Post – 2017-04-26

देववाणी (सोलह )

ज्ञान की बात

भाषा एक ऐसा बैंक है जिसमें अच्छी बुरी, पवित्र अपवित्र सभी चीजें जमा की जा और निकाली जा सकती हैं। दो लोग अपनी गुप्त भाषा तैयार कर के अपनी शर्त रखते हुए बात कर सकते है, पर इस सामाजिक बैंक या महाकोश में जो भी चीज किसी कारण से कुछ लोगों को भा गई और वे उसका प्रयोग करने लगे तो वह कृत्रिम हुआ तो भी चलन में आ जायेगा। प्राकृत और अपभ्रंश में तो साहित्य तक रचा जाने लगा था इसलिए उनमे जो एक ख़ास झक में ध्वनि परिवर्तन से रचा जाने लगा उसका भी कुछ अंश बोलियों में आया । इससे यह नहीं माना जा सकता कि वे उस समय की उस अंचल की भाषा बन गई थीं इसका सबसे अच्छा जवाब विद्यापति और भोजराज हैं। विद्यापति ने संस्कृत में भी रचना की, प्राकृत में भी और मैथिली में भी। प्राकृत संस्कृत कि ध्वनियों में शूरसेन या महाराष्ट्र में इस अनुमान पर कि यदि कोई अनपढ़ संस्कृत की उसी रचना को पढ़े तो अमुक रूप में उच्चारण करेगा, गढ़ कर तैयार की गई, साहित्यिक भाषा थी।

कहें वही कवि दो तरह की संस्कृत लिख रहा है, एक शिक्षितों की संस्कृत और दूसरी गवारों की संस्कृत। पर गवांरो की संस्कृत भी अपने क्षेत्र के गंवार की नहीं दूर शूरसेन या महाराष्ट्र के प्राकृत लेखकों द्वारा कल्पित अपने क्षेत्र के गंवारों की संस्कृत । परन्तु शूरसेन और महाराष्ट्र की प्राकृतों में गहरी समानता है। दोनों क्षेत्रों के गंवारों की भाषाओँ में भारी अंतर था! इसलिए हम कह सकते हैं कि पूरे देश के संस्कृत जानने वालों की जैसे एक भाषा थी वैसे ही पूरे देश के गंवारों के लिए एक कल्पित भाषा प्राकृत के रूप में तैयार हुई जिसमें भूल चूक से ही स्थनीय ध्वनि के अनुसार कोई परिवर्तन मिलता है और इन्ही के नाम पर प्राकृतों के अन्य भेद कर लिए गए।

मिथिला में मैथिल बोली जाती थी न कि संस्कृत या प्राकृत । जो लोग संस्कृत समझते थे वे ही प्राकृत समझ सकते थे परन्तु संस्कृत प्राकृत की अपेक्षा अधिक आसानी से समझ सकते थे। जैसे संस्कृत भारत में कहीं भोली नहीं जाती थी उसी तरह प्राकृत भी और इसी तर्क से अपभ्रंश भी कहीं नहीं बोली जाती थी पर इस कृत्रिम साहित्यिक भाषा को संस्कृत जानने वाले पुरे भारत में समझ सकते थे और इसमें रचना कर सकते थे।

देववाणी के विकास के कई चरणों में भी इसका संपर्क तो जन से बना रहा और यह स्थिति ऋग्वेद के समय तक बनी रही पर भारत का यह दुर्भाग्य है कि संस्कृत के बाद कोई भाषा जमीन से जुडी नहीं रही। संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश सभी किसी क्षेत्र में नहीं बोली जाती थीं, परन्तु साहित्यिक भाषा के रूप में एक विशाल क्षेत्र में शिक्षित अल्पमत के द्वारा समझी और बोली जाती रहीं और उनमे साहित्य भी रचा जाता रहा।

इस दृष्टि से भोजपुरी, अवधी ब्रज, कौरवी, पंजाबी आदि सभी बोलियां संस्कृत और वैदिक से अधिक पुरानीं हैं और मामूली भिन्नता के साथ लगातार बोली जाती रहीं । यही हाल द्रविड़ और मुंडा समुदाय में आने वाली बोलियों का है। यद्यपि विगत आठ-दस हज़ार सालों के दौरान इनमे साहित्यिक बालियों और समाज-रचना में बद्लाव और तकनिकी व उद्योग में विकास के कारण इनका चरित्र इतना बदला है और इन्होने एक दुसरे से इतना लेने देने अपनी निजता की रक्षा के प्रयत्न के बाद भी किया है कि हम इनके आदिम स्वरुप की कल्पना भी नही कर सकते। इतना दावे के साथ अवश्य कह सकते हैं कि ये किसी आद्य भाषा के ह्रास या बिखराव से पैदा हुई संताने नहीं हैं न ही इनको किसी एक परिवार या अलग परिवारों में रखना सही है।

इनमें जो समानताएं हैं वे कई कारणों से पैदा हुई है, जिनमें से एक है आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों किसी भाषा का कुछ समय का वर्चस्व जिसका इतिहास तलाशना हमेशा संभव नहीं होता।

जिस समय भाषाविज्ञानी भारोपीय समुदाय की भाषाओं का वंशवृक्ष तैयार कर रहे थे और भारोपीय परिवार का दायरा तय कर रहे थे तब तक किसी भाषा के प्रसार का कोई ऐसा कारण नहीं दीख रहा था जिसके माध्मम से इस प्रसार को संभव माना जा सके इसलिए उन्हें आक्रमण की कल्पना करनी पड़ी, इसकी उनहोंने तलाश भी की पर हाथ यह आया कि भारतीय साहित्य में किसी आक्रमण का प्रमाण है ही नहीं। परन्तु इसकी उपेक्षा कर दी गई ।

