अपना अपना इतिहास
”शास्त्री जी इतिहास के पीछे ही इतिहास नहीं है, सबका अपना इतिहास है और उन इतिहासों के पीछे भी इतिहास है इसलिए वे अपने अपने इतिहास के अनुसार अपने को सही मानते और उससे भिन्न राय रखने वालों को गलत मानते हैं। इतना ही नहीं, दूसरो का इतिहास उन्हें डरावना लगता है और समाज के हित में और विश्व मानवता के हित में वे इतिहास की अपनी समझ को सर्वमान्य बनाना चाहते हैं । इससे आप भी मुक्त नहीं हैं, जिनका इतिहासबोध मुस्लिम लीग के इतिहासबोध की प्रतिक्रिया में विकसित हुआ और मध्यकाल से पीछे नहीं जा सका, युुद्ध के मैदान से उसकी महिमा निर्धारित होती रही जैसे उनकी। और वेे तो अपवाद हो ही नहीं सकते जो इतिहास काेे नकारते हुए उसे अपनी इच्छा के अनुसार गढ़ते रहे और गढ़ने की बुनियादी योग्यता, स्रोत साहित्य की भाषा पर अधिकार से बचने के कारण, गढ़ने की अपनी समझ से उचक्कों की तरह हथौड़े मार कर सांस्कृतिक निर्मितियों को तोड़ते और अपने मनमाने ढंग से जोड़ते हुए इतिहास का विद्रूप प्रस्तुत करते हुए उन खतरों से देश और संसार को बचाने के लिए प्रयत्नशील रहे जिनको अपने ही रचे इतिहास की विनाशकारी परिणतियों की ओर ले जाने वाला मानते थे।
”यह सच है कि देश के विभाजन का उन्होंने समर्थन ही नहीं किया था, अपितु विभाजन के बाद हो रही नृशंस हत्याओं पर वे तालियां बजा रहे थे, यह हम पहले प्रमाणों के साथ दिखा आए हैं। अभी तक किसी ने न तो यह दावा किया कि वे प्रमाण गलत थे, न यह बचाव किया कि उनसे ऐसा नहीं हुआ था। परन्तु पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान की दुर्गति और हिन्दू द्रोह को देख कर उन्हें यह डर था कि यदि भारत में भी हिन्दुुत्ववादी विचारधारा पनपी और सत्ता उसके हाथ में आई तो भारत भी प्रतिशोध में पाकिस्तान का प्रतिरूप बन जाएगा । यहां अल्पमत जिसका बहुत भोड़ा अर्थ मुसलमान लगाया गया था, उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाएगा, इसलिए इसे निर्मूल करना ही भारत के हित में है, मानवता के हित में है। यह दूसरी बात है कि इतिहास की समझ की आपकी नादानी के कारण आप आनन फानन में जो समाधान निकालते हैं उनसे आपकेे इरादों के विपरीत परिणाम निकलने लगते हैं। परन्तु उन्होंने प्राचीन इतिहास का ध्वंस इस आशा में किया कि इससे उन उदार, सर्वसमावेशी और मानवतावादी परंपरा की रक्षा हो सकेगी जिसे हम भारतीयता कहते हैं।”
शास्त्री जी अपने को रोक नहीं पाए, ”क्या उन्होंने इस उदार, सर्वसमावेशी और मानवतावादी परंपरा को अपने इतिहास में कहीं रेखांकित किया ?”
”किया। अपने ढंग से किया और कहूं उल्लू के पटठों की तरह किया तो भाषा कठोर हो जाएगी और संवाद की संभावना ही समाप्त हो जाएगी, परन्तु जैसा मैं पहले कह आया हूं कि कई बार गालियां सचाई को जिस बेधकता से सामने लाती हैं, हमारी दार्शनिक व्याख्यायें तक नहींं ला पातीं, इसलिए इस कठोर प्रयोग की विवशता और इसकी कठोरता के कारण क्षमाप्रार्थना के साथ निवेदन करना चाहूंगा कि मैं आवेशवश इस कठोर शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं। उन्हें अपनेे खयाल को सनम बनाने के लिए कई तरह के आर्यों, कई आक्रमणों और उनके स्वभाव में कई तरह के परिवर्तनों की कहानियां गढ़नी पड़ीं और फिर पहलेे खेप के आक्रमणकारियों को क्रूर, जघन्य, मानवद्रोही और सभ्यता द्रोही दिखाना पड़ा और उनकी परंपरा से हिन्दुत्व की परंपरा को जोड़ते हुए हिन्दुत्व को गर्हित, क्रूर, अन्यायी और अभक्षभक्षी सिद्ध करना पड़ा और दूसरे खेमे के आर्यों को कृषिविद्या, धातुविद्या और लोह ज्ञान से लैस हो कर उसी मध्येशिया से लाना पड़़ा जो घास का मैदान और चरागाह के लिए जाना जाता रहा है, और पहले आर्यों को भी दो विरोधी समुदायों में कल्पित करना पड़ा। आक्रमणकारी क्षत्रियधर्मा और उन्हीं पर हड़प्पा के पुजारियों के जादू टोने के बल पर वर्चस्व स्थापित करने वाले ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा और फिर भी आक्रमणकारी क्षत्रियों के साथ हड़प्पा के पुजारियों अर्थात् ब्राह्मणों के संघर्ष की कहानियां रचनी पड़ींं । यह भी ध्यान न रहा कि