Post – 2020-03-25

अंधा युग
नव (अधूरा)

अब हम उन कहानियों पर नजर डालें जिनका एक तार 15-20 हजार साल पीछे जाता है।

विगत हिम युग में नाना दिशाओं से होकर भारत में आकर बसने वाले जत्थों को मौसम की मार से राहत मिल गई थी, परंतु आर्द्रता की कमी का वानस्पतिक उत्पादों और जीव जंतुओं की संख्या पर भी असर पड़ा था। भुक्खड़ों की उन जमातों की संख्या, और आपसी टकराव का हम सही अनुमान नहीं कर सकते। जब दूसरे साधनों की कमी हो तो दुर्भिक्ष की अवस्था में किसी अन्य जानवर की तुलना में मनुष्य के लिए मनुष्य का शिकार करना अधिक आसान हो जाता है। कपालिनी, चंडी, चामुंडा काली और दूसरी ओर साइबेरिया से पलायन करके आने वाले जत्थों के देवता जिनके लिए कैलाश के शिखर से उपयुक्त कोई निवास नहीं हो सकता था। महागजों का शिकार करने वाले इन्हीं जनों का देवता रुद्र या कपाली शिव है। ये जिस भयानक और न जाने कितने लंबे समय तक चलने वाली त्रासदी के प्रतीक हैं उसका सही अनुमान तक संभव नहीं।

कालीघाट की प्रतिमा में शव बने शिव की छाती पर पांव रखे खड़ी काली का रूप यदि इस महासंघर्ष में मातृप्रधान अरण्यानी दुर्गा की विजय की याद दिलाता है तो बहुत आगे चल कर काली का शिवा, पार्वती आदि में बदलाव, यहाँ तक कि लिंगभेदी प्रत्यय लगने पर एक की संज्ञा का दूसरे का द्योतक हो जाना सामाजिक समरसता की एक नई कहानी कहता है। पशुओं से लेकर मनुष्यों तक के प्राण लेने वाले (गोघ्न, पूरुषघ्न) का भोले शिव में बदलना, बैल की सवारी करना ऐतिहासिक क्रम में समाज में पारस्परिकता बढ़ने की महायात्रा के पदचिन्ह हैं, जिसका सबसे जीवंत अंकन यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय में मिलता है जिसमें नर वधिक (मा नो महांतं उत मा नो अर्भकं… मा नो वधीः पितरं मा उत मातरं मा नः प्रियाः तन्वो रुद्र रीरिषः) चोरोे ठगों, अपराधियों के आराध्य, मनुष्य के दुख-व्याधि को दूर करने वाले चिकित्सक (जलाषभेषज), शंभु, शिव बन जाते हैं।

प्रसंगवश कह दें कि मातृदेवी उस परंपरा की आदिम पहचान है जिसने क्रमशः कृषि का आविष्कार और विकास किया। वह शाकंभरी हैं। उन्हें कड़ाह प्रसाद चढ़ाया जाता है। इसके विपरीत शिव उस आखेटजीवी जत्थे की याद दिलाते हैं जो साइबेरिया से आया था, जिसका प्रिय निवास भारत में भी हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र बना रहा, जो कृषिकर्म अर्थात यज्ञ का विरोधी है, उसका विनाश करता है, और जिसे चढ़ावे के रूप में मादक पदार्थ और बेर, बेल, गन्ने की पोरियाँ भेट की जाती हैं ।

यह एक बार का संघर्ष नहीं था कई चरणों पर कई रूपों में प्राणघाती संघर्ष के रूप में जारी रहा था, और उसके बाद, थक हार कर वन्य क्षेत्र का आपसी बटवारा किया गया था, मर्यादाएँ नियत की गई थी जिन का उल्लंघन नहीं हो सकता था और विचार को हथियार पर वरीयता दी गई थी। हिंदुत्व की सबसे बड़ी पूंजी यही है – विचारों का खुलापन और जो अधिक तर्कसंगत है वह यदि अपने हित में नहीं है तो भी उसे स्वीकार करने की तत्परता। दूसरे सभी गुण इसी की परिधि में आ जाते हैं और इसलिए यदि हिंदुत्व की एक वाक्य मैं व्याख्या करनी हो तो हम कहेंगे विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, तार्किकता, औचित्य और न्यायसंगति का सम्मान।

