हिजरत (ग)
मोहम्मद साहब अपने विचारों का प्रचार नहीं कर पा रहे थे। काबा में तीर्थ यात्रा के लिए दूरदराज से आने वाले लोगों के बीच ही वह अपने मत का प्रचार कर सकते थे। इसकी छूट स्वयं कुरेशियों ने दी थी। उनके अपने देवी-देवता बचे रहें, दूसरों को वह क्या सिखाते हैं इससे उन्हें कोई मतलब न था। इस प्रतिबंध को छोड़कर उनको और उनके मतावलंबियों में से किसी को से कोई परेशानी न थी। उनका लक्ष्य इससे पूरा नहीं होता था। यदि प्रचार मक्का से बाहर के लोगों के बीच ही करना था तो उन्हें यथ्रीब से 621 में आए हाजियों का अनुरोध मान कर उनके साथ चला जाना चाहिए था। परंतु वह स्वयं इसलिए नहीं गए कि वहां वे सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे थे। अर्थात् वह मक्का में अधिक असुरक्षित अनुभव कर रहे थे। इसका कारण क्या हो सकता है?
मदीना (यथ्रीब)
यथ्रीब जिसे मोहम्मद साहब के पहुंचने के बाद मदीना नाम प्राप्त हुआ, पहले नखलिस्तान के रूप में जाना जाता था। नख्ल= खजूर, नखलिस्तान= खजूर का प्रदेश। आज भी यहां से 300000 टन खजूर का निर्यात होता है । इसका कारोबार किन लोगों के हाथ में था, इसकी जानकारी हमें नहीं है, परंतु संभव है, इसमें प्रमुख भूमिका यहूदियों की रही हो जिसके कारण वे अधिक समृद्ध थे और स्थानीय अरबों से उनकी तनातनी चलती थी।
मक्का लाल सागर के पूर्वी तट पर दिसावर व्यापार का प्रधान केंद्र था। यूरोप जाने वाला भारतीय माल जहाजों के द्वारा यहां पहुंचता था और यहां से सीरिया और वहां से आगे। मक्का से यथ्रीब साढ़े चार सौकिलोमीटर दूरी पर है। रेगिस्तान के बीहड़ रास्ते में पानी की सुविधा होने के कारण कारवां इससे होकर गुजरा करता था। यथ्रीब के अरब सौदागर भी करते थे और रहजनी भी कर लिया करते थे। रहजनी को उनके बीच शान की बात समझा जाता था। मोहम्मद साहब से अपनी जिस खानदानी बहादुरी की डींग उन्होंने भरी थी, वह युद्ध के मैदान से अधिक लूटपाट से जुड़ी थी। इसी को लेकर उनकी आपस में भी ठनती रहती थी । उनकी लूटपाट के शिकार होने वाले काफिले मक्का के सौदागरों के ही होते थे, इसलिए मक्का के लोग यथ्रीब से शत्रुता रखते थे और यथ्रीब के अरब मक्का वालों को। एक का दुश्मन दूसरे का दोस्त माना जाता था। मोहम्मद साहब स्वयं व्यापारी यात्राओं पर जाते रहे थे इसलिए इनके विषय में उन्हें अनुभव भी रहा होगा। यही कारण है कि मक्का में अनेक असुविधाओं के होते हुए भी, वह यथ्रीब की में अधिक सुरक्षित अनुभव कर रहे थे।और अगले साल 622 ई. में जब उन्होंने कसम खाई कि वे उनकी सुरक्षा अपने परिवार के लोगों की तरह ही करेंगे उसके बाद उन्होंने मक्का और मदीना में जाकर बसने का निर्णय किया।
कुरैशियों को मुसलमानों के मक्का छोड़कर जाने के लिए परेशानी नहीं थी। परेशानी इस बात को लेकर पैदा हुई वे उनके दुश्मनों के साथ दोस्त करने जा रहे हैं और उनसे मिलकर बदला ले सकते हैं। बाद की घटनाओं ने उनकी आशंका को सही सिद्ध किया ।
उनका यह सुनिश्चित करना कि मुहम्मद सी हालत में मक्का से बाहर न जाने पाएं इसी का परिणाम था और संभव है इसी कारण उन्होंने मोहम्मद की जान देने की भी योजना बनाई हो । कहते हैं कि अपने कि हिज्र की रात को उन्होंने अपनी जगह अली को सोने को राजी कर लिया और इस तरह चकमा देख कर गायब हो गए। निकल भागने के बाद अबू बक्र के साथ 3 दिन तक वह एक गुफा में छिपे रहे। इस बीच उनकी को चारों तरफ खोज होती रही। गुफा के पास भी पूछे परंतु वहां तक पहुंच नहीं पाए 4 दिन के चौथे दिन मोहम्मद मदीना की यात्रा पर रवाना हुए। यह कहानी सूरा तौबा की एक आयत में उतरी लगती है।
