Post – 2019-06-24

मुहम्मदन और मुसलमान

घालमेल सभी मजहबों में देखने आता है। यह सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण होता है। हिंदू समाज को ही लें तो ब्राह्मणवाद एक मजहब है। इसके साथ एक व्यवस्था जुड़ी हुई है और उस व्यवस्था में कुछ लोगों के ऐसे हित जुड़े हुए हैं जिनके कारण दूसरों का अहित होता है और फिर भी उसे एक नैतिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

हम धर्म को जिस रूप में जानते हैं और जिसका सहारा लेकर हम हिंदुत्व की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं, वह सामाजिक व्यवस्था और प्रच्छन्न राजनीतिक हितबद्धता से ऊपर समस्त संसार, समस्त मानवता, समस्त प्राणि-जगत के कल्याण के लिए अपेक्षित मूल्यप्रणाली है, जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं, और इसके आधार पर प्राणिमात्र ही नहीं प्राकृत पदार्थों के भी खरे पन और खोटे पन की पहचान करते हैं। दाहकता है तो आग है, नहीं है तो आग का भ्रम है।

मामला इतना इकहरा भी नहीं कि हम दोनों के बीच कोई संबंध ही न जोड़ पाएँ।

ब्राह्मणवाद मजहब होने के कारण सनातन धर्म की तरह सर्व कल्याणकारी तो नहीं है, परंतु दुनिया के किसी समाज की तुलना में, ब्राह्मणवादी समाज में सनातन मूल्यों के लिए जितना अवकाश है उतना प्राच्य जगत को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं पाया जा सकता। अतीत में ही नहीं वर्तमान में भी। विश्व राष्ट्र संघ के दस्तावेजों में इसे उसी तरह स्थान दिया गया है, जैसे ब्राह्मणवाद में, परंतु पालन नहीं हो पाता।

आदर्श एक खयाल है जिस तक पहुंचने की कोशिश में हम किसी न किसी मंजिल पर अटके रह जाते हैं। दुर्भाग्य अटके रह जाने में नहीं है, दुर्भाग्य आगे बढ़ने की आकांक्षा के समाप्त हो जाने में है। हम जहां हैं, जिस दिशा में हैं, उसी में अपने को सही सिद्ध करने की आदत में है। सितारों से आगे के जहां की तलाश करने की इच्छा शक्ति के नष्ट हो जाने में है।

इसी परिप्रेक्ष्य में हम इस्लाम धर्म और मोहम्मदी मजहब के अंतर को समझ सकते हैं और जिस अनुपात में अपनी सीमाओं से ऊपर उठने का प्रयत्न करते हैं उसी अनुपात में दूसरों से ऊपर उठने और आगे बढ़ने की अपेक्षा रख सकते हैं।

दोनों के बीच वैसा ही घालमेल किया जाता है जैसा ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म के बीच। सभी मुसलमान इस्लाम के पाबंद नहीं है, जैसे सभी हिंदू सनातन धर्म के पालन करने वाले नहीं हैं।

इस्लाम उनके लिए जीवित है जो शांति और सौहार्द के लिए काम करते हैं । जो स्वयं सोचते हैं और किसी किताब, किसी पैगंबर के मोहताज नहीं रहते। यह उनका धर्म है जो अपने दिमाग से काम लेते हैं, जो अपने समय में रहना चाहते हैं, जो अपने परिवेश से समायोजित हो कर रहना चाहते हैं, जिनकी संख्या कम होती गई है, जिनकी चिंता अपनी संख्या में कमी आने के अनुपात में बढ़ती चली गई है, जो अपने को बचाने के लिए इस्लाम की वापसी चाहते हैं और मुहम्मदी दासता से मुक्त होना चाहते हैं।

जिस कुरान का मुहम्मदन अक्षरशः पालन करना चाहते हैं, वह मुहम्मद साहब के इल्हामों का विश्वसनीय अभिलेख नहीं है। उसे उस्मानी काल में 644 के बाद, अर्थात मोहम्मद साहब के देहावसान के 11 साल बाद, एक विवादास्पद खलीफा उस्मान की जरूरतों के अनुसार तैयार किया गया, या जो पहले से चला आ रहा पाठ था उसमें रद्द-बदल किया गया।

ऐसा सभी प्राचीन अभिलेखों के साथ किया गया है। हमें रामायण के मूल पाठ का पता नहीं है, यद्यपि यह ज्ञान है कि मूल पाठ उपलब्ध रामायण से भिन्न था। हमारी विवशता है कि यह जानते हुए भी कि रामायण या महाभारत अपने मूल पाठ से हट चुके हैं, इसके बाद भी उपलब्ध पाठ पर ही भरोसा करना पड़ता है।

दूसरे ऐसा करते हैं तो हमें उनके विश्वास का सम्मान करना चाहिए। हम केवल इस बात की छूट ले सकते हैं इतिहासकार के रूप में इस सामग्री पर विचार करते हुए उस मूल सत्य तक पहुंचने के साधनों का उपयोग करते हुए, हमारी समझ से सचाई का जो रूप सामने आता है उसे सबके सामने निर्बंध और निसंकोच होकर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करें। अपनी ज्ञान सीमा में, कल हम यही करने का प्रयत्न करेंगे।