#इतिहास_दुबारा_लिखो
इतिहास होता नहीं है, रचा जाता है
अतीत की घटनाएं इतिहास नहीं है। उनकी स्मृति इतिहास है। स्मृति बिखरे हुए अनुभव बिंबों का संयोजन है। याद संजोई जाती है। इतिहास रचा जाता है।
किसी अवसर पर जब हम अपने विषय से संबंधित स्मृति-खंडों को वांछित रूप में संयोजित नहीं कर पाते हैं, तो बेतुकी बातें करते हैं। सुनने वाले व्यग्र हो जाते हैं। हम ज्ञान बघारते हैं और वे यातना के दौर से गुजरते हैं। ऐसा ही अधकचरे इतिहास को सही मान कर उसे सही सिद्ध करने की हमारी कोशिशों से भी होता है। अधूरे और असंबद्ध ( असंगतियों और विसंगतियों पर के बाद भी सत्ता के समर्थन से खड़े और लादे) गए इतिहास को पढ़ने वाले समाज के साथ भी यही होता है।
हमारे व्यक्तिगत अनुभव बिंब हमारी चेतना में बिखरे होते हैं। जातीय अनुभव खंड उन स्रोतों में में बिखरे होते हैं जिनका हमारे जीवन से वास्ता होता है परंतु सही वक्त पर जिनमें से सभी की ओर हमारा ध्यान नहीं जा पाता और हम जिन को पूरी तरह संयोजित नहीं कर पाते। इसलिए इतिहास उन स्रोतों की खोज, उनमें बची रह गई यादों को निकालने और उनकी अपनी युक्ति के अनुसार, न कि अपनी योजना के अनुसार, जोड़कर, एक निर्मिति तैयार करने जैसा काम है।
ध्यान रखें आप उन्हें जैसे चाहे वैसे जोड नहीं सकते, वे जहां जुड़ सकते हैं, जैसे जुड़ सकते हैं, वैसे ही जोड़ कर, उनकी चिंदियो का भी पूरा सम्मान करते हुए, उन्हें उनकी जगह पर रखते हुए ही, आप जहां तक संभव है, उनका पूर्वरूप तैयार कर सकते हैं।
पुरातत्वविदों को मलबा मिलता है, कृतियां नहीं मिलतीं, उनको जोड़ कर कल्पना से वह एक यथार्थ तैयार करते हैं जो लगता यथार्थ है पर यथातथ्य हो नहीं पाता, फिर भी जब तक किसी भांड के टुकड़े एकत्र मिल जाते हैं, और उनको जोड़कर वे उसका पूर्वरूप तैयार कर देते हैं।
यह साधारण काम नहीं है। आपने ब्लाक-बिल्डिंग पहेलियों में खंडों को सही-सही जोड़कर, पूर्ण आकार देने की चुनौती का सामना किया होगा। पुरातत्वविद का यह काम उसकी तुलना में कई गुना कठिन काम है। ऐतिहासिक पुनर्निर्माण इससे भी अधिक चुनौती भरा काम है।
लोग खास करके इतिहास का अपने लिए उपयोग करने के लिए व्यग्र लोग इतिहास को समझना नहीं चाहते। उसे समझे बिना उसका सही उपयोग नहीं हो सकता। परंतु इतिहास की समझ उनके इरादों के अनुकूल नहीं पड़ती, इसलिए वे सोचते हैं कि उनको अपनी जरूरत के अनुसार, जहां जी आए वहां जोड़ सकते हैं। सभी टुकड़े जुटाने की भी जरूरत नहीं समझते। वे अपने बेतुके जोड़ से पैदा होने वाली खाली जगहों को छोड़ सकते हैं। इससे इतिहास की समझ पैदा हो या न हो, उनका काम चल जाएगा ।
परंतु सचाई यह है कि इतिहास का जो सही बोध हो सकता है उसका तो वे सत्यानाश करते ही हैं, जिन प्रयोजनों के लिए अपने बेतुके इतिहास का इस्तेमाल करते हैं, उनका भी अहित करते हैं। परिणाम को अपनी अपेक्षा के विपरीत देखकर खीझते भी हैं कि यह हो क्या रहा है? हो कैसे रहा है?
इतिहास रचा तो जाता है , परंतु हमारी इच्छा के अनुसार नहीं, बल्कि बिखरे हुए स्मृति खंडो की अपनी शर्तों के अनुसार। यह रचना नहीं है, पुनर्संयोजन है। इतिहास की समझ उन महान इतिहासकारों और सिद्धांत कारों में भी गायब मिलती है जिनसे हम इतिहास की परिभाषा और इतिहास का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। जरूरत इतिहास को दुबारा लिखने की ही नहीं, नए सिरे से परिभाषित करने की भी है जिसके बाद वह सचमुच विज्ञान बन सकता है।