जहाँ से वे आक्रमणकारियों को निकल कर भारत की ओर बढ़ते दिखाते थे वह चरवाही की अवस्था में था। चरवाहे अपना ढोर गोरु संभालते हैं। वह एक बड़ा और चौबीस घंटे का काम होता है। वे अपने जानवरों का झुण्ड लिए जाने किन किन इलाकों में घूम आते हैं और यदि कहीं पहुँच कर चरागाह का आभाव न दीखा तो उसी में विचरण करते हैं कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता।

पाकिस्तान में ब्राहुई की पहाड़िया हैं। इनमे निवास करने वाले लोगो की भाषा में बहुत से द्रविड़ शब्द हैं। ये चरवाहे है और जिस समय के इतिहास का मुझे पता है उसमें ये सर्दियों में पंजाब के मैदान में आ जाते थे और गर्मियों में मध्येशिया तक का चक्कर लगा आते थे, पाकिस्तान बनने के बाद भी ऐसा ही करते होंगे । अपने देश में जाट, गूजर आदि कब आये कैसे आये किसी को पता ण चला, पर उनको अपने रेवड के साथ घुसने के लिए उन्हें युद्ध या आक्रमण नहीं करना पड़ा। जो बस गए वे बस गए जो पशुचारण करते रहे उन्हें एक इलाके से दुसरे में जाने के लिए कभी न आक्रमण करना पड़ता है, न वे किसी के लिए कोई समस्या खड़ी करते है।

फिर जहाँ से आक्रान्ताओं के चरवाहों के आक्रमण की कहानी गढ़ी गई वहाँ तो घोड़े पाले जाते थे, गोरू तो वहां पाले जाते न थे। गजब का विद्रूप पैदा किया गया:
तेज दौड़ने वाले घोड़ों पर तलवार ताने हमलावरों का सामना करने वाला कोई था नहीं इसलिए वे मारने, काटने, लूटने को स्वतंत्र थे ही। यही उन्होंने किया पर ईसा के ५०० सौ से पहले घोड़े की पीठ पर सवारी नही होती थी, क्योंकि वन्य घोडा या तार्पान की रीढ़ इतनी मजबूत न थी! उसका उपयोग रथों में ही संभव था।

अब झमेले दो तरह के थे: तेज गति से चलने वाले आक्रमणकारी हिन्दू कुश को अपने रथों के साथ कैसे पार कर सके?

घोड़ो पर सवार चरवाहे गोरुओं को उसी गति से हांक कर कैसे भारत में प्रवेश कर सके?

हम कहें कि इन सारी अनर्गलताओं को उन्होंने स्वयम स्वीकार किया और फिर भी इन्हें चलाते रहे तो इसका कारण यह था कि यह उनकी ऐतिहासिक जरूरत थी। तुमने हमला कर के यहाँ के आदिवासियों को अधीन किया उसी तर्क से हमने तुम्हें परास्त कर के अपना अधिकार जमाया। यही तर्क मुस्लिम आक्रान्ताओं के वंशज होने का दावा करने वालों का था, इसलिए आर्य आक्रमण का खंडन हो जाय तो भी वे इसे किसी ण किसी बहाने की तलाश करके मानेंगे नहीं।

हम यह कहना चाहते है कि जिस सूचना संसार में आर्य आक्रमण की कहानी रची गई उसमे बहुत से अन्तर्विरोध थे परन्तु इनको नजरंदाज किया गया . इसी ज्ञान जगत में वे सारी कहानिया इतिहास का तथ्य बना दी गई और आगे की खोजो के लिए इन्हें निकष बना कर उन्हें स्वीकार्य और त्याज्य बनाया जाता रहा. इसी तर्क से उत्तर भारत की बोलियों को बाहर से आई संस्कृत की संताने बता कर इन्हें भारतीय आर्य भाषा परिवार की मान्यता को बल दिया गया जो सरासर गलत है क्योंकि संस्कृत स्वयं उहाँ की एक बोली की प्रपौत्री है न कि किसी की जननी।

यदि पहले नही तो हडप्पा सभ्यता और इसके विदेशी अड्डों का पता चलने पर पुनर्विचार जरूरी था जो नहीं किया गया। उलटे इसका उल्टा पाठ किया जाता रहा। अब जब आर्य आक्रमण भी खंडित हो गया है और यह सिद्ध हो गया है कि वैदिक साहित्य के रचयिता हडप्पा की उपादान संस्कृत के निर्माता ही थे तो भी वे भाषा वैज्ञानिक दलीलों की आड़ में पुराने राग ही अलापते ।

हमें इतिहास के फरेब से बाहर आने के लिए इस सचाई को जानना जरूरी है कि जिसे भाषाविज्ञान बताया जाता है उसके विज्ञान में कलाकारी अधिक है और इसे समझने में साहित्यिक भाषाएँ नही हमारी बोलिया अधिक सहायक हैं और अधिक प्राचीन भी। पाश्चात्य परिकल्पनाएं पोर पोर टूटती और बिखरती जाती है पर प्रचार साधनों के बल पर जिन्दा रखी जाती है। वर्चस्य के लिए वे यह खर्च करते हैं और हम उनके पत्रों और सेमिनारों के सामने निरस्त्र अनुभव करते हैं। हमारा रक्षाकवच है हमारा आत्मविश्वास जो जरूरी होकर भी उसी तरह हमारे पास नहीं है जैसे भारत चीन युद्ध में भारतीय सैनिकों के पास बर्फ में काम आने वाले जूते और कपडे तक नहीं थे।