Physician Heal Thyself
हमारी धारणाएँ परिवार, परिवेश. शिक्षा, अध्ययन, पारस्परिक संवाद, धार्मिक और राजनीतिक लगाव या सक्रियता के साथ ही अपने निजी अनुभव और चिन्तन से इतने लंबे समय में स्थिर होती हैं कि किसी को आसानी से भिन्न दृष्टिकोण का कायल नहीं किया जा सकता। दलों और संगठनों से जुड़े दृढ़मति लोगों के लिए यह अपना बना बनाया घर उजाड़ने जैसा कठिन होता है। वे किसी विचार को तभी तक सही मानते हैं जब वह उनके दृढ़ विश्वास के अनुरूप होता है। अपने को सही मानने वाले एक ही विषय पर एक दूसरे से असहमत लोग अपने दायरे के भीतर के लोगों की नजर में सही, बाहर के सभी लोगों के लिए गलत या संदिग्ध होते है।
चिंतन की प्रकृति निजी और विश्वास की प्रकृति सामूहिक है। संगठनों और दलों से जुड़े लोगों के पास विचार नहीं होता किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए संकल्प होता है और पारस्परिक विश्वास या एकजुटता होती है जिसका अपना महत्व उसकी सामाजिकता के अनुपात में होता है। इसकी अपनी समस्याएँ हैं। परंतु सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि जिस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उनकी स्थापना होती है उसके विपरीत काम करने लगते हैं या जब वे उस कार्यभार का निर्वाह नहीं कर पाते हैं – जीवित पुरावस्तु बन जाते हैं – तब भी संगठन को जिलाए रखने और उस भ्रम को बनाए रखने का प्रयत्न किया जाता है और पहले जो पारस्परिक विश्वास था वह पाखंड का रूप ले लेता है- संगठन संगठन के लिए। ऐसे दल या संगठन आत्मनिरीक्षण तक से कतराते और आलोचना से बौखला जाते हैं।
इसके दो एक दूसरे के विरोधी नमूने देखे जा सकते हैं जो अपने काडर की अनुशासनप्रियता पर गर्व करते रहे हैं। अनुशासन अपनी प्रकृति से चिंतन विरोधी है। संगठन के मामले में इसे गुण ही कहेंगे। पर हम विस्तार से देख आए हैं कि कैसे अपने शैशव में ही सामाजिक-आर्थिक शोषण और उत्पीड़न के कार्यभार से विचलित हो कर कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का कार्यभार अपना लिया और हिन्दूद्रोही चरित्र पर मार्क्सवादी परदा डाले रहे। परिणाम यह कि अपनी करनी से सोए हुए हिंदुत्व को उन्होंने स्वयं जगाया और आज उनके पास दिखावे को भी अपना कोई कार्यक्रम नहीं , केवल छिद्रान्वेषी भूमिका रह गई है।
दूसरा उदाहरण संघ का है। इसकी स्थापना खलीफत आंदोलन के बाद 1921 में मलाबार मोपला दंगों के दुखद अनुभवों के बाद (यह 5,000+ वर्गमील क्षेत्र में फैल गया था और इसमें 10,000 हिंदू मारे गए थे) की असुरक्षा से कातर हो कर मुसलिम गुंडों से अपनी रक्षा के लिए हुई थी और एक सीमा तक यह अपने प्रयोजन में सफल भी रहा। बाद के दंगों के इतिहास से यह सिद्ध नहीं होता कि इसकी भूमिका बहुत कारगर रही। एक अर्धससैन्य संगठन के रूप में इसने काम कम किया है, अपयश अधिक कमाया है, क्योंकि किसी समाज में ऐसे संकीर्ण संगठनों का होना सदा से निंदनीय माना जाता रहा है। उस दशा में यह दूसरों के लिए ही निंदनीय नहीं अपने लिए भी शर्मनाक भी हो जाता है यदि बेगुनाह हो कर भी अपयश का भागी बना रहे। इसे हाल के दिल्ली के दंगों के संदर्भ में देखने पर इस संगठन के मूल उद्देश्यों के अनुरूप नहीं पाया जा सकता, जब कि इसकी सदस्यता अपने चरम पर होगी।
मुसलमानों में वह कौन सा संगठन है जिसने इसका आयोजन किया। हिंदुओं में इसी प्रयोजन के लिए एक संगठन के होते हुए भी वह अपना प्रभावशाली बचाव क्यों न कर सका?
समस्या संगठन की नहीं है, समस्या मिजाज की है, दंगो के चरित्र को समझने की है। इनको धार्मिक कारणों से नहीं, राजनीतिक दुरभिसंधि के चलते उकसाया जाता है। धर्म समुदाय को अतिसंदेदनशील बनाने में मुल्लों, मकतबों, मस्जिदों की भूमिका भले मानी जाए, जिसका पर्यावरण इस्लाम में संभव है, पर हर तरह की उत्तेजना के नियंत्रण और शमन-दमन को वरीयता देने वाले हिंदू समाज में नहीं।
हाल के दंगों में जिम्मेदारी ‘आप’ के दो मुस्लिम विधायकों की लंबी तैयारी, साधनों के संकलन और आपूर्ति की अचूक व्यवस्था, सही समय के चुनाव, समय-समय पर बयान, हमले से पहले इसके पूर्वाभ्यास और राजनीतिक चोरदरवाजों पर भरोसा करने वाले दल के सहयोग और दूसरे गैरजिम्मेदार दलों द्वारा तैयार किए गए पर्यावरण की थी, न कि मुल्लों, मौलवियों की थी।
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी सांप्रदायिकता की नहीं, बौद्धिक ह्रास, आलस्य या अल्प से बहु की प्राप्ति की लालसा की, या कहें पराधीनता की समाप्ति के बाद औपनिवेशिक मनोवृत्ति के अधिक प्रबल होते जाने की है। दूसरी विकृतियाँ इसी का परिणाम हैं, और उनके अनंत रूप हैं जो खाद्य पदार्थों से लेकर दवाओं तक में मिलावट, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, उत्पादों और निर्माण-कार्यों की निकृष्टता, शिक्षा प्रणाली के पक्षाघात (प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतम अध्ययन और अनुसंधान केन्द्रों में योग्य और अपने कर्तव्य के प्रति सचेत शिक्षकों के अभाव और सुलभ अध्यापकों की कर्तव्य विमुखता), लेखकों और पत्रकारों में उस भाषा तक के प्रति सम्मान का़ अभाव जिसमें वे काम करते हैं, विