Post – 2016-12-30

मुसाफिर जायेगा कहां

इस्‍लाम के नाम पर या उसकी आड़ में अपनी जमात को भड़काने, उन्‍हें भारत की लूट से मालामाल होने और अगर मर ही गए तो गाजी बनने के सौभाग्‍य से प्रेर‍ित कर के प्राणों पर खेलने वालेे हमलावरों को छोड़ दें जो बाद में भी अपना रिश्‍ता अपने देश से जोड़ने और भारत में बस जाने के बाद भी अपने को अजनवी अनुभव करते थे, हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दुओं और मुसलमानों के संबंध कभी द्वेषपूर्ण नहीं रहे क्‍योंकि वे अधिसंख्‍य मुसलमान भारतीय रक्‍त के थे और धर्मान्‍तरित होने के बाद भी अपनी पुरानी पहचान से जुड़े हुए थे। इसके कई नमूने पेश किए जा सकते हैं परन्‍तु उन्‍हें सुनने का समय आपको नहीं होगा।

इन कारणों से मैं उस नव्‍य पुराण पर विश्‍वास नहीं कर पाता कि वर्णव्‍यवस्‍था से तंग आकर दलित जातियों ने इस्‍लाम के मानवतावादी संदेश से आकर्षित हो कर इस्‍लाम कबूल किया।

यदि ऐसा था तो वे सभी जातियां जो हिन्‍दू समाज में दलित श्रेणी में आती है, वे इस्‍लाम कबूल कर चुकी हाेेतीं – धोबी, चमार, निषाद आदि- या इस्‍लाम कबूल करने वालों में दलितों जैसे पेशों के लोग बड़ी संख्‍या में पाए जाते, (क्‍योंकि इस्‍लाम ने ईसाइयों की तरह आर्थिक प्रलोभन दे कर किसी का न तो धर्मान्‍तरण किया न ही उनके पुराने पेशों से उन्‍हें बाहर लाने का प्रयत्‍न किया। मुसलमान हो गया, काम पूरा हो गया )।

ऐसा नहीं है, इसलिए इसका कोइ दूसरा कारण तलाशना होगा। वे लोग जिनकेे व्‍यवसाय, कारोबार का सीधा संबन्‍ध राज्‍य या प्रशासन से था वेे प्रकोप से बचने के लिए या तो धर्मान्‍तरित हो गए अथवा यह दिखाते रहे कि वे इस्‍लामपरस्‍त है। जिनके पास अपनी लागत का कोई माल हो सकता था जिसे लूटा जा सकता था, वे उसी तरह धर्मान्‍तरित हो गए जैसे जजिया या दूसरे दबावों में आने वाले हाेे गए या राजस्‍व के भुगतान में चूक होने पर दंडस्‍वरूप गोमांस खिलाए जाने से अपने को धर्मभ्रष्‍ट मान कर अपनोंं का धर्म बचा

ने के लिए स्‍वयं अलग रहने और विवशता में इस्लामी तर्ज अपनाने को बाध्‍य हुए। धर्मान्‍तरित हुए जुलाहे, पीलवान जो राजाओं की सेवा में रहते थे। नट जिन्‍होंने अपनी सामाजिक व्‍यवस्‍था भी नहीं बदली, मातृृसत्‍ताक ही रहे । इनकी प्रमुख भूूमिका दुर्ग भेद की थी। ये बांस के पांव लगा कर दुर्गप्राचीरों की ऊचाई को हेय बना सकते थे, रस्‍से पर चलते हुए दुर्ग की परिखा या नहर को पार कर सकते थ, अौर नृृत्‍य, अभिनय, गायन की परंंपरा से परंपरागत से जुड़े थे जिनको आश्रयदाताओं की अपेक्षा होती है, इसलिए ये मुसलमान तो बन गए पर अपनी रीति नीति निभाते रहे।