पहले खेमे के जिन आर्य आक्रमणकारियों को तुम बर्बर और पाशविक गुणों से संपन्न मान रहे हो, उन्हीं को उन ब्राह्मणों से श्रेष्ठ भी सिद्ध कर रहे हो जो सभ्य थे और उस उन्नत सभ्यता के निर्माताओं के गुरु थे जिसके ध्वंस का आरोप आक्रामणकारियों पर मढ़ रहे हो। बात यहीं समाप्त नहीं होती। पहले खेमे के जाहिल और सभ्यताद्रोही आर्य इतने जाहिल भी नहीं थे कि वेे समुद्र यात्रा न करते रहे हों और जिन्हेंa समुद्र मार्ग से भारत के पूर्वी भाग के उस क्षेत्र का पता न हो जहां लोह के भंडार हैं। दक्षिण बिहार और अब झारखंड का हिस्सा बने उस क्षेत्र तक की समुद्र यात्रा के लिए आपको भूगोल को इतना बदलना पड़ेगा कि भूगोल ही गोल हाेे जाएगा, परन्तु इन्हीं आर्यों ने अपने ऊपर आक्रमण करने वाले दूसरे खेप के आर्यों को यह रहस्य बता दिया और वे सीधे, सीधे तो नहीं, तराई के जंगलों को जलाते हुए अपना रास्ता तैयार करते हुए सदानीरा के तट पर पहुंचेे और जो पैमाना उन्हें पहले मिल चुका था उससे यह समझ लिया कि अब इससे दक्षिण में ही लोहभंडार मिलेगा और वे दक्षिण की ओर मुड़ चले और लोहक्षेत्र में पहुंच कर भारत में जो तांबे से ही परिचित था लोहक्रान्ति ला दी और फिर तो मगध से असली आर्य सभ्यता का आरंभ होना था जिसके उन्नायक क्षत्रिय थे जिनका हड़प्पा सभ्यता के असभ्य ब्राह्मणों से द्रोह था और इसी की परिणति था क्षात्र दर्शन जो बौद्ध और जैन मतों के रूप में प्रकट हुआ। यदि आप कहते हैं कि उन्होंने भारतीय अतीत में गौरव का कोई चरण ही तलाश नहीं किया तो यह गलत है। उन्होंने जैन मत को नाम गिनाने के लिए रखा पर उसे छोड़ दिया, क्योंकि उसमें हिंसा के लिए जगह नहीं थी। अत: उनकी व्याख्या में भारतीय गौरव बौद्धमत और उसकी मूल्य परंपरा से जुड़ा है और उसी से वैदिक परंपरा का विरोध दिखाते हुए वे ब्राह्मणवाद को भारत के लिए अहितकर और उन मूल्यों को जिनकाेे बौद्धमत ने प्रसारित और प्रतिष्ठित किया भारतीयता की पहचान मानते हुए वे उन्हीं पुरातन मूल्यों को आप से, जो मानवताद्रोही आर्यवाद से जुड़े हैं, मिटा कर भारत का भला करना चाहते हैं।
”मैं केवल यह निवेदन करना चाहता हूं कि गाली देने के आशय से नहीं, इतनी मनमानी और काल्पनिक उड़ान भरने वाले को तत्वज्ञानी मानने वालों को अधिक सटीक रूप में किसी अन्य शब्द से अभिहित किया जा सकता हो तो मैं उस शब्द का चुनाव करूंगा, क्याेंकि जब तक किसी व्यक्ति को हमारी न्याय प्रक्रिया द्वारा चोर सिद्ध न कर दिया जाय, हम उसे चोर नहीं कह सकते, उसी तरह जब तक किसी को उल्लू का पट्ठा सिद्ध न कर दिया जाय, जो सिद्ध हो ही नहीं सकता है, तब तक हम इस मुहावरे को अपने शब्दकोश से बाहर रखने के पवित्र कर्तव्य से बंधे है और जिनको भी यह बुरा लगा हो उनसे बिनाशर्त क्षमा मांगते हुए कोई सही शब्द सुझाने का भार भी उन्हीं पर डालते हैं।
”इतिहास के इतिहास और अपने अपने इतिहास का एक पहलू हमारे वर्तमान से नियत होता है यह हम देख आए हैं। पर यह नहीं समझ सके कि बौद्धमत और जैनमत सभ्यताद्रोही मत हैंं, जिनमें अहिंसा और सामाजिक सौमनस्य के लिए कुछ छूट तो है, परन्तु प्रगति के लिए नहीं और इनकी अहिंसा की ओर हमारा ध्यान इसलिए जाता है कि इसे इन मतों ने पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया, जब कि पहले यह कालसापेक्ष्य था। दूसरे बौद्धमत धर्मपरिवर्तन करने वाला धर्म है और यह धर्मपरिवर्तन करने को उचित ठहराने वालों की जरूरत है। एक कटु सत्य यह भी कि काेसंबी को इतिहास और प्राचीन भारत के इतिहास को कोसंबी के लेखन तक सीमित करने और उससे भिन्न किसी सोच काेे नकारने का यह सुनियोजित दौर बांग्लादेश के पतन और पूर्वी पाकिस्तान के एक नये राष्ट्र के रूप में उभरने से भी कोई संबंध रखता है, इसकी पड़ताल होनी चाहिए।”
”परन्तु डाक्साब …. ”
मैंने शास्त्री जी को बीच में ही टोक दिया, ”मैं जानता हूं आपको मेरे उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ होगा, पर यह भी तो सोचें कि आपका धैर्य बना भी रहे तो फेसबुक के पाठकों का धैर्य तो जवाब दे सकता है ।”
”फिर तो कुछ कहने को रहा ही नहीं ।”
”अाज नहीं, कल ।”