Post – 2019-06-28

धर्म का सत्ता-तंत्र में बदलना

हिजरत के साथ इस्लाम में वे प्रवृत्तियां पैदा हुई, जो मजहबी तंत्र की अनिवार्य आवश्यकताएं है। सत्ता है तो उत्तराधिकार की स्पर्धा भी होगी। यह भी इसके साथ ही आरंभ हो गई । मोहम्मद साहब की उम्र इस समय 52 वर्षा हो रही थी। तत्कालीन कल समाज की सामान्य आयु 60-65 वर्ष की हुआ करती थी। यह भी इसका एक कारण रहा हो सकता है। मुहम्मद के करीबी लोगों में तीन थे। पहला स्थान अली का था, जो उनके अभिभावक अबू तालिब के पुत्र थे, इस्लाम कबूल करने वालों में पहले थे, मुहम्मद के लिए जान देने और जान लेने के लिए तैयार रहते थे, और उनकी पुत्री फातिमा के पति थे। दूसरा स्थान अबू बक्र का था, जो पहले सुशिक्षित और संपन्न व्यक्ति थे जिन्होंने इस्लाम कबूल किया था और जिनकी पुत्री आयशा से मोहम्मद साहब ने स्वयं विवाह किया था और जो उनकी पत्नियों में सबसे अधिक चहेती थीं । एक तीसरा आकांक्षी जईद मोहम्मद भी हो सकता था, जिसे मुहम्मद ने दत्तक पुत्र बनाया था और वल्दियत दी थी। इस ओर हमारा ध्यान न जाता, यदि हिजरत के उन तीन दिनों में जब वे इसी गुफा में अबू बक्र के साथ छिपे हुए थे, अनेक ऐसी कहानियां न जुड़ जातीं जिनमें सभी अबू बक्र और उनके परिवार की मुहम्मद के प्रति भक्तिभाव दर्शाते उन्हें मुहम्मद के बाद दूसरा ‘थानी अथनेन’ उनके नाम के साथ न जुड़ जाता, उन्हें खलीफतुल नबी कहा जाता, कुरेशियों की पकड़ से बचाने के उनकी सलाह पर रात के समय चुपके से मदीना के उल्टी दिशा में आठ किलोमीटर की दूरी पर एक गुफा में छिपे रहने की समझदारी पर मुहम्मद द्वारा सत्यनिष्ठ, ( al-Siddîq, the truthful,” “the upright,” ) कहा जाना ।

यह स्पर्धा इसके बाद से लगातार अनेक निर्णायक मोड़ों पर देखने में आती है. जैसे बद्र की जंग में उनके पुत्र का जिसने अभी इस्लाम नहीं कबूल किया था उन्हें लड़ने के लिए ललकारना और उनका इसके लिए तैयार हो जाना और मुुहम्मद के मना करने पर मानना, मुहम्मद द्वारा 631 में हज को इस्लामी रूप देने के लिए तीन सो मुसलमानों के साथ मक्का भेजना और इसके बाद उनके साथ अमीर-उल-हज बन जाना, अगले साल अबू बक्र का मुहम्मद को लेकर हज के लिए जाना [एक अवसर पर तो मुहम्मद ने खुलकर कहा था कि मेरे ऊपर अबूबक्र के तन-धन से दूसरों से अधिक अहसान हैं और अगर मुझे अपने अनुयायियों में से किसी के खलील (जिगरी दोस्त) चुनना हो तो वही होंगे, लेकिन इस्लाम का बिरादराना भाव ही काफी है। मेरे मरने पर किसी मस्जिद का दरवाजा न खुले सिवाय अबू बक्र के (No doubt, I am indebted to Abu Bakr more than to anybody else regarding both his companionship and his wealth. And if I had to take a Khalil from my followers, I would certainly have taken Abu Bakr, but the fraternity of Islam is sufficient. Let no Door of the Mosque remain open, except the door of Abu Bakr.., सहीह अल-बुखारी. 1.8.456 व 5.58.244 इब्न अब्बास और 5.58.244 द्वारा बकौल विकीपीडिया.उद्धृत्)]

कहीं कोई दुविधा रह जाती है कि खिलाफत की समस्या मुहम्मद के जीवनकाल में ही हल नहीं की जा चुकी थी? परंतु दुविधा तो वहीं पैदा होती है जहां गढ़ने-जोड़ने का प्रयत्न बहुत साफ दिखाई देता है। यह सारी कहानियां अबू बकर के खलीफा बन जाने के बाद अधिकार का औचित्य सिद्ध करने के लिए लिखी गई हैं। और इस बात का भी संदेह किया जा सकता है उन्होंने कुरान का पाठ तैयार कराते हुए अपने पक्ष में आयतें उसमें जोड़ दीं।

शिया इतिहासकार इन्हीं घटनाओं की एक भिन्न व्याख्या देते रहे हैं, उदाहरण से लिए गुफा में छिप कर जान बचाने को अबू बक्र की कायरता सिद्ध करते रहे, दूसरी कहानियों को काल्पनिक बताते रहे।

कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जिनसे यह सिद्ध होता है अबू बक्र अपनी व्यापारिक सूझबूझ से अधिक काम लेते थे। मोहम्मद के प्रति उनकी निष्ठा इतनी गहरी और साफ नहीं थी। यह स्पर्धा केवल अली और अबू बक्र के बीच में ही नहीं थी। विद्रोह उमर ने भी उसी समय किया था जब अबू बक्र जनाजे की सारी रस्म अदायगी अपने नियंत्रण में ले कर उन पर हुक्म चला रहे थे।