मैं जानता हूं इस तरह का दावा करते ही वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता से जुड़ी समस्याओं को उठाया जा सकता है, उठाया जाता है और आगे भी इसका हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। परंतु इसके चरित्र और इतिहास को समझने का कोई गंभीर प्रयत्न किया ही नहीं गया अन्यथा पता चलता कि इसके लिए वे भी कम दोषी नहीं हैं जिन्हें इससे गहरी शिकायत है। यह याद रखना होगा कि मनुवाद से जिसको शिकायत थी उसी को संविधान लिखने की जिम्मेदारी दी गई और उस पर किसी सवर्ण ने आपत्ति नहीं की। उसने जो भी विधान बनाए उसके साथ मनुस्मृति समाप्त है। इन विकृतियों के निवारण के लिए जो भी विधान किए गए उन्हें सभी ने नतमस्तक होकर स्वीकार किया। इससे अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। रही चेतना के स्तर पर सम्मान की बात, वह एक जटिल समस्या है, और इस दिशा में अपने को दलित कहने वाले दलित होने का लाभ उठाना चाहते हैं परंतु अपनी छवि सुधारने के लिए उस तरह का त्याग बलिदान और आदर्श का निर्वाह नहीं करना चाहते जिसका निर्वाह और दिखावा ब्राह्मणों ने किया था। सम्मान उपहार में दिया नहीं जाता है अर्जित किया जाता है, त्याग और बलिदान से। ब्राह्मण पैदल चलता था हाथी पर सवार होते ही उसका ब्रह्मत्व कम हो जाता था, जमीदार होते ही वह नाम को ब्राह्मण पर समाज की नजर में ब्रह्मक्षत्र बन जाता था। अपनी संपन्नता के कारण नहीं, धन के प्रति अपनी अनासक्ति के कारण उसने वह अधिकार और सम्मान अर्जित किया था, भले उसकी भी कई सीमाएं हों। अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए व्यग्र, दलित अवस्था से खिन्न जनों को दलित चेतना से ऊपर उठकर, पुराने ब्राह्मणों से कुछ सीखना होगा।

हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि बुद्धि और विचार की प्रधानता शौर्य और बलिदान का विरोधी नहीं है। अहिंसा का व्यावहारिक अर्थ भारतीय समाज में प्राणी का उत्पीड़न और निष्प्रयोजन वध से परहेज रहा है न कि गांधीवादी अहिंसा जिसे गांधी ने भी एक प्रयोग के रूप में इस्तेमाल किया था अन्यथा वह भी मानते थे कि अंग्रेजों ने हमारे हथियार छीन कर हमें नामर्द बना दिया है।

अन्य के प्रति सम्मान और बराबरी का भाव तार्किक औचित्य की अनिवार्य अपेक्षा है। हिंदुत्व का यह मंत्र विजेताओं पर भी भारी पड़ता रहा है। पता नहीं चलता कौन कब विजेता होकर आया था और कहां विलीन हो गया। परंतु ब्रितानी कूट नीति के तहत मुसलमानों में यह भावना पैदा की गई कि हिंदू इक्के दुक्के का धर्म परिवर्तन नहीं करता, वह पूरी की पूरी जमात को आत्मसात कर लेता है।

सचाई यह है किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को हिंदू बनाने में हिंदुत्व की कभी रुचि नहीं रही, इसका तंत्र ही अलग है। दूसरों को प्रयत्न करना होता है हिन्दू बनने के लिए। वे स्वयं इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे हैं कि उन्हें उनके गुण और योग्यता के अनुसार हिंदू वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित कर लिया जाए। उन्हें हिंदू नहीं होना पड़ता था – ऐसी कोई संज्ञा या पहचान नहीं थी। उन्हें किसी वर्ण में अपनी जगह तलाशनी होती थी। इसके बावजूद अपने को मूलतः उस जाति का मानने वाले लोग लंबे समय तक उन्हें अपनी बराबरी का नहीं मानते रहे हैं। इसके चलते एक ही वर्ण में गोत्र और प्रवर के अनुसार स्तरभेद पैदा हो जाते हैं।

हिंदू समाज की मूल प्रवृत्ति दूसरों को अपने जैसा बनाने की नहीं है, दूसरे जैसे भी रहना चाहें, उन्हें निर्विरोध, समानता के स्तर पर, अपनी निजता का निर्वाह करते हुए, रहने का अधिकार देने की है। समावेशिता इसका गुण नहीं है, सह अस्तित्व है, अपने से भिन्न विचारों और विश्वासों का सम्मान करने की प्रवृत्ति इसकी विशेषता है और इसके कारण अनेक समुदाय लंबे अरसे तक अपनी निजी विकृतियों के साथ बिना किसी भेदभाव के हिंदू समाज में जीवित रहे और उसका असर भी कुछ न कुछ पूरे समाज पर पड़ा। उनकी इन विकृतियों को भी ब्राह्मणों की देन बताया जाता है जो सही नहीं है और हमारे आलस्य का परिणाम है जिसमें हमने अपने इतिहास को बारीकी से समझने का प्रयत्न नहीं किया।

हिंदू समाज में, जिन भी कारणों से हो, लोकतंत्र के लिए एक निसर्गजात आकर्षण है। इसके पीछे प्राचीन भारतीय ग्राम पंचायतों, बिरादरी पंचायतों, और प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्थाओं, बीच-बीच में सभ्य समाज की धारा में मिलने के लिए पूरी तैयारी के साथ आने वाले गणों – शाक्य, मल्ल, लिच्छवि – आदि के संस्कार हो सकते हैं। इस्लाम का धार्मिक और ऐतिहासिक आधार तानाशाही या स्वेच्छाचारी राजतंत्र का है। यहां से दोनों की प्रकृति में एक आंतरिक विभाजन दिखाई देता है जिसकी प्रकृति को समझने का प्रयत्न नही किया गया।