अपना अपना इतिहास – 2
इतिहास की हमारी समझ अनन्तता से जुड़ी थी जिसमें मनुष्य का जीवन नगण्य था, समाज के अनुभव प्रधान थे और विचारों काेे वैभव और शक्ति प्रदर्शन से अधिक महत्व दिया जाता था। मनुष्य के एक वर्ष के बराबर देवों का एक दिन, हजार वर्षों के बराबर देवताओं का एक वर्ष। सौ देववर्षों का उनका जीवन। इस विराट काल और शक्ति और वैभव की तुच्छता का बोध उस कहानी में जिसमें चींटियों की पंक्ति को देख कर तत्व दर्शी कहता है ये सभी कभी इन्द्र रह चुके हैं। इसमें मनुष्य के कारनामों का क्या गुणगान । धर्म, आचरण, विचार स्थायी हैं और धन, वैभव, प्रताप क्षणभंगुर। यह सही था या गलत, था यही। इससे देवोपम राजाओं के जीवन को भी देववर्ष मान कर उसे पुन: मानववर्ष में बदल कर जब वे कहते हैं अमुक राजा साठ हजार साल तक जीवित रहे तो इससे न तो उस इतिहास का पता चलता है जिसे कालबद्ध इतिहास कहते हैं, न ही कालबद्ध इतिहासबोध उस गहनता और महिमा को समझ पाता है जो हमारे अतीतबोध में रहा है।
एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाएं, मनुष्य के जीवन को इतिहास से न तो प्रेरणा मिली, न ही इतिहास से मनुष्य कुछ सीख सका है। मनुष्य के जीवन को प्रेरित और नियन्त्रित करने का काम पुराणकथाएं करती हैं। यह सभी पन्थों और विचारधाराओं के लिए सही है, इसलिए विचारधाराएं अपना अलग पुराण गढ़ लिया करती हैं जिससे उससे जुड़े या प्रभावित लोगों को बांध कर रखने में मदद मिलती है।
कालांकित घटनावृत्त जिसे हम इतिहास कहते हैं, उससे हमारे शिक्षित समाज का परिचय उस समय हुआ जब उसका उपहास करने और नष्ट करने का आयोजन इसलिए किया जा रहा था कि इसके समक्ष पश्चिम का नस्लवादी और सनातन श्रेष्ठताबोध चूर चूर हो जाता था। इतिहास हमारे यहां अहमहमिका औजार बन कर आया और इसने सामाजिक जीवन को उससे अधिक विषाक्त किया जितना वह अपनी आन्तरिक व्यवस्था, कुरीतियों और अन्धविश्वासों के कारण इससे पहले था। इसका उपयोग उन लोगों ने जो भारत की खोज कर रहे थे – इसकी खनिज संपदा का, इसके प्राकृतिक उत्पादों का, इसकी प्रतिरोध क्षमता का, इसकी प्रेरणा के स्रोतों का – यदि अपने हितों के लिए किया तो इससे अलग वे कुछ कर ही नहीं सकते थे। हम इस विषय में सचेत नहीं हुए आैर उनकी इन खोजों के इरादे को नहीं समझ सके तो यह इस बात का प्रमाण है कि जिस समय हमारा पश्चिम से आमना-साहना हुआ हम सभी दृष्टियों से उनसे बहुत पीछे जा चुके थे और उनका सामना करने की स्थिति में नहीं थे।
स्वतन्त्र होने पर भी हमने उनके ही इतिहासदर्शन का अनुसरण किया और आलंकारिक असहमति प्रकट की, बुनियादी प्रश्नों पर उनके ही जाल में फंसे रहेे, यह दुर्भाग्यपूर्ण था, परन्तु इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह तथ्य था कि भिन्न कारणों, प्रलोभनों और आग्रहों से जब उनके रचे हुए मायाजाल को तोड़ने वाली, तर्कपूर्ण, प्रामाणिक और मुक्तिदायिनी व्याख्यायें आई तो उन्हें समझने की जगह उनका विरोध करते हुए उसी बौद्धिक दासता को इतना श्लाघ्य बना दिया गया कि मुक्ति की आकांक्षा तक गर्हित प्रतीत होती है।
