समाज व्यवस्था और वर्णव्यवस्था
जब मैं कह रहा था कि हम अपने को पूरी तरह नहीं देख पाते हैं, उसके कुछ पक्ष हमारी आंखों से ओझल रह जाते हैं, जब कि एक परदेसी की नजर में वे आ जाते हैं तो उनमें से एक पक्ष भारतीय समाज की बनावट से संबंध रखता है।
हम सामान्यतः भारतीय समाज को चार वर्णों में बांटकर देखने के आदी हैं। परंतु, इससे पूरे समाज का चित्र सामने नहीं आ पाता। हमें चार वर्णों से अलग एक पांचवें वर्ण की कल्पना करनी होती है जिसे हम अंत्यज या पंचम वर्ण कहते हैं। उसके बाहर फिर भी कुछ लोग बचे रह जाते हैं, जिनको किसी वर्ण में नहीं रखा जा सकता।
उदाहरण के लिए वर्ण समाज के भीतर आने वाले कायस्थों को ही लें
जो बहुत प्राचीन काल से ब्राह्मणों के प्रतिस्पर्धी रहे हैं, और उनके कर्मकांड की व्यर्थता का उपहास करते हुए – आज की परिभाषा के अनुसार – धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाते रहे हैं, उनके लिए वर्ण व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। सन् याद नहीं, पर कोलकाता हाई कोर्ट के एक फैसले के अनुसार उनको शूद्र बताया गया था। ये थे कायस्थ।
हमारे पास कायस्थों की जन्मपत्री में जाने का अवकाश नहीं है, परंतु यह बताने का समय जरूर है कि कायस्थ कार्यस्थ अर्थात् प्रशासनिक पदों पर नियुक्त होने वाले लोगों की संज्ञा थी, जो उन वर्णों से निकल कर आते थे जिनको शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य।
यह समाज या समुदाय अभिज्ञान के मामले में स्वयं सबसे अधिक भ्रमित है। जो प्रतिबंध दूसरे वर्णों के लिए लगाए गए हैं, उनमें से एक (असगोत्र विवाह) का तिरस्कार यहां देखने को मिलता है। कायस्थों में वर्मा वर्मा से ही शादी विवाह का संबंध रखेगा, श्रीवास्तव श्रीवास्तव के भीतर ही संबंध रखेगा। यही दूसरों के विषय में भी लागू है।
सुदूर अतीत का आग्रह कि हम ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय, वैश्य हैं, एकमेक होने के बाद भी बना रह गया। वर्ण व्यवस्था की दीवारें इतनी मजबूत हैं, कि हम अपना वर्ण भूल जाएं तो भी वर्ण सीमा बनी रहती है। धर्म बदल लें तो भी नहीं जाती। परन्तु यदि आपकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति ऐसी है कि आप वर्ण समाज के विधान को रीतिनिर्वाह मान कर विद्रोह नहीं करते तो भी हीनभावना पैदा नहीं होती तो उसका भी यह एक नमूना है।
जो लोग इस व्यवस्था की जड़ों को समझने से पहले समाज को बदलना चाहते हैं, उन्हें इसका अध्ययन करना चाहिए। समझ के बिना बदलाव नहीं किया जा सकता, विध्वंस अवश्य किया जा सकता है। अपनी नासमझी को भी एक उपलब्धि मानते हुए जो लोग, जो जी में आए वह करते हुए, समाज को बदलना चाहते हैं वे समाज का विध्वंस कर सकते हैं पर न तो समाज में सही बदलाव ला सकते हैं, न ही पलायन से अपने को बचा सकते हैं, क्योंकि बचाव सबके साथ ही संभव होता है।
मैं इस प्रश्न पर उस विदेशी की समझ की दाद देता हूं जिसने वर्ण व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज को समझने की चेष्टा नहीं की, अपितु जैसा देखा, जैसा समझ में आया, वैसा बयान किया। इसके कारण ही उसके आलोचक यह आरोप लगाते रहे कि उसे भारतीय समाज की समझ नहीं थी। वे मानते थे कि भारतीय समाज चार वर्णों में बटा हुआ है और जो इस बात को नहीं मानता वह भारतीय समाज को नहीं समझता।
इसके विपरीत हम यह कहना चाहते हैं कि मेगास्थनीज को भारतीय समाज की जितनी अच्छी समझ थी, उतनी हमें भी नहीं है, हमारे शास्त्रों को भी नहीं थी, उसके आलोचकों को भी नहीं थी। उसने भारतीय समाज को सात भागों में विभाजित किया था। यह विभाजन भारतीय समाज को समझने में किसी भी अन्य विभाजन की तुलना में अधिक सटीक और अधिक वस्तुपरक है। परन्तु इसे आज तो नहीं बताया जा सकता।