रूप में कल्पित है ।”
मैं हैरान हो कर शास्‍त्री जी को देखने लगा । इतनी पैनी दृष्टि की तो मैंने उनमें कल्‍पना ही न की थी।