हमारी जानकारी में एक बात से लगता है जिससे लगे मुहम्मद साहब उन्हें अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहते थे और अबुबक्र ने उनसे मक्कारी की थी। जब वह मरणासन्न थे और अपनी बिदाई काआभास भी दे चुके थे उस समय भी हथियार के बल पर इस्लाम के विस्तार के लिए वह उसी तरह चिंतित थे जैसे मरणासन्न शेरशाह कालिंजर के किले को जीतने के लिए बेताब।

प्रसंग वश यह याद दिला दें कि शेरशाह ने कालिंजर के किले को जीतने के पुख्ता इंतजाम कर लिए थे, परंतु उसके ही हुक्का यंत्र का गोला किले की दीवार से टकराकर वापस लौटा और उसके आघात से शेरशाह क्षत-विक्षत हो गया। प्राण बचे रहे, परंतु जीने की आशा नहीं। हकीम चंदन का लेप करते रहे, इत्र-फुलेल छिड़कते रहे पर राजस्थान की झुलसाने वाली लू में तड़पता हुआ होश और बेहोशी के बीच पल पल मौत के करीब जाते हुए भी शेरशाह विजेता के रूप में मरना चाहता था। उसका हालचाल जानने के लिए जब कोई आता तो उसे लौटा देता, यह इशारा करते हुए कि मोर्चे पर जाओ। वह मरा, परंतु यह समाचार सुनकर कि कालिंजर का अजेय किला जीत लिया गया है।

मोहम्मद के भाग्य में यह नहीं लिखा था।
Mohammed never liked to admit a defeat as final. the defeat at Muta was still remembered, and it was desirable action should be taken to cause it to be forgotten, and so and expedition was formed to proceed against the Byzantines. Usama was placed at the head of it, and so it is called the Sariya of Usama. The Prophet addressed Usama thus: ‘March in the direction of Muta where thy father was slain. Attack the enemy, set fire to their habitation and goods. Make haste to surprise the people before the news reaches them.’ But Muhammad was now seized with his last illness and the expedition did not set forth until after his death, when Abu Bakr directed it to proceed.(Canon Sell, The Life of Muhammad, 222)

परंतु यदि हम यह जानना चाहें कि यह अभियान सफल क्यों न हो पाया तो इसका कारण यह है जो काम शेरशाह के सिपहसालारों ने नहीं किया वह काम अबू बक्र ने नहीं किया। जिस व्यक्ति को इतने भरोसे का बताया जाता है उस अबू बक्र से जब मुहम्मद ने यह सोचकर कि ओसामा की उम्र केवल 18 साल है, उसकी मदद के लिए जाने को कहा, तो अबू बक्र ने उनके आदेश की अनसुनी कर दी। खलीफा बनने के बाद उसने क्या किया, यह मोहम्मद के प्रति उसकी निष्ठा का हिस्सा नहीं बन सकता। [When the fever developed he directed Abu Bakr to go to the war following Usama who was 18, but he mysteriously did not listen and lingered in Madina, Shias say desirous of becoming the successor.] शिया इतिहासकारों का आरोप गलत नहीं लगता।

मोहम्मद की दशा ऐसी थी, परंतु अबू बक्र उनकी तीमारदारी में नहीं लगे थे। उनकी मृत्यु की सूचना पाकर अपने गांव सुन्ना से घोड़े पर सवार हो कर आए (सुन्नी आज तक घोड़े पर ही सवार हैं) :-

When Muhammad died Muslims gathered in Al-Masjid al-Nabawi and there were suppressed sobs and sighs. Abu Bakr came from his house at As-Sunh (a village) on a horse where he had been with his new wife. He dismounted and entered the Prophet’s Mosque, but did not speak to anyone until he entered upon ‘Aa’isha. In Sunni accounts he went straight to Muhammad who was covered with Hibra cloth (a kind of Yemenite cloth). He then uncovered Muhammad’s face and bowed over him and kissed him and wept…

यह कुछ विचित्र लगता है कि मुसलमानों ने भी अपने पैगंबर के साथ वैसा ही विश्वासघात किया जैसा ईसाईयों ने ईसा मसीह के साथ किया था और अपना इल्जाम यहूदियों के सर मढ़ दिया था। मोहम्मद को सूली पर नहीं चढ़ना पड़ा, पर अपने अंतिम दिनों में उन्हें किस वेदना से गुजरना पड़ा होगा इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते।

खलीफों का इतिहास, मुस्लिम शासकों का इतिहास, मुस्लिम समुदाय इतिहास अंधविश्वास पर इतना बल इसलिए देता है कि यह अपनों के साथ अपनों के विश्वासघात का इतिहास बन कर रह जाता है। आज के भारत में भी, जब अल्पसंख्यक के नाम पर अधिक उदारता दिखाई गई, खुराफात के सूचकांक में वृद्धि ही देखने में आई। मुसलमानों को, खास कर उनके बुद्धिजीवियों को इस दिशा में ऐसा पर्यावरण तैयार करना चाहिए जिसमें मुसलमान अपनों का और दूसरों का विश्वास अर्जित कर सकें, शांति, सद्भाव और सद्विश्वास से स्वयं भी आगे बढ़ सकें और देश की प्रगति में भी बाधक न बने। मुस्लिम देश भारतीय मुसलमानों से प्रेरणा ले सकें।