Post – 2020-03-26

अन्धायुग
नव (शेष)

समस्या केवल इस्लाम की नहीं, सभी सामी मजहबों की कबीलाई सोच की है। इन सभी की मूल प्रकृति प्राधिकारवादी रही है। इनमें सामान्य जन भेड़ बकरी जैसे प्रतीत होते रहे हैं और उन्हें हाँक कर ले जाने वाला एक चरवाहा जरूरी है। वह जिस भी तरीके से चाहे, जिस भी दिशा में ले जाना चाहे, पूरे कबीले को ले जा सकता है। अल्लामा इकबाल जब मुसलमानों की हर्ड इंस्टिंक्ट में आ रही गिरावट पर चिंता प्रकट करते हैं, तो वह इनकी गिरावट से अधिक इस मूल चरित्र पर प्रकाश डालते हैं। अलग अलग रूपों में यह सीमा सभी सामी मजहबों में पाई जाती है। इन सभी का संगठित धर्म होना, किसी एक धर्मपीठ से नियंत्रित होना, विश्वास प्रधान होना और इसलिए तर्क, प्रमाण और औचित्य से परे होना, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक होना, उन बुनियादी पृथकताओं में गिना जा सकता है जो इन्हें हिंदुत्व से अलग करता है। [आस्था और विश्वास के क्षेत्र में भी इस स्वतंत्रता के कारण असंख्य मानव समुदायों के देवी देवता विश्वास एक संकुल का निर्माण करते हैं जो बहुदेववाद के मूल में है। सह-अस्तित्व और पारस्परिक सम्मान के कारण ऐसा घालमेल पैदा हुआ कि सभी के प्रति सभी का सम्मान परंतु कुछ के प्रति विशेष सम्मान पूरी परंपरा में बना रहा है। यह सामी विश्वास परंपरा में संभव नहीं था। ]

सामी मतों में उनके परमात्मा ने सृष्टि बनाने के बाद मनुष्य को रचा और पूरी सृष्टि को कबीले की मर्जी पर छोड़ दिया, क्योंकि सृष्टि हुई ही उस कबीले के उपभोग के लिए थी। उसका एक ही ध्येय था – अपने कबीले का विस्तार और पूरी दुनिया पर हावी हो जाने का प्रयोग। यह भी उस परमेश्वर के आदेश से था, उसने कहा प्रॉलिफरेट एंड डॉमिनेट। कहें उसका सबसे ऊंचा आदर्श प्रभुत्व-कामना और शिश्नोदर परायणता।

इसमें अपने कबीले को छोड़कर शेष मानवता तक के लिए सम्मान नहीं था, दूसरे प्राणियों के प्रति किसी भी तरह का व्यवहार किया जाए नैतिकता की परिधि में नहीं आता,। इसका एक ऐसी विचार दृष्टि से कोई मेल नहीं था, जिसमें समग्र मानवता ही नहीं, समस्त प्राणियों के कल्याण की चिंता थी, और जो अन्य प्राणियों का ध्यान रखते हुए , त्याग पूर्वक भोग का आग्रह (त्यक्तेन भुंजीथा) करता था।

सामी मतों में यहूदी मत एक मानी में हिंदुत्व के निकट रहा है कि यह धर्मांतरण में नहीं, सह-अस्तित्व में विश्वास करता है और इसलिए शताब्दियों तक भारत में रहने के बावजूद, यहूदियों के कारण न तो हिंदुओं के लिए कोई समस्या पैदा हुई, न हिंदुओं के कारण यहूदियों के लिए । ईसाइयत और इस्लाम कहीं भी रहें धर्मान्तरण की अपनी योजना के कारण शांति से रह ही नहीं सकते। विस्तार के अपने अभियान में इन दोनों ने मनुष्यता का जितने बड़े पैमाने पर संहार किया है, वह दूसरे सभी युद्धों में हुए नरसंहार से अधिक पड़ेगा और दुर्भाग्य से हिंदुओं को एक साथ इन दोनों के दबाव के बीच अपने मूल्यों की रक्षा की करना पड़ा है।

ऊपर हम जो चित्र प्रस्तुत कर आए हैं, उसमें रोशनी और प्रकाश की तरह यह अंतर स्पष्ट है कि हिंदू किन्हीं मामलों में असहिष्णु या अनुदार तो हो सकता है, सांप्रदायिक नहीं हो सकता। इसकी सामाजिक संरचना ही ऐसी नहीं है जिसमें सांप्रदायिकता पनप सकें। सांप्रदायिकता की जननी है गिरोह बंदी या हर्ड इंस्टिंक्ट जो इस्लाम से भी पहले बद्दू कबीलों में विद्यमान थी और जिस का भरपूर उपयोग इस्लाम ने किया। आज भी एक आवाज पर देश के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक किसी अफवाह के फैल जाने पर भी या अफवाह को ही सत्य बना देने के कारण, ध्वंस, रक्तपात, आगजनी शुरू हो जाती है और इसका धमकी के रूप में इस्तेमाल भी किया जाता है।

सांप्रदायिकता के मूल में है दूसरों पर हावी होने की कामना। जो दूसरों को निर्विघ्नं अपनी रीति और व्यवहार के अनुसार समानता के आधार पर सुख शांति से बने रहने का हिमायती हो उसे सांप्रदायिक कहना, शब्द की समझ के अभाव को तो प्रकट करता ही है, ऐसा करने वालों के इरादे को भी संदिग्ध बनाता है।

हम पहले इस पर विचार कर चुके हैं सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति भारत के धर्मांतरित मुसलमानों में नहीं थी। यह उन रईसजादों के द्वारा पैदा की गई जो उनका इस्तेमाल करते रहे हैं और आज रईस और सईस का फर्क मिटने मिटने को है।

