Post – 2017-04-27

कल बात ज्ञान की करने चले थे और भूमिका ने अपने दबाव में दिशा कुछ जरुरी जानकारियों की और मोड़ दी। अच्छा ही रहा । मैं यह कहना चाहता था कि जिनके पास ज्ञान शब्द नहीं होता उनके पास भी ज्ञान तो होता ही है। यहाँ तक कि जिनके पास भाषा नहीं होती उन जीवों जंतुओं तक को ज्ञान होता है.

हम सोच सकते हैं ऋग्वेद में ज्ञान के लिए वेद का प्रयोग होता था। संस्कृत में इसे विद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है । यदि भोज. में बिद से जुड़ी कोई कड़ी होती तो हम कहते कि ज्ञान के लिए पुराना शब्द बेद है। न तो यह कड़ी है न ज्ञान शब्द है। बिद्या और ग्यान दोनों संस्कृत से लिए गए शब्द है। भोज. में य और व का उच्चारण हिंदी के कारण चलन में आए हैं। इसके बाद भी, भोजपुरी भाषी शक्षित लोगों द्वारा भी शब्द के आरंभ में इनके उच्चारण में चूक होती है। ज और ञ का सयुक्ताक्षर तो उस चवर्ग प्रेमी समुदाय के लिए भी कष्टसाध्य है जिससे देववाणी में चवर्गीय ध्वनियां पहुची थी। ऋग्वेद में भी वेद ज्ञान के आशय में नही अपितु जानने वाले के आशय में ही आया है (विद्मा हि त्वा वृषन्तम; य ईं चकार न सो अस्य वेद ). फिर वेद धन सम्पत्ति के लिए भी प्रयोग में आया जिसके लिए बाद में वित्त का प्रयोग होने लगा (तेषाम् नो वेद आभर ). विद्वान और विदान दोनों का प्रयोग लगभग एक ही अर्थ में है, भाव जानकार का है, परन्तु ऐसे स्थल भी हैं जिनसे पांडित्य का आभास मिलता है (समानेन क्रतुना संविदाने )।

किसी वि षय का आधिकारिक ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को विद्वान भी कहा जा सकता था, परन्तु एक ऐसे दौर में जब लेखन भले चलन में आ गया हो, ग्रन्थों का अभाव था, पुस्तकीय ज्ञान और इसके लिए किसी की ख्याति का कोई मतलब न था।

बहुज्ञ के लिए श्रुतज्ञ, श्रुतवान, और विचारक के लिए द्रष्टा, ऋषि, कण्व, अक्षण्वन्त, कर्णवन्त आदि शब्दों का प्रयोग होता था।
ज्ञान के मूल में भी कान है ।

यदि देववाणी में असवर्ण संयोग नहीं होता था तो मानना होगा कि या तो उसमें कान के लिए कोई शब्द न था, या था तो कान था, जिसे कौरवी प्रभाव में कर्ण बना दिया गया।

कन् का तमिल में अर्थ है आंख। सं. कनीनिका का अर्थ है आंख की पुतली और हिन्दी, भोज. काना का अर्थ आप जानते हैं।

कान और आंख ज्ञान के प्रधान स्रोत हैं। कान को अपनी संज्ञा इसी कारण मिली लगती है। इसिलए भोज . में अकनल का अर्थ है , बहुत ध्यान से सुनना। कन् देखना, जानना से बना वचक्नु जिसका अर्थ हुआ वाक्कुशल या वाग्विद। गार्गी को वाचक्नवी कहा गया है, वचक्नु की पुत्री । हो सकता है वाग्विदा आशय न समझ में आने पर इसे अपत्यार्थक बनाया गया हो।

जो भी हो यह क्न हमें अंग्रेजी के know और knowledge में मिल जायेगा । इसकी व्युत्पत्ति में इसे लातिन के ग्नोस् से निकला बताया जाएगा।

हम इसके लुप्त रूपों की कल्पना करते हुए यह दावा कर सकते हैं कि कन् के चवर्ग प्रेमी और घोषप्रेमी संपर्क में कन, गन और जन तीन रूप प्रचलित हुए जिनका विकास (अ)कनना, गनना, जनना/जनाना/ जानना में हुआ। इनका संस्कृतीकरण क्न, ग्न, ज्न में हुआ। ज्न के न को च के सान्निध्य के कारण चवर्ग का अनुनासिक बनाया गया िजससे ज्ञ संयुक्ताक्षर बना और जान ज्ञान बन गया ।

इस तरह सं. ज्ञान भले देववाणी मे न मिले इसका प्राथमिक रूप देववाणी में तो मिलता ही है यूरोप में केल्टिक स्रोत से पहुंचे क्न और अनातोलियन स्रोत से लातिन और ग्रीक में पहुंचे ग्न: जिसे ग्नोस बना लिया गया, में भी मिलता है । इन तीनों का रहस्य देववाणी में खुलता है। रोचक बात यह कि संस्कृत के आचार्यों ने भी क्नूयी/ ग्नूयी धातुओ की कल्पना कर ली थी इस लिए क्न/ क्नु/ क्नवी की हमारी व्याख्या यदि किन्ही लोगों को दूर की कौड़ी लगी हो तो वे इससे सन्तुष्ट हो जाएंगे ऐसी आशा है ।

मैक्समूलर ने सस्कृत के महत्त्व पर बात करते हुए कहा था कि जर्मन. ग्रीक, लैटिन जहा एक दूसरे से नहीं मिलती वहां सभी का समाधान संस्कृत से हो जाता है. हम कह सकते हैं कि जहाँ संस्कृत भी कुछ गुत्थियों का समाधान नही कर पाती और लगता है कि अधिक पुराना या उतना ही पुराना रूप तो यूरोपियन शाखाओं में से किसी के पास है तो उनके पीछे का इतिहास देववाणी के पास है.

यदि यह पता चलने के बाद कि ध्वनि नियमों से जिस ध्वनिमाला का अनुमान होता है वह तो भोजपुरी में सुरक्षित है और उसी श्रम से इसका अध्ययन किया गया होता तो PIE की फर्जी कवायद से बच कर भारोपीय समुदाय की भाषाओँ को अधिक गहराई से समझा जा सका होता.

परन्तु न तो सुचना माध्यमों को अपनी साख की चिंता है न ही ज्ञानशास्त्रीय संस्थाओं और पंडितों को अपनी साख की चिंता रही है और जैसे प्रचार माध्यमों का लक्ष्य अपनी गलत बात को भी सही मनवाना रहा है वैसे ही प्रकाशन माध्यमों का लक्ष्य पश्चिम का वर्चस्व स्थापित करना रहा है और इसके लिए वे अपनी साख की भी चिंता न करते रहे हैं, न करना चाहते थे, न करना चाटते हैं और हमने अपना सर उनके फंदे में दे कर यह मान बैठे हैं की लो बिना कुछ किये कराये हमे सब कुछ बना बनाया मिल रहा है. यही है हमारा कुशिक्षित बौद्धिक वर्ग. हमें इससे भी लड़ना है, उनसे भी लड़ना है और यह सुचना पाकर तालियां बजाकर खुश होने वाले दिवालिये संस्कृतिवादी उपद्रवियों से भी लड़ना है. साथ कोई नहीं सम्बल सत्य का जिसकी ऐसी व्याख्याए भी सम्भव हैं कि सत्य की रक्षा के लिए सबसे पहले आप के ही गले की माप ली जाए,