#अरे_इन_दोउन राह न पाई
एक
कुछ घटनाएँ, सुखद या दुखद होने के साथ एक संदेश होती है, और यदि वह संदेश आप तक न पहुँचे तो भारी से भारी मूल्य चुकाने के बाद आप के हाथ अपमान और ग्लानि ही आती है। हिंदू समाज लगातार भारी मूल्य चुकाकर अपमान और ग्लानि ही जुटाता रहा है और इसने ऐसी आदत का रूप ले लिया है कि उसके भीतर अपने को सर्वाधिक समझदार और मुखर मानने वाला वर्ग इसे ही हिंदुत्व की पहचान मान चुका।
उसे इसकी तलब किसी दूसरे से और किसी दूसरे नशे से अधिक उग्र हो कर उभरती है और वह स्वयं ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करता रहता है कि उसे उसकी खूराक मिल जाए और कुछ समय तक वह उसी में आनंद-मूर्छित रहे – हिन्दू समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा यही है, जैसे किसी बाहरी शत्रु से अधिक खतरनाक आपकी व्याधि होती है।
इसे यदि किसी दूसरे दौर में न समझा गया तो कोरोना के दौर में तो समझ ही लिया जाना चाहिए कि कुछ बीमारियाँ दुख ही नहीं देती, जान भी लेती हैं; संपर्क में आने वालों में फैलती भी हैं, और इस अंतिम की पहचान के बाद अपनी सुरक्षा की चिंता करने वालों की नजर में उसकी लाश को भी इतना डरावना बना देती हैं कि कोई उसे हाथ नहीं लगाना चाहता और वह सम्मानजनक अन्त्येष्टि तक से वंचित रह जाता है।
हमारे बुद्धिजीवी और वे जिन संस्थाओं और दलों से जुड़े रहे हैं, केवल उनको ही इस व्याधि से गुजरना नहीं पड़ा है, उनके हिंदू समाज का अंग होने के कारण, हिन्दू समाज को भी इसकी क्षति उठानी पड़ी है।
उन की प्रतिक्रिया में एक ऐसे हिंदुत्व की शक्ति बढ़ी है जिसमें मजहबी मानसिकता प्रधान है और हिंदुत्व की चेतना तक का अभाव है।
मैं मजहबीपन को, और मजहबी अर्थ में अधिक अच्छा हिन्दू या मुसलमान या ईसाई होने को उस समाज के लिए और साथ ही मानव जाति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ।
हिंदू समाज को इन दोनों से खतरा है।
क्रोध किसी पर नहीं आता, तरस दोनों पर आता है।