Post – 2017-04-29

व्यर्थताबोध
मैं मानता हूं लेखक का काम रोगनिदान करने वाले से लेकर चिकित्सक और शिक्षक तक की कई भूमिकाओं से जुड़ा है। आप चाहें तो इसमें मोर्चे पर खड़े सैनिक और या ऐसे सैनिकों को किसी भुलावे में डाल कर सत्ता पर कब्जा जमाने को आतुर विचारधारा या व्यक्ति की भूमिका से भी जोड़ सकते हैं जिसे मोर्चे पर खड़ा होने का साहस तक नहीं। मैंने अपने लिए जो रास्ता चुना है वह है स्वस्थ काया के लिए स्वस्थ मन होना चाहिए। समर्थ समाज के लिए ग्रन्थिमुक्त नागरिकों की संख्या का विस्तार होना चाहिए और उन्हें विषाक्त ज्ञान से मुक्त चेतना से संपन्न होना चाहिए। मेरा लेखन उसी कार्य को समर्पित है।
मैं नाम कमाने वाले लेखकों से बिदकता हूं नामी बनाने वाले तरीकों और व्यक्तियों को अपना नही मान पाता । इस बात का पूरा ध्यान रखता हूँ कि मेरे किसी कथन. कार्य या भंगिमा से कोई अपमानित न अनुभव करे। हो सकता है शैशव और बचपन में जो अपमान झेलना पड़ा उसी का उदात्तीकरण हो। मैं स्वयं नहीं जानता ऐसा क्यों है, यह पता है, और यह ऐसे लोगों को अविश्वसनीय लगेगा जो मुझे निकट से नहीं जानते । जो जानते हैं उन्हें समय लगेगा इस दावे की समीक्षा करने में और इसे सच मानने में । मैं उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करूँगा जो यह याद दिला सके कि ऐसा उसके मामले में हुआ था।

मैं अपना अपमान झेल सकता हूं। अपना अपमान करने वाले का भी अपमान करने में मुझे पीड़ा होती है। अपना अपमान पसन्द नहीं करता पर यह सोचकर अगला व्यक्ति अहंकारी या नादान है उसे क्षमा कर देता हूं] बिना उसकी ओर से किसी क्षमायाचना के और इसकी परख यह कि यदि वह उसके बाद मेरा अनिष्ट भी करे तो उसका अहित करने का विचार तक मन में नहीं आता] न ही उसके विषय में किसी अप्रिय समाचार को सुन कर सन्तोष होता है। यह भाव बना रहता है कि क्या उसे उस स्थिति से उबारने में मुझसे कुछ संभव हो सकता है
परन्तु यदि उससे क्षुब्ध होकर कुछ ऐसा कर बैठू जिससे दूसरे को अपमानित अनुभव करना पड़े तो व्यग्र हो जाता हूं। यह मेरी निजी समस्या है] यह असामान्यता से हट कर अ&सामान्यता है जिसका विश्वास दूसरों को नहीं दिला सकता न इसकी जरूरत समझता हूं। इसे किसी पर प्रकट करना दुर्बलता मानता हूं इसलिए जब भी मेरे मित्र संपादकों ने अपने बारे में या अपने लेखन के उद्देश्य के बारे में अपनी पत्रिका के लिए कुछ लिखने को कहा तो मैं न लिख पाया। सच कहें तो मैं उलझन में पड़ जाता हूं।
मुझे जीवन में दो व्यक्ति ऐसे मिले जिनको अपने लिए, एक व्यक्ति के रूप में प्रेरक मानता रहा, एक मेरे साथ चपरासी के रूप में काम करने वाले राम सिंह थे और दूसरे अनुपम मिश्र । इनकी समकक्षता में कभी नहीं आ पाउूगा। इनका परिचय न दूंगा, विषयान्तर होगा।
परन्तु अपने बारे में बात करने की जिस कमजोरी से बचने के प्रयत्न से] जो कुछ हूं उससे छोटा बन जाने के डर से] बचता रहा उसे आज इसलिए उठाना पड़ा कि यदि मेरा लिखा पढ़ कर लोग तारीफ कर बैठें पर उनके जीवन और कर्म में वह सुधार न आ पाये जिसकी उन्होंने तारीफ की तो लगता है लिखना व्यर्थ गया।

फेसबुक अपने को जांचने और कसने का अद्भुत मंच है। एक खुला हम्माम लिसमें लोग नंगे हो जाते हैं इसलिए लोगों को समझने का और खुद अपने आप को समझने का, अपनी सार्थकता और व्यर्थता को समझने का इससे अच्छी होई प्रयोगशाला नहीं। खतरा केवल एक कि यह मंच या हम्माम जिस देश के कब्जे में है उसके सामने पूरी दुनिया का एक एक व्यक्ति जो इन मंचों से जुड़ा है उससे अधिक नंगा है जितना हम भाषा के माध्यम से जान पाते हैं।

खैर जिस व्यर्थतावोध के कारण मैं इन पंक्तियों को लिखने को या अपने दुख को बांटने को तत्पर हुआ वह यह कि मैंने कई बार कई उदाहरणों से कठारे शब्दों से और खास करके गालियों से बचने का इसलिए अनुरोध किया था कि कि जिसे गाली दी जा रही है उसका इससे कोई नुकसान नहीं होता, या लेशमात्र होता है परन्तु आपका अपमान तत्काल, गाली बकने के साथ ही, होजाता है। आप सुनने या पढ़ने वाले की नजर में गिर जाते हैं, आप जिन संस्थाओं से जुड़े हैं उनके बारे में, आपके परिवार और सामाजिक स्तर के बारे में इन गालियों को सुनने के साथ ही सुनने वाला अपनी राय बना लेता है। कहें गाली देना अपने को गाली देना होता है,। यह इतनी मोटी बात है जिसे समझना कठिन नहीं, इसलिए बहुतों ने पसन्द भी किया, पर मैं यह देखता हूं कि जिन्होंने इसे पसन्द किया क्या वे अब भी गालियां देते हैं। अपने लेखन की व्यर्थता की अनुभूति इस अनुभव से ही जुड़ी है

जिस बात पर आपको इतना क्रोध आरहा है कि आप अपना संतुलन खो दे रहे हैं, उनका खंडन कैसे करेंगे यदि आप क्रोध से कांपने काटर कांपते हुए मुंह के बल गिरने लगे तो।

गालियां हमेशा उस व्यक्ति के पक्ष में रंती हैं जिससे आप क्षुब्ध हैं। वे व्यवहार में हों या वाणी में।

जो अपनी आदत नहीं बदल सकते हैं वे मुझे पढ़ना तो छोड़ ही सकते हैं पढ़ ही लिया तो पसन्द करना तो छोड़ ही सकते हैं कि झूठी आशा न पैदा हो कि कम से कम इतने लोगों में मैं अपने लेखन के माध्यम से उनका आत्माभिमान जाग्रत कर सका। (incomplete).