If ye help him not, still Allah helped him when those who disbelieve drove him forth, the second of two; when they two were in the cave, when he said unto his comrade: Grieve not. Lo! Allah is with us. Then Allah caused His peace of reassurance to descend upon him and supported him with hosts ye cannot see, and made the word of those who disbelieved the nethermost, while Allah’s Word it was that became the uppermost. Allah is Mighty, Wise. ﴾40﴿
वह एक ऊंटनी पर सवार होकर निकले थे। अपनी लंबे सफर में वह कहां कहां रुके यह हमारी चिंता का उनसे नहीं परंतु अपने बाल बच्चों को लाने के लिए भी उन्होंने जी को भेजा । काबा में इस बीच उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। 100 सम्मान सहित उनके पास पहुंच गए। मदीना में उन्होंने अपने को हर तरह की बवाल से अलग रखा एक मस्जिद खान की मस्जिद के पूरब तरफ अपनी पत्नियों के लिए बहुत खुश थी यह ऐसी झोपडियां बनाई । यहां उन्हें और दूसरे मुसलमानों को जितनी आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा वैसी तंगी उन्हें इससे पहले कभी नहीं देखी थी। दिनोंदिन उन्हें खजूर अगर अपने दिन काटने पड़े। परंतु इनका भी हमारे लिए उतना महत्व नहीं है जितना इस बात की में पहुंच कर धरती पर अमन का पैग़ाम फैलाने वाले पैगंबर दिन पूरे हो गए। मोहम्मद वही रहा, पर पैगंबर का स्थान सिपहसालार ने ले लिया। अमन का मसीहा जंगजू में बदल गया। यह मेरी खोज नहीं है, इसे सेल ने बहुत सटीक ढंग से बयान किया है। Mohammed failure at Mecca was that of the prophet; his triumph in Medina was that of the chieftain and the conqueror. मेरी उनसे सहमति मात्र है। इसमें मैं केवल अपनी ओर से इतना और जोड़ना चाहूंगा कि मक्का में अल्लाह के पैगाम मोहम्मद तक पहुंचते थे, मदीना में मोहम्मद जो चाहता और करता है उसकी ताईद अल्लाह को इल्हाम के रूप में ताईद करना पड़ता है। यदि हम अल्लाह के स्थान पर अंतरात्मा को रखें और इल्हाम को अंतरात्मा की आवाज कहें तो हम कहेंगे अंतरात्मा ने उनका साथ छोड़ दिया या उसकी आवाज कमजोर पड़ गई। उसका स्थान संकल्प शक्ति ने ले लिया। जो ठान लिया वह करना है। जो करते हैं वह गलत नहीं है उसे सही सिद्ध होना ही पड़ेगा। पहले जो दुनिया की नजर में गलत था उससे बचना था मोहम्मद दे जो कुछ किया सही है, और गलत का फैसला इस बात से होगा मोहम्मद ने क्या किया और क्या नहीं किया और क्या न करने को कहा। पहले अल्लाह के फरिश्ते ने मोहम्मद को दबोच कर कहा था, कलमा पढ़, अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं है, अल्लाह से बड़ा कोई नहीं है। मक्का में पैगंबर अल्लाह से छोटा और उसके फरिश्ते का मोहताज था, मदीना में कलमा गलत हो गया। मोहम्मद अल्लाह से बड़ा हो गया। आप अल्लाह की आलोचना कर सकते हैं, मोहम्मद कि नहीं। अल्लाह ने जो कुछ बनाया है उसमें गलतियां निकाली जा सकती हैं। मोहम्मद ने जो कुछ कहा या किया या जिस रूप में सुना उसमें कोई गलती नहीं तलाशी जा सकती। पहले फरिश्ते अल्लाह के दाबेदार थे, अब मोहम्मद के ताबेदार हो गए चाहे तो उन्हें फरिश्ता माने, न चाहे तो शैतान करार दे दे। यदि मक्का में इस्लाम था, अमन और ईमान का निर्वाह था तो मदीना में सभी की परिभाषाएं उलट गई। अल्लाह अल्लाह न रहा, अल्लाह के बंदे मोहम्मद के बंदे बनने की प्रतिस्पर्धा में शामिल हो गए। इस्लाम समाप्त हो गया, मुहम्मदवाद आरंभ होगया। विश्व इतिहास की या सबसे बड़ी दुर्घटना है जिसमें इस्लाम ने आत्मघात कर के मुहम्मदन पद को उसके समकक्ष रखा। अपने को मुसलमान कहने वालों में मुसलमान कोई नहीं है, मुहम्मदन पूरी दुनिया में फैल गए हैं और विश्व मानवता के लिए चुनौती बन गए है।