Post – 2017-10-29

झिझिया

हमारी चर्चा मेरे ज्ञान का प्रसार नहीं, अपितु क्षीण और धुंधली स्मृतिरेखाओं को आयास पूर्वक निखारते हुए अपने अतीत जीवन और परिवेश को समझने का प्रयास है । आप की टिप्पणियां भूली हुई कड़ियों को उजागर करने में भी सहायक हो सकती हैं और उन सांस्कृतिक गुत्थियों को समझने समझाने में सहायक भी जिनका तर्क, हो सकता है, उनकी समझ में न आया हो जिनकी स्मृति अधिक स्वच्छ है। मुझे ऎसी दो टिप्पणिया मिली जिनका इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है.

अत्रि अंतर्वेदी के अनुसार “राजस्थान में हीड़, हरयाणा में सांझी, ब्रज व बुन्देलखण्ड में झिझिया और टेसू ये सभी एक जैसे अनुष्ठान के रूप हैं।“ आगे उन्होंने यह कहते हुए एक लिंक दिया है, “सांझी के विषय में आप इसे देख सकते हैं।”

उन्होंने एक सर्वे पर आधारित जिस विवरण का लिंक दिया है वह कई दृष्टियों से बहुत रोचक है, परंतु उसका अन्नकूट, गोधन, परिवा, भैया दूज और पिंडिया-झिझिया से कोई संबंध नहीं।

दृष्टि का मुख्य अंतर यह है कि ये पौराणिक परंपरा – मुख्यतः महाभारत की कथाओं के लौकिक सर्तजनात्मक संस्करण और श्रीनिवासन के शब्दों में कहें तो उसका संस्कृतीकरण है। गोधन से गुंथे आयोजनों का भी संस्कृतीकरण करने के अर्थात् राम और कृष्ण से जोड़ने के जोरदार प्रयास हुए हैं परंतु इनकी प्रकृति भिन्न है।

दोनों का फर्क यह है कि संस्कृतीकरण ब्राह्मणों के द्वारा किया गया। अपने आतंककारी आडंबर के बाद भी यह भोंड़ा, अतर्क्य, अविश्वसनीय है, और इसका ऐतिहासिक मूल्य शून्य है, जब कि लोकपरंपरा की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां यथार्थवादी हैं, गहरे निजी और सामाजिक सरोकारों से उत्पन्न हैं इसलिए मर्मस्पर्शी हैं और इनको आधार बनाकर इतिहास लिखा जा सकता है या इतिहासलेखन में इनका पूरक साक्ष्यों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसके बाद भी लोक के पास शास्त्र पहुँच कर कैसे गीली मिट्टी बन जाता है और लोक की सर्जनात्मकता को किस तरह उत्तेजित करता है जिससे एक लौकिक पुराण कथा का समानांतर विकास होता है, इसके अध्ययन के लिए यह बहुत उपयोगी है, परन्तु वः हमारे आज के सरोकार से बाहर है।

दूसरी टिप्पणी सनातन कालयात्री की है जो भी एक लंबे कथाबंध में पिरोई हुई है , परंतु इसमें दो तीन सूचनाएं बहुत उपयोगी लगीं जिनसे मेरी आशंकाओं का भी निवारण हुआ। पहला यह कि गोधन परिवा के अगले दिन मनाया जाता है, और पूर्वांचल में भाईदूज का यही रूप है। दूसरा गोधन में काँटों को रखने को लेकर था। यह इतना अटपटा लग रहा था कि मुझे लगा मेरी याददाश्त में ही कहीं कोई घालमेल हो रहा है। भटकटैया का तो मैं नाम ही भूल गया था।

इसमें एक नया तत्व जो जुड़ गया वह भाइयों को सरापते हुए उनका अनिष्ट कामना का है जिसका मुझे अब भी स्मरण नही, पर इसका औचित्य भी समझ में आता है और इससे इसकी प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है।

कहाँ पश्चिमी क्षेत्र में इस्सी उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला भैया दूज, और कहाँ भाई को सरपते हुए उसके अमंगल की कामना और गत्ते बताशे और चीनी के घोड़े हाथी चढाने के साथ ही कांटे बिछाकर कुटाई करना और बाद के पिंडिया और झिझिया के आयोजन।

उस बीच के प्रभावशाली, हाथ ऊपर उठाए चित्र के हाथों पर सधे ΔΔΔΔ का अर्थ भी अधिक स्पष्ट हो जाता है।

इसके बाद भी मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ वह कल्पना के योग से इतिहास और संस्कृति का पुनराविष्कार ही है, जिससे किसी को असहमति हो तो भी मेरे लिए यही इतिहास का सच है। कुछ बातों को सर रूप में रखते हुए अपनी बात रखूं तो :

1. दीपावली दरिद्रता और अभाव से मुक्ति और समृद्धि का पर्व है जिसके साथ सभी अपनी जीविका के साधनों की सिद्धि के लिए कृतसंकल्प होते हैं। दलिद्दर भगाने का आयोजन उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। चोरी, डकैती, जुआ, अभिचार जैसे समाज निन्दित प्रयासों को छोड़ दें तो समाज की दृष्टि में श्लाघ्य प्रयत्नों से जुड़ी हैं आगे की कड़ियाँ।

2. खेती, व्यापार और राज्यविस्तार सभी का आरंभ पर इसमें सुदूर व्यापार पर विशेष बल था इसलिए सैनिक या सार्थ या बेड़े के साथ जाने वाले तरुणों या बहनों के भाइयों के जीवन से लेकर धन के लिए संकटों की चिता भी थी।