इस मानसिकता को समझने के लिए हमें सर सैयद अहमद के इस कथन को याद करना होगा :
We are those who ruled India for six or seven hundred years. From our hands the country was taken by Govemment into its own. Is it not natural then for Government to entertain such thoughts? Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire? (लखनऊ, 1887)

इसलिए:
If Government be wise and Lord Dufferin be a capable Viceroy, then he will realise that a Mahomedan agitation is not the same as a Bengali agitation, and he will be bound to apply an adequate remedy.
हम शासक रहे हैं, हमें शासक रहना है, हिन्दुओं को शांति से रहना है तो हमारी शर्ते माननी होंगी। भाई यदि चारा बनने को तैयार हो, आपसी भाईचारे का निर्वाह करते हम साथ रह सकते हैं ।

हम शासक रहे हैं, सल्तनत भले चली गई हो परंतु उसका गुरूर नहीं जा सकता, मरते दम तक यह आन बनी रहनी चाहिए, यह परदेसी मूल के मुसलमानों की चेतना में लगातार बना रहा और भावुक क्षणों में प्रकट भी होता रहा:
सरे खुसरू से ताजे कज कुलाही छिन भी जाती है
कुलाहे खुसरवी से बूए सुल्तानी नहीं जाती।।

यह बूए सुल्तानी ही भारतीय सांप्रदायिकता की जननी है और जिनमें यह बनी रही वे सांप्रदियिकता के लिए उत्तरदायी हैं पर उनसे अधिक बड़े अपराधी वे हैं जो इस कटु यथार्थ पर पर्दा डालते हुए इसका दोष उलट कर हिंदुओं पर मढ़ते रहे हैं।

हम अपनी बात को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करें। हिन्दू समाज सदा से दो या अधिक समुदायों के समानता के आधार पर साथ रहने का समर्थक रहा है, इस्लाम के साथ पहली बार यह समस्या उत्पन्न हुई की दो समुदाय एक साथ बराबरी के स्तर पर नहीं रह सकते। एक को दूसरे को दबा कर रखना ही पड़ेगा। मिजाज का यह अन्तर लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का अंतर है। लोकतंत्र में सबका सम्मान के साथ रहना संभव है, अधिनायकवाद में नहीं। अधिनायकवाद मध्यकालीन स्वेच्छाचारी शासनतंत्र का ही विकास है।

सर सैयद अहमद खान के मेरठ भाषण में इन सभी बातों को बहुत स्पष्ट रूप में रखा गया था।
Is it possible that under these circumstances two nations — the Mahomedans and the Hindus — could sit on the same throne and remain equal in power? Most certainly not. It is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and the inconceivable.

शासन चला गया, वह मिल नहीं सकता यह भी पता है, संख्या बल के आधार पर धौंस नहीं जमाई जा सकती, परंतु सरकार के समर्थन से भूत की लंगोट हासिल की जा सकती है, और उसकी जो भी कीमत चुकानी होगी, चुकाने के लिए तैयार रहना है।

परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता, बचाया क्या जा सकता है? कम से कम उस प्रदेश में जिसमें हिंदी और उर्दू दोनो बोली जाती हैं अदालतों में फारसी का चलन, उर्दू जबान की सर्वस्वीकार्यता तो बनाए रखी ही जा सकती है। हमारे बुद्धिजीवियों में जिन हिंदुओं को संप्रदायवादी सिद्ध करने की होड़ लगी रही, वे क्या चाहते थे? चाहते यह थे नागरी लिपि को भी अदालतों में स्थान मिले। उनकी इस माँग को ही सांप्रदायिक करार दे दिया गया। इसी समझ को कम्युनिस्ट पार्टी में तत्समय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव सैयद सज्जाद जहीर के माध्यम से ट्रांसफर किया गया :“आरंभ से ही मुसलमानों के निकट हिंदी और देवनागरी लिपि आंदोलन हिंदुओं की कट्टर सांप्रदायिकता और मुस्लिम संस्कृति विरोध का द्योतक है… उन्नीस सौ में जब देवनागरी भी उर्दू के समान अदालतों में जारी की गई, तो सर सैयद आमद को विश्वास हो गया कि अब हिंदू और मुसलमानों का एक राष्ट्र होकर अपने अभियान के लिए सम्मिलित प्रयत्न करना असंभव हो गया है उसी समय उर्दू रक्षा समिति सर सैयद के तत्वावधान मैं कायम हुई।” ( रामविलास शर्मा द्वारा उद्धृत, भारत की भाषा समस्या,2003, पृ. 255).

हिंदू तभी तक सेकुलर रह सकते हैं जब तक वे मुस्लिम सांस्कृतिक श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए मुस्लिम अपेक्षाओं की कसौटी पर सही सिद्ध होते रहें। इसके अभाव में वे ही नहीं, उनकी भाषा, लिपि, प्रदेश सभी को सांप्रदायिक माना जाएगा। हिंदी के काउबेल्ट बनने की कहानी भी यही है।

वर्तमान राजनीति को अपनी चर्चा में नहीं लाना चाहिए फिर भी यह बताना जरूरी है कि भाजपा के शासन में कोई भी ऐसा काम नहीं किया गया है जो मुसलमानों और हिंदुओं के बीच फर्क करता हो। सबका साथ और सबका विकास, सबका विश्वास के नारे के बावजूद यदि मुस्लिम समाज को लगता है कि उसके साथ अन्याय हो रहा है तो वह अन्याय यह है कि मुस्लिम वोट बैंक के दबाव से सभी राजनीतिक दलों के फैसलों को अपनी इच्छा अनुसार प्रभावित करने की शक्ति समानता के इस बरताव के साथ समाप्त तो हो गई हैं।