Post – 2020-04-30

ज्ञानसाधना

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ गीता

संसार में ज्ञान से पवित्र कोई दूसरी वस्तु नहीं है। यदि लंबे समय तक मनोयोग पूर्वक आप किसी क्षेत्र में काम करते रहे हैं तो समय आने पर आपके भीतर से ही उस विषय का ज्ञान से पैदा होगा। जो बात इसमें निहित है वह यह कि ज्ञान, या तत्व दर्शन, किसी ग्रंथ या गुरु से नहीं प्राप्त हो सकता। किसी बाहरी स्रोत से उपलब्ध होने वाला ज्ञान सूचना और निर्देश मात्र है, ज्ञान नहीं हैं। इसकी सिद्धि करनी होती है ।

यदि ज्ञान से पवित्र कोई चीज नहीं है, तो ज्ञान प्रदर्शन से अपवित्र भी कोई दूसरी चीज नहीं होती।

भाषा के विषय में मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, उसने 40 बरस लगे हैं। काल दीर्घता से अधिक फर्क नहीं पड़ता, न यह इस बात की गारंटी है आप जिसे आज सत्य मान रहे हैं उसमें कोई सुधार संभव नहीं, परंतु अभी तक भाषा के चरित्र के विषय में, उत्पत्ति के विषय में, जो शंकाएं पैदा होती रही हैं, जिन्हें विचलित करने वाला मानकर उपेक्षा कर दी जाती रही है, उन सभी के उत्तर यदि किसी व्यवस्था में मिल जाएँ तो यह आश्वस्ति पैदा होती है कि हमने समस्या का हल पा लिया है ।

मैं बार-बार यह दोहराता आया हूं कि इस विषय पर पहले से प्रचलित मान्यताओं का मुझे ज्ञान है, परंतु उनकी सीमाएं पहचान लेने के कारण मैंने कभी उस पद्धति को अपनाने और उसमें निष्णात होने का प्रयत्न नहीं किया। यही मेरी शक्ति है, क्योंकि परिपाटीगत साधना की सबसे बड़ी सीमा यह है उसे अपर्याप्त पाने के बाद भी जब उससे आप अलग हटना चाहते हैं तो भी अधिक दूर होने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। सब कुछ छोड़कर नए रास्ते पर पहुंचना, अब तक जो कुछ भी जुटाया था उसे लुटा कर कंगाल बनने का पर्याय बन जाता है। आरंभ में उन सीमाओं को पहचान लेने से आपको ऐसा रास्ता तलाशना होता है जिसमें खोने को कुछ नहीं है पाने की संभावना रहती है।

इस लेखमाला को पढ़ने वाले अधिकांश लोग उन विचारों और मान्यताओं से अवगत होंगे जो संस्कृत की महिमा अथवा आधुनिक भाषा विज्ञान की महिमा की कहानियों से पैदा हुई हैं। पुरानी परिपाटी से अवगत अथवा उनमें निष्णात व्यक्तियों के लिए है यह आसान नहीं है कि वे किसी ऐसी ही विचार पद्धति का सम्मान कर सकें जो उनकी परिचित अध्ययन-विधि से बिल्कुल अलग पड़ती हो। हमारे लिए उनकी सार्थकता केवल इसी बात में है कि वे जो कुछ जानते हैं और जिसे सही मानते हैं उससे अर्जित अंतार्दृष्टि से हमारे तर्कों प्रमाणों की कमियां निकाले और हमें भी उन पर पुनर्विचार करने का अवसर दें। इससे आगे बढ़कर पुरानी बातों को किसी रूप में दौरा ना ज्ञान प्रदर्शन है और जैसा कि हमने निवेदन किया, यह उतना ही अपवित्र काम है जितनी ज्ञान साधना पवित्र है। ऐसे लोगों की टिप्पणियों का उत्तर देने से खीझ पैदा होती है, विषय से विचलित होने का अंदेशा भी बना रहता है, काम में बाधा तो पड़ती ही है। ऐसी टिप्पणियों पर हम ध्यान नहीं देंगे और उन्हें निकाल देंगे।