हम इस क्रम में उस ग्रन्थि केे निर्माण की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं जिसमें हिन्दू अभिज्ञान को ही इतना गर्हित बना दिया गया कि इसके सिवाय कुछ भी, स्वीकार्य है, यह नहींं। भाजपा शासन न तो अपने राज्यों में किसी अन्य दल के प्रशासन से गया बीता रहा है, न केन्द्र में जब भी उसे शासन का अवसर मिला तब उसने किसी वर्ग, समुदाय, और समग्र राष्ट्र के हित की दृष्टि से किसी भी अन्य के किसी भी काल के शासन से घटिया परिणाम नहीं दिए, फिर भी यदि उसके सिवाय कोई भी, कैसा भी, भ्रष्ट, दुष्ट, गुंडा और लफंगा शासन भी हमें स्वीकार्य है, परन्तु यह नहीं, जिसके साथ किसी भी रूप में हिन्दू शब्द जुड़ गया है। हम अपना सत्यानाश करा सकते हैं, आततायियों के साथ खड़े हो सकते हैं, इसे मिटाने के लिए शत्रु देशों तक की मदद ले और उसकी योजना का अंग बन सकते हैं, परन्तु इसे सहन नहीं कर सकते, यह किसकी सोच हो सकती है? देश और समाज का बुरा होता हो तो हो, हम इसके हाथों उसका भला होते नहीं देख सकते। यह किसकी सोच हो सकती है? जरा गौर से सोचें तो इस देश पर वोट बैंक बन कर प्राक्सी शासन किसका चलता रहा है तो आपको मेरे उन कथनों का कि कम्युनिस्ट पार्टियां और कांग्रेेस ही नहीं, वे पार्टियां भी जो सर्वजनहिताय, सर्वजनलाभाय को सेक्युलर प्रशासन का लक्ष्य मानती हैं और इस आदर्श का पालन करने को तत्पर एकमात्र दल का विरोध करते हुए ‘स्वहिताय, स्वलाभाय, वंशलाभाय संस्थिता, देशद्राेहाय, नाशाय, विघ्ाटनाय समुद्यता’ पार्टियों के साथ पूरा वाचाल वर्ग खड़ा हो जाता है तो उन सभी की भर्त्सना करने की जगह इसके कारण को समझना होगा कि हिन्दू शब्द को इतना गर्हित और असह्य कैसे बना दिया गया कि वे नरक में जाने को तैयार हो सकते हैं, परन्तु हिन्दू उपपद से जुडे़ किसी संगठन या दल या प्रशासन द्वारा तैयार किए जाने वाले या किए गए स्वर्ग में रहने को तैयार नहीं हैं और उस स्वर्ग की व्याख्या अपने ब्रेनपावर से ऐसी कर सकते हैं कि वह नरक का पर्याय लगे।
वजह तो कुछ न कुछ रही होगी, यूं ही कोई बेवफा तो नहीं होता। इतिहास की भूमिका बस यहीं तक सीमित है, कि यह इस वजह को समझने में सहायक हो सकता है, परन्तु तभी जब हम अपने इच्छित नतीजों के लिए अपनी अपव्याख्या से इसका ही सत्यानाश न कर दें।
अंग्रेजाेें को एक ही चिन्ता थी कि अपनी मूल भूमि से इतनी दूर इतने कम लोगों के बल पर इतने बड़े देश का नियन्त्रण कैसे किया जा सकता है । इस चिन्ता को बहुत सटीक रूप में मेकाले ने व्यक्त किया था। इसका एक ही तरीका था कि भारतीयों को प्रशासन में हिस्सेदार बनाया जाये। इतनी बड़ी संख्या में अंग्रेज लाये नहीं जा सकते न यहां बसाये जा सकते हैं, जहां वे अल्पमत बन कर रहेंगे, इसलिए अच्छा है कि भारतीयाेें को ही अंग्रेजी संस्थाओं, विचारों से परियच का अवसर दिया जाय, उन्हें ही अपनी भाषा सिखा कर अपने उपयोग के लिए तैयार किया जाय। और यहां से आरंभ हुई थी अंग्रेजी शिक्षा और उसके माध्यम से अवसरों की तलाश और उस प्रक्रिया में उन विचारों और विश्वासों को अपनी चेतना का अंग बनाना जो अपव्याख्या से हमारे उपभोग के लिए तैयार की गई थीं।
