#आइए_शब्दों_से_खेलें (7)
भौंह
भौंह के लिए संस्कृत में भ्रू का प्रयोग होता है जो अंग्रेजी में महाप्राणता के लोप के कारण ब्रू (brow) हो गया है। कोई चूक न होने पाए इसलिए इससे पहले आई (eye) लगाना जरूरी समझा गया। पर दोनों के योग से और भौंह की आकृति से यह भ्रम हो सकता है कि ब्राउ का सगोत कहीं बाउ=धनुष न हो, जिससे इसकी तुलना की जाती है। भ्रू का वैकल्पिक रूप भृकुटि है। इसमें कुटि का कुटीर उद्योग से कोई संबन्ध नहीं, कुटिलता से अवश्य है जिसके लिए कौटिल्य को जाना जाता है।
भौंहों को लेकर इतने मुहावरे हैं कि उनसे ही पता चल जाता हैं कि इनका आंखों से निकट का नाता है। जो भी हो भ्रू और भृकुटि दोनों में से कोई, देववाणी में क्या भोजपुरी तक में नहीं चल सकता। इसके बाद भी घोष-महाप्राणता के कारण यह मानना होगा कि इसका निर्गमन देववाणी से ही हुआ हो सकता है। देववाणी में हिन्दी की भौंह तक का प्रवेश नहीं, उसमें ऐ, औ की ध्वनि ही नहीं। भोजपुरी में भउहां और भउहीं दोनों चलते हैं।
संस्कृत पर्यायों को यह संज्ञा क्यों मिली इसका पता नहीं चलता, पर भउहाँ और भउहीं के भउ को आप भउरा और भउरी की मदद से समझ सकते हैं। भउ का अर्थ मद्धिम ताप की आग जो भूसी, सूखी पत्ती आदि जलाने से पैदा होती है और रा/री=वाला, वाली। ये र/रा/री देववाणी के प्रत्यय हैं जो यूरोप तक पहुंचे हैं: राउ=राजा, समक्ष उपस्थित आदरणीय व्यक्ति। राउर =आपका, you>your.अत: भउ=मद्धिम आंच, भउरा=मद्धिम आँचवाला, भउरी= मद्धिम आँच पर पकाई हुई। इसका नतीजा यह कि आप आँखों से आग बरसा सकते हैं पर भौंहें सिकोड़ कर भी नाराजगी जताने से आगे नहीं बढ़ सकते।
खैर हम पाते हैं कि (१) मूलत: यह संज्ञा, देववाणी की है जिसके भउ और र/रा दोनों का कचूमर करने से संस्कृत का भ्रू बना है, (२) आंखों के पड़ोस का लाभ यह कि इसका भी प्रकाश का सीधा नाता न सही, भावप्रकाशन का नाता तो है ही।