3. यदि एक ओर केंद्रीय चित्रांकन में हाथों सधा मालताल है तो उसी के साथ तरह तरह के कांटे बाधाओं और संकटों के प्रतीक ।

4. सरापना और अमंगल के साथ यह भाव कि यदि बुरा चाहने पर भी बुरा न हुआ तो अब कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। जो अनिष्टकर है उसे कूट कर मार्ग को निष्कंटक, ऋग्वेद की भाषा में कहें तो अनृक्षर बनाने का प्रयास भी है। परन्तु यह सरापने का किंचित् इकहरा पाठ हुआ। इसे अपनी उस जातीय चेतना से भी जोड़ कर देखें जिसमें मौत से बचाने के लिए जन्म लेते ही बच्चे का कान छेद दिया जाता था, नाक छेद दी जाती थी, घूरे पर पत्तल रख कर सुला दिया जाता था, बघनखा पहना दिया जाता था, कौड़ियों के दाम बेच दिया जाता था, जिसमें एक दबा हुआ विश्वास था कि हम जो चाहें उससे उल्टा ही होता है, उसमें कल्याण के लिए ऐसा विधान विस्मय की बात नहीं।

५. पिड़या के अंकन में गोबर के पिंडियों को लंबवत चिकाया जाता था
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इस तरह के अंकन हड़प्पा की मुहरों पर भी पाए जाते हैं। वहां उनका आशय जो भी हो, पिड़या के सन्दर्भ में क्या यह उस जत्थे का अंकन हो सकता है जिसके साथ उसे यात्रा करनी है और रेखाएं क्या मानवाकृतियां हो सकती हैं? मैंने जैसा कहा पंक्तियों की संख्या और एक पंक्ति में कितली लकीरें बनती थीं, इसकी गिनती न की थी।

६. इसी तरह छिद्रित कलश में दीपक क्या यात्रा पर गए भाइयों को रास्ता दिखाने या लौट रहे बेड़े को तट का संकेत देने के प्रतीक थे ? स्वाभाविक है ऐसे अवसर पर जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप कहानी की याद आए।

७. यदि हमारे ऊपर के समीकरण सही हैं तो सिंध, गुजरात और राजस्थान जो प्राचीनतम चरण से विदेश व्यापार में अग्रणी रहे हैं, उनमें इस पर्वशृंखला का लोप क्यों?

८ हमें ऐसा लगता है कि पश्चिमी दिशा का व्यापार फीनीशियनों, रोमनों और अरबों के हाथ में चले जाने के बाद पहल भारतीयों के हाथ से निकल गया था । कंबोडिया, सुमात्रा, जावा आदि तक व्यापारिक और उसके साथ ही सास्कृतिक प्रसार का कारण भी यही बना और उस दशा में गंगा मार्ग तथा पूर्व का तटीय भारत – बंगाल, ओडिशा, आंध्र यहां तक तमिल नाडु पर्यन्त भाग – अधिक सक्रिय हो गया। इस व्यापार से होने वाला अकूत लाभ एक ओर मन में असाधारण आकर्षण पैदा करता था तो, दूर गए जनों को लेकर चिन्ता का भी कोई अंत न था।

९. एक विश्वास कवच के रूप में बना हुआ था कि यदि मनुष्य सदाचार का पालन करे तो उसका अनिष्ट नहीं हो सकता। यदि वह त्रिरत्न – सत्य, अहिंसा, अस्तेय – का पालन करें तो उसका अनिष्ट नहीं हों सकता। यदि उसके परिवार के जन सदाचरण करें तो उनके दूर गए स्वजन कष्ट से बचे रहेंगे । इसी विश्वास के चलते सत्य बाबा के माहात्म्य या सत्यनारायण व्रत और कथा का भी चलन हुआ।बंगाल के जिन हिन्दुओं ने इस्लाम ग्रहण कर लिया वे सत्यपीर के रूप में उसका निर्वाह करते रहे। पिड़िया का, व्रत वाला पक्ष , उसी से संबंधित हो सकता है ।

10 देवोत्थान और संक्रान्ति तक अन्य शुभ कार्यों पर रोक के पीछे भी इसका हाथ है या नहीं, यह विचारणीय है।

11. जहां यह तय करना हो कि कौन सी रीतियां और विश्वास पंडितों द्वारा प्रचारित हैं और किनकी जड़ें लोक में है भाषा हमारी काफी दूर तक सहायता कर सकती है। लोक की सर्जनात्मकता में आदिम जनों की भूमिका प्रधान रही है। नाटक, संगीत, नृत्य सभी में अपनी असाधारण दक्षता के लिए किरात, गंधर्व, यक्ष आदि पर्वतीय जन विख्यात रहे हैं, और समय समय पर. विशेषतः जाड़ों में वे मैदानी भाग में उतरते रहे है। मातृसत्ताक होने के कारण इनके बीच उस तरह की वर्जनाएं न थीं जैसी उन्नत खेती की ओर अग्रसर समाज में। इन्हीं से उन अप्सराओं का संबंध रहा है जिनका काव्यों और पुराणकथाओं मे उल्लेख मिलता है। महिलाओं ने पुरुष सत्ताक समाज के प्रतिबंधों के बीच अपनी मुक्ति के चोर दरवाजे के रूप में इनकी विशेषताओं को अपनी विरासत बनाई और इस लिए जिन आयोजनों में नाचं गाना, अभिनय, किंचित भदेसपन मिलता है वे लोक परम्परा की देन हैं, और जिनमे पूजा, पाठ, कर्मकांड आदि कि भूमिका प्रधान है वे पंडितों द्वारा हधे और थोपे गए हैं.