मैकाले का बहुत उपहास किया जाता है परन्तु मेरे मन में उसके प्रति बहुत सम्मान हैै – दो बातो के कारण। पहला यह कि उसने कहा था कि हमारी संस्थाओं से परिचित होने के बाद हो सकता है कि कभी वे हमसे स्वतन्त्र होने का प्रयत्न करें। यदि वे ऐसा करेंगे तो यह हमारे लिए गौरव की बात होगी । दूसरेे इसलिए कि उसने अपने शासन को स्थायी बनाने के लिए मिल के हथकंडों का समर्थन नहीं किया, बल्कि वह मिल के आलोचकों में था।
हम ऐंंटी सेमिटिज्म को जानते हैं, यह भी जानते हैं कि यह गलत था, यह जानते हैं कि आबादी के अनुपात में दर्शन, विज्ञान और पश्चिम के उत्थान में जितना योगदान यहूदियों का रहा है, उतना यूरोप के गोरों का नहीं, फिर भी केवल जर्मनी में ही नहीं, केवल बीसवीं शताब्दी में ही नहीं, पूरे यूरोप में और यहां तक कि सोवियत संघ में भी यहूदियों काे जघन्यतम माना जाता था और अपनी कूटनीतिक जरूरताेेें से अमेरिका भले यहूदियों का साथ दे, परन्तु अकेरिका भी छद्म रूप से उस मनोवृत्ति से बाहर नहीं आ सका है । मैं चकित हो कर सोचता हूं कि ऐसा क्यों हुआ, इतने बड़े पैमाने पर क्यों हुआ, यहूदियों के पक्ष में इतने तर्क होते हुए क्यों हुआ, तो इसका एक ही उत्तर मिलता है कि दुुष्प्रचार से कुछ भी किया जा सकता है। ईसा यहूदी थे। उनके अनुयायी यहूदी थे। र्इसा और क्रिस्ट या क्राइस्ट ईश और कृष्ण से आैर उनके जन्म से जुड़े पुुराण से पूर्व के बुद्धिमान मागियों का जो भी संबंध हो, इस पर और खोज होनी चाहिए, पर एक बार क्राइस्ट का अनुयायी बन चुके यहूदी भी क्रिश्चियन ही हुए न कि यहूदी रह गए। उन्होंने लोभ वश यदि रोमन राज्य के लिए संकट पैदा करने वाले क्राइस्ट के साथ विश्वासघात किया तो यह ईसाइयों का ईसा के साथ विश्वासघात था, परन्तु इसे ईसा के विरुद्ध यहूदियों के विश्वासघात के रूप में ईसाइयों द्वारा प्रचारित करते हुए इतना घृृणित बना कर दुहराया जाता रहा और पूरे ईसाई जगत में इतनी घृणा पैदा कर दी गई कि यहूदियों को दो हजार साल तक यहूदीद्रोह का शिकार होना पड़ा। यह भारत में भी बना हुआ है, इसलिए इस्राइल से किसी तरह का संपर्क क्षोभ पैदा करता है।
यह हमें इस रहस्य को समझने में भी सहायक हो सकता है कि हिन्दू शब्द और मूल्यव्यवस्था के प्रति वितृष्णा पैदा करने, उसके अहित को देश, समाज और मानवता का हित मान कर प्रचार करने वाले कौन थे और उनकी आकांक्षाओं को किसने किन कारणों से इस तरह आत्मसात् कर लिया कि हिन्दू शब्द ही जघन्यतम प्रतीत होने लगा और भाजपा को भी उसी का दंड भोगना पड़ रहा है। इसे आज तो समझाया नहीं जा सकता। कल की प्रतीक्षा करें ।