Post – 2020-03-18

छह
हिंदुत्व के प्रति जिस तरह की वितृष्णा मिशनरी स्कूलों की शिक्षा ने पैदा की थी वैसी ही वितृष्णा मार्क्सवाद की ओर अग्रसर होने वाले और मार्क्स के कथन को आप्त मानने वाले सुशिक्षित हिंदुओं में पैदा हुई। यद्यपि भारत की वर्तमान दशा के विषय में मार्क्स सूचना के आधुनिक स्रोतों – समाचार पत्रों, संसद की बहसों, भारत से लौटने वाले अंग्रेजों के अपने विवरणों के सहारे स्वतंत्र निष्कर्ष निकालते थे, परंतु प्राचीन भारत के विषय में उन्हें जो भी जानकारी प्राप्त थी वह जेम्स मिल के माध्यम से प्राप्त थी, जिनके उपयोगितावादी विचारों के कारण मार्क्स के मन में उनका बहुत सम्मान तो था ही, उनकी पुस्तक को छोड़कर भारत का कोई दूसरा इतिहास भी नहीं था। जेम्स मिल के अपने विचार प्राचीन भारत के विषय में विलियम जोंस के विचारों की प्रतिक्रिया थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों की एकांगी टिप्पणियों को आधार बनाया था, क्योंकि भारत के विषय में जेम्स मिल स्वयं भी उतने ही नादान थे जितने मार्क्स।

मार्क्स की जानकारी में जो वृद्धि हुई वे भी उनके प्राच्य निरंकुशता, एशियाई उत्पादन पद्धति और सभ्यता का जनक यूरोप आदि बद्धमूल धारणाओं में समायोजित होते गए। ब्रिटिश कालीन भारत के विषय में उनका जेम्स मिल से और दूसरे उपनिवेशवादियों से तीखा विरोध है और उनकी पूरी सहानुभूति कंपनी के आर्थिक दोहन और उत्पीड़न के शिकार भारतीयों के प्रति है परंतु भारतीय समाज की अपनी विचित्रताओं और सामाजिक विकृतियों की ओर से उनका ध्यान हटता नहीं।

यदि हम जेम्स मिल के हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया की तुलना में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 25 जून 1853 अंक में प्रकाशित अपने लेख “दि ब्रिटिश रूल इन इंडिया” को रख कर देखें यह अंतर समझ में आ जाएगा। इसी अखबार में 1857 के भारतीय मुक्ति संग्राम पर लगातार प्रकाशित होने वाले उनके लेखों से यह पता चलता है कि भारतीय समाज से उनकी कितनी गहरी सहानुभूति थी। (पी..सी. जोशी का मेन स्ट्रीम 11 मई 1968, में प्रकाशित लेख जो इंटरनेट पर उपलब्ध है)। इसे स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा देने वाले मार्क्स थे:
On July 28, 1857, he quoted with approval Disraeli’s remark on the previous day: “the Indian disturbance is not a military mutiny, but a national revolt”. On July 31 1857, Marx asserted that what John Bull considers to be a military mutiny ‘is in truth a national revolt’.

इसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने और भारत की लूट के विविध तरीकों का सबसे पहले आंकड़ों के साथ चित्र प्रस्तुत करने वाले मार्क्स थे ।

इसके बावजूद भारतीय समाज की सामाजिक अनर्गलताओं और कुरीतियों पर वह उतनी ही निर्ममता से प्रहार करते हैं। न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 25 जून 1853 अंक में प्रकाशित उनके जिस लेख की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं, उसमें ही उनकी कुछ टिप्पणियाँ, जिन्हें उन्होंने अन्यत्र भी दुहराया है, इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य हैं:

एक ओर तो यह धर्म भोगपरायण और घोर कामुकता भरा धर्म है, तो दूसरी ओर आत्मपीड़क विरागभाव का धर्म; एक ओर लिंगोपासना का धर्म है तो दूसरी ओर जगन्नाथ का; एक ओर श्रमणों का धर्म है तो दूसरी ओर बद्रीनाथ (के शंकराचार्य) का।

That religion is at once a religion of sensualist exuberance, and a religion of self-torturing asceticism; a religion of the Lingam and of the juggernaut; the religion of the Monk, and of the Bayadere.

हम निम्न पैराग्राफ का अनुवाद कल करेंग। इस समय इसे मूल में ही प्रस्तुत करना चाहेंगे।
Now, sickening as it must be to human feeling to witness those myriads of industrious patriarchal and inoffensive social organizations disorganized and dissolved into their units, thrown into a sea of woes, and their individual members losing at the same time their ancient form of civilization, and their hereditary means of subsistence, we must not forget that these idyllic village-communities, inoffensive though they may appear, had always been the solid foundation of Oriental despotism, that they restrained the human mind within the smallest possible compass, making it the unresisting tool of superstition, enslaving it beneath traditional rules, depriving it of all grandeur and historical energies. We must not forget the barbarian egotism which, concentrating on some miserable patch of land, had quietly witnessed the ruin of empires, the perpetration of unspeakable cruelties, the massacre of the population of large towns, with no other consideration bestowed upon them than on natural events, itself the helpless prey of any aggressor who deigned to notice it at all. We must not forget that this undignified, stagnatory, and vegetative life, that this passive sort of existence evoked on the other part, in contradistinction, wild, aimless, unbounded forces of destruction and rendered murder itself a religious rite in Hindostan. We must not forget that these little communities were contaminated by distinctions of caste and by slavery, that they subjugated man to external circumstances instead of elevating man the sovereign of circumstances, that they transformed a self-developing social state into never changing natural destiny, and thus brought about a brutalizing worship of nature, exhibiting its degradation in the fact that man, the sovereign of nature, fell down on his knees in adoration of Kanuman (हनुमान), the monkey, and Sabbala (शबला), the cow.

इंगलैंड अपने लाभ के लिए यद्यपि गलत तरीके से भारत में सामाजिक क्रांति ला रहा है, परन्तु सवाल उसकी नीयत और तरीके का नहीं है, सवाल यह है कि क्या सामाजिक क्रांति के बिना एशिया का पुनरुद्धार संभव है? यदि नहीं तो यह भारी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
England, it is true, in causing a social revolution in Hindostan, was actuated only by the vilest interests, and was stupid in her manner of enforcing them. But that is not the question. The question is, can mankind fulfill its destiny without a fundamental revolution in the social state of Asia? If not, whatever may have been the crimes of England she was the unconscious tool of history in bringing about that revolution.

मार्क्स की इस समझ से हम असहमत हो सकते हैं, परंतु हमारे लिए महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि मार्क्स क्या देख रहे थे और उनकी आप्तता में विश्वास करने वालों की विचारदृष्टि किस रूप में इसे ग्रहण कर रही थी, परंतु मार्क्सवादी समझ का औपनिवेशिक रह जाना, औपनिवेशिक इतिहास लेखन को मामूली झाड़-फूंक के साथ जारी रखना, प्राचीन भारतीय इतिहास के नकारवादी पाठ, और सच कहें को वाम इतिहास लेखन के भौतिकवादी से हटकर भाववादी मार्ग अपना लेने के पीछे, उस समय तक मार्क्स की जितनी जानकारी सुलभ थी, उसकी निर्णायक भूमिका है।