क्या आप जानते हैं कि हम कितना कुच्छ खाकर भी भूखे रह जाते हैं? हम रोटी, चावल, पानी, हवा, चप्पल, जूता, चोट, डंडा, ग़म, ख़म, रहम, तरस, हवा, रिश्वत/ घूस, सिर, जान, चक्कर, धोखा, सदमा, झटका, नमक, ज़हर, सब कुछ खाते हैं. यहाँ कि हम देवताओं कि तरह, नाक से खाते या नोश फरमाते हैं, हमारी भूख कब मिटेगी?
यह सम्पदा बोलियों में भरपूर है, फारसी में उससे कम, संस्कृत में उससे भी कम, यूरोप की भाषाओँ में नदारद. जिसे हम भारोपीय कहते हैं उसका मूलाधार क्या है?
क्या कभी सोचा कि भारत की भाषा वह है जिसकी पहचान सूफियों ने की या वह जिसे सस्कृत या अरबी फारसी के प्रेम ने नष्ट कर दिया. कभी सोचा कि हमारी आज की हिंदी या उर्दू नक़ली क्यों लगाती हैं और अंग्रेजी की स्वीकार्यता के पीछे हमारी नासमझी और ज़िद का भी हाथ है?
कभी सोचा है कि वाग्विनोद के क्षणों में कभी कभी ऐसी पहेलियों पर भी बात करनी चाहिए?