#इतिहासः_दुबारा_लिखो
इतिहास की नशाखोरी
इतिहास का ज्ञान हमारी मनोरचना को इस सीमा तक प्रभावित करता है कि इतिहास का ऐसा पाठ तैयार किया जा सकता है जिसको पढ़ कर आप अपने आप से घृणा करने लगें या एक भिन्न पाठ से दूसरा इस पर इतना गर्व करे कि वह आत्मरति से ग्रस्त होकर अपनी परछाईं को देखता हुआ मर जाए। यह संभव है कि दोनों तरह के इतिहासकार अपनी गलती को न पहचानते हुए, दूसरे की गलती को असह्य मानते हुए, उसे सुधारने के लिए एक ही समाज में इन दोनों विरोधी प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियों को बढ़ावा दें और यह भी न समझ सकें कि इनमें विरोध है ही नहीं।
विष कड़वा हो या मीठा हो, उसका प्रधान गुण कड़वापन या मिठास नहीं है, अपितु उसकी मारक क्षमता है। नशीला पदार्थ रासायनिक हो या वानस्पतिक दोनों का परिणाम एक ही होता है, बदहवासी के रूप भले अलग हों। यथार्थ में कुछ जोड़कर उसे महिमा मंडित किया जाए, या कुछ छोड़ कर उसे विकृत किया जाए, दोनों स्थितियों में सत्य को नष्ट किया जाता है,और असत्य को स्थापित किया जाता है।
सत्य को नष्ट करने वाले, झूठ का प्रचार करने वाले, अपने ही समाज को गुमराह करने वाले, अपनी समझ पर विश्वास करने वालों के साथ विश्वासघात करने वाले, उनके हितैषी नहीं हो सकते। ये दोनों ज्ञान का नहीं नशे का कारोबार करते हैं और हमारे दुर्भाग्य से हमारे पास ये दोनों कारोबारी ही हमारे सलाहकार बने रहे हैं।
नशीले द्रव्य से मुक्ति का एक ही उपाय है कि हम जिसके आदी हैं उससे परहेज करें। हम उस इतिहास की तलाश करें जिसका बहुत कुछ छोड़ दिया गया है और जो बच रह गया है उसी से सभी नतीजे निकाले गए हैं। कहना चाहें तो कह सकते हैं कि हमें अपने निहित स्वार्थों के लिए इतिहास का अंग भंग करते हुए उसे लुंज पुंज बनाने वालों को अपराधियों की कतार में खड़ा करना चाहिए और उपेक्षित या तिरस्कृत या बहिष्कृत तथ्यों और सूचना के स्रोतों का उपयोग करते हुए एक स्वस्थ, आत्मनिर्भर, पूर्णांग इतिहास की प्रस्तुति करनी चाहिए।
इसे दुहराना जरूरी है कि इतिहास हमारे निजी और सामाजिक मानस के निर्माण का सांचा है , दुर्भाग्य से इस सांचे को समाज का अहित करते हुए अपना हित साधने वालों ने जगह जगह से तोड़ा है जिससे विकलांग इतिहास. विकल समझ, विकलांग समाज पैदा होता है । इस सांचे को जहां जहां से तोड़ा गया है, सही करना होगा और सही करने का एक ही तरीका है – उन तथ्यों पर ध्यान देना जिनको जो़ड़ा या
छोड़ा गया है, सूचना के उन स्रोतों का उपयोग करना जिनको किन्ही कारणों से दरकिनार कर दिया गया और जिनके उपयोग से ही हम इतिहास को जान सकते हैं।
विश्व इतिहास को भारत में उपलब्ध स्रोतों के अभाव में समझा ही नहीं जा सकता। इन स्रोतों की उपेक्षा की गई, यह मैं आज पूरे विश्वास से बता सकता हूं; किस सीमा तक उपेक्षा की गई, यह भी बता सकता हूं; परंतु यह नहीं बता सकता कि जिन कारणों से उपेक्षा की गई उनके पीछे समझ की खोट कितनी और नीयत की खोट कितनी थी। हां यह अवश्य बता सकता हूं कि खोट के दोनों रूपों का लगातार उपयोग किया गया जिसके कारण हमें विकसित विज्ञान और पंगु मानवता मिली।
भारत में जो उपलब्ध है और जो अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है वह है पौराणिक परंपरा अर्थात् समृद्ध श्रुत परंपरा, उन बोलियों के भीतर बचे हुए वे आद्य रूप जिनमें से किसी एक के उत्थान से भाषा का वह क्रमिक उत्थान हुआ था जिसे हम संस्कृत के रूप में पाते हैं परंतु जिसका प्रसार संस्कृत के अस्तित्व में आने से पहले किसी चरण पर पूरे भारोपीय परिदृश्य में हो चुका था, वे कालातीत हो चुके रीतिविधान, कर्मकांड, वेशविन्यास, खान-पान और वे पर्व और प्रतीक जो अन्यत्र या तो थे ही नहीं या जिस भी अनुपात में थे, संदर्भहीन होने के कारण या ईसाई या इस्लामी उन्माद में नष्ट कर दिए गए।