सबसे रोचक है बुनकरों या जुलाहों का दोफांस जिसके सबसे प्रखर प्रवक्‍ता कबीर हैं। वह मुसलमान हैं और वेदान्‍ती भाषा में अपने विचार प्रकट करते हैं। इस तथ्‍य को दुहराने की जरूरत है कि य‍दि वर्णव्‍यवस्‍था के सताए हुए लोगों ने इस्‍लाम कबूल किया होता तो उन पेशों से जुड़े मुसलमानाेे की संख्‍या हिन्‍दुओं से कम से कम आनुपातिक गणना में अधिक होती । ऐसा नहीं हैै । इसलिए सूफियों के प्रेमजाल में बधंकर उनका प्रसाद ग्रहण करने के अपराध के कारण वहिष्‍कृत जनों को छोड़़ कर शेष भारतीय जनों का धर्मान्‍तरण विवशत में हुअ था इसलिए भारतीय मूल के मुसलमानाें का हृदय हिन्‍दू मूल्‍यों, मानों और रीति रिवाजों के साथ था। इसकी अगली विवशता यह कि वे जानते थे कि हिन्‍दुूू समाज उनको अपना नहीं सकता था इसलिए वे मुसलमान वन कर रहने को बाध्‍य थे। इससे उनके मन में कोई मलिनता नहीं थी यह रीति का प्रश्‍न था जिसका वे स्‍वयं भी सम्‍मान करते थे इसलिए हिन्‍दुओं से उनका आन्‍तरिक विरोध न था।

मैंने इस ओर ध्‍यान दो कारणों से दिलाया है । एक यह प्रचार कि इस्‍लाम साम्‍यवादी था इसलिए विषमता के सताए लोगों ने इसका वरण किया, जांचने पर सही नहीं मिलता। सच को जानना ही अपनी समस्‍याओं से बाहर आने की संभावना पैदा करता है।

दूसरा यह कि मुस्लिम शासन काल में भी इन विविध कारणों से सामाजिक स्‍तर पर मुसलमानों से हमारे रिश्‍ते खराब नहीं थे । आपस में प्रेम भाव था। एक का काम दूसरे के बिना नहीं चल सकता था और कुछ मामलों में आज की सचाई इससे भिन्‍न नहीं है। इसलिए धार्मिक भिन्‍नता तो थी, परन्‍तु विद्वेष न था। यहां तक कि रईसों और ताल्‍लुकेदाराेें में जो अपनी पहचान उन इस्‍लामी देशोेे से जोड़ते थे जो पहले ही इस्‍लाम कबूल कर चुके थे और इस पर गर्व करते थे – कहां बुखारा और उस पर फख्र करने वाले बुखारी, कहांं बख्‍तर (बैक्ट्रिया) और कहां बख्‍तरी, ईरानी, खान और मीर और अमीर कुछ पूछिए नहीं । दि अर्लियर दि बेटर। पर भारतीय वर्णव्‍यवस्‍था का लाभ किन्‍हीं परिस्थितियों में धमातरित ऊंची जातियों के हिन्‍दूओं को भी मिला । वे खान और राणा या दूसरे हिन्‍दू उपनामों में मामूली हेर फेर करके अपनी पुरनाी हैसियत का वैसे ही गरूर पाले रहे जैसे विदेशी मूल से अपना संबन्‍ध जोड़ने वाले।इसके कारण विदेशी मूल का दावा करने वाले जमींदारों और उच्‍च वर्णों से धर्मान्‍तरित हिन्‍दुओं के बीच भी पारस्‍परिक लेेन देन उस दौर में भी बना रहा जब धार्मिक कट्टरता और प्रशासनिक दबाव में हिन्‍दुओं का सम्‍मान से जीना मुश्किल था।
दोनों समुदायों के बीच भीतरी मनोमालिन्‍य और घृणा का सूत्रपात कंपनी शासन के बाद, उसकी अपनी चालों से आरंभ हुआ और इसे बहुत चालाकी से अमल में लाया गया। इसकी पड़ताल हम कल करेंगे। यदि हम अपनी उक्‍त व्‍याख्‍या में कहीं एकांगी या गलत हैं तो इसकी पड़ताल आप करेंगे क्‍योंकि मैं सही हूं नहीं, सही होना चाहता हूं। हो सकता है हमारे विचारों से आपकी भी कुछ भ्रान्तियां दूर हों। वादे वादे जायते तत्‍वबोध: । हमने तो संवाद ही बन्‍द कर रखा है, तत्‍वबोध कैसे होगा।