Post – 2017-10-27

बाबा के कोठारे साठी धान, नर सुग्गा

गोधन के चित्रांकन में केंद्रीय आरेख एक बलिष्ठ व्यक्ति का था जो इस अर्थ में सबसे मोटा था कि उसकी जांघें आजू बाजू फैली, और पांव घुटने से मुड कर नीचे लंबवत लटक कर आधाररेखा रहित चतुर्भुज जैसे थे। धड़ के लिए एक सीधी रेखा जिससे पांवों की तरह ही आजू-बाजू फैली भुजाएं और कोहनी से ऊपर को तने हाथ। धड़ की रेखा उठ कर गले तक जाती और उसके ऊपर सिर के नाम पर गोबर का सबसे बड़ा गोलाकार पिंड। ऊपर तने हाथों के ऊपर एक दूसरे से जुड़े त्रिकोणों के गोबर रेख जो सर की तरह बीच में भरे न थे।

यदि अनाज की ढेर का आरेख बनाएं तो ऐसा ही होगा।

ढेर किस बोली का शब्द है इसे हम नही जानते। यहाँ तक की इसका अर्थ भी ह्रास का शिकार हो गया है। इसका मूल अर्थ था पहाड़। ढेरी का अर्थ था पहाडी। टीला।

जब हम मंडी में अनाज की ढेरी की बात करते है तो अनाज के टीले की बात करते हैं और ढेरों की की बात करते समय ढेलों से भी इसका कोई संबंध हो सकता है यह भूल जाते हैं।

ढेली और ढेरी में भी कोई नाता हो सकता है इसका ध्यान तो रख ही नहीं सकते।

पत्थर की चट्टान तोड़ते समय कई बार घन चोट करने से हल्की दरार पड़ती है, याने चट्टान रंच भर खिसकती या ढीली पड़ती है उससे ढीला पड़ना, ढील देने का जातक शायद आप को दिखाई न दे। और उसके टूट कर गिरने से किसी के ढेर होने के मुहावरे का संबंध है, इसका ध्यान आप को न रहा होगा यह मैं दावे के साथ कह सकता हूं क्योंकि इससे पहले मुझे स्वयं इनका ज्ञान न था।

मैं जानने के लिए लिखता हूं, जो कुछ जानता हूं और लिखने के क्रम जो पता है उसे जांचने के लिए लिखता हूं, और लिखने के बाद भी आप की आलोचनात्मक टिप्पणियों को आमंत्रित करते हुए अपने को बदलने के लिए लिखता हूँ। मैं मसीहा नहीं हूँ व्याधिग्रस्त हूँ। व्याधिग्रस्त सम्माज का सदस्य। जैसे सब कुछ साझा करता हूँ वैसे ही अपनी व्याधियों की पहचान और उनसे मिक्त होने के उपाय भी आपसे साझा करना चाहता हूँ । पूर्ण ज्ञान, अकाट्य मान्यता पर पहुंचे लोग मेरे मित्र नहीं हो सकते। वे अपनी बीमारी तक से प्यार करते हैं और स्वस्थ होने की कल्पना से भी घबराते हैं.

यदि आप कहें कि यह कैसा आदमी है जी बात तो गोवर्धन की करता है और बहकने लगता है तो मैं यह बताना चाहूंगा कि लिखना आरम्भ करने से पहले मैं स्वयं नही जानता कि किन सवालों से टकराना होगा। मैं गोबर पर नहीं उन समस्याओं से टकराने के लिए लिखता हूँ जिनका फलक व्यापक है। आप को अपने साथ ले चलना चाहता हूँ, चल सकें तो

अर्थविचार में जिस कामचलाऊपन का सहारा लेना पड़ता है उसमे सांड के डील या ककुह/ककुभ का एक अन्य अर्थ पहाड़ की चोटी और आकाश का सिरा भी होता है। नए शब्द गढ़ना नया मकान बनाने से भी अधिक कठिन काम है, इसलिए एक ही शब्द के तम्बू में उसके मूल अर्थ के विरोधियों को शरण देनी पड़ती है।

कूट का अर्थ जमाव, संहति, पहाड़ की चोटी और इसे ही कूटने. तोड़ने, छल-कपट के आशय में प्रयोग में लाना पड़ता है। भाषा एक कामचलाऊ व्यवस्था है जिसके माध्यम से न तो हम अपने विचारों को संतोषजनक ढंग से व्यक्त कर सकते हैं, न संवेदनों को, न अनुभूतियों को। परन्तु यदि यह भी न रह जाय तो हमारे पास न विचार रह जाएंगे, न संवेदन, न अनुभूतियां। हम दहाड़ने वाले अंध-आवेग-चालित पशुओं में बदल जाएंगे ।

काठक संहिता का एक कथन है, ‘वाचा ह वै मनुष्या अजायन्त।‘ वाणी से मनुष्य पैदा हुए। हम इसका भाष्य करते हुए कह सकते हैं कि भाषा की मर्यादा की रक्षा करते हुए ही मनुष्यता की और अपने सम्मान की रक्षा की जा सकती है। दुर्भाग्य से आज भाषा की गरिमा और मनुष्यता की गरिमा उनके द्वारा नष्ट की जा रही है जिन पर इनकी रक्षा का भार था। वे ही नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।

पर इलाज तो मेरा भी नहीं है, बिन पिए ही बहकता और गिरता रहता हूं। बताने चला था कि गोधन का वह केंद्रीय चित्र जो आढ्यता का मूर्त रूप था, जिसने ढेर के ढेर अन्न संचित कर रखे थे, क्या उसका चित्रण था जिसके आधार पर कृष्ण द्वारा गोवर्धन उठाने की कथा की प्रेरणा मिली। क्या लंगड़ बाबा जिसका अंकन ठीक इसके सामने हुआ था दरिद्रता का प्रतीक था।

ये दोनों चिन्ह और साथ ही स्वस्तिक और बिच्छू का अंकन सैंधव मुद्राओं पर भी मिलता है। उनमें भी इनका यही आशय था या नहीं हम नहीं जानते। गोधन के चित्रलेखन पर हड़प्पा के चिन्हों का प्रभाव पड़ा था या नहीं, हम नहीं जानते। एक वृद्धा ब्राह्मणी इस चित्रांकन के सहारे पूर्ववृत्त समझाती। वह मैने न सुनी पर इस बात का पक्का भरोसा है कि उसे इन बातों का पता न रहा होगा।

सबसे विचित्र बात यह कि कथा सुनने और खील बताशा आदि अर्पित करने के अतिरिक्त इस चित्रांकन को बेर आदि के कांटों से ढक दिया जाता था। कहना चाहें तो कहें खील बताशे आदि के साथ कांटे भी अर्पित किए जाते ।

इसके बाद कूट का दूसरा अर्थ प्रकट होता, अर्थात् मूसल से इस चित्ररचना की कुटाई होती और फिर कूट के बाद लूट, वह भी गोबर की।

इस लूट के गोबर से ही ल़ड़कियां पिड़िया सजातीं। ये एक तरह से गोबर चिपका कर बनाए गए बार या लकीरें थीं जिनकी एक पंक्ति के नीचे दूसरी तीसरी कई पंक्तियां थीं। ठीक कितनी इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। सच तो यह है कि पिंडिया और झिझिया शुद्ध रूप से लड़कियों के आयोजन थे, जिसमें उनका नाच गाना चलता। परंतु इसका जो पक्ष सबकी नजरों में आए बिना रह नहीं सकता था, वह था झिझिया का मटका । इसे सिर पर रखे समवयस्क किशोरियों एक दूसरे के घर गाना गाते हुए जाती और फिर जहां पिंड़िया सजी है वहां नाचना गाना। जिस मटके को वे सिर पर संभाले गाती चलतीं उसमें छिद्र बने होते और मटके के भीतर दिया जलता रहता। सांझ के धुंधलके में दिए जगमगाहट और उनके झुंड पर पड़ती झिलमिल रोशनी तिलस्मी प्रभाव डालती और गाना रोशनी का हिस्सा बन जाता। गाने की केवल एक पंक्ति स्मृति मे टंकी रह गईः

बाबा के कोठारे साठी धान, नर सुग्गा।

अब जिस पक्ष पर ध्यान जाता है, वह यह कि यह भी समृद्धि से जुड़ा और तोता-मैना जैसी संवादशैली में रचा गया गाना था। तब जिस बात से उलझन पेश आती थी वह साठी शब्द को लेकर थई। साठी धान का अर्थ मैं साठ साल पुराना धान समझ बैठा था । सोचता इतना पुराना धान कोठार में भरा था तो बाद का अनाज कहां रखा जाता रहा होगा। अपनी समझ पर भरोसा न था, बड़े लोगों से सहमा रहता इसलिए किसी से जिज्ञाषा नहीं की ।
(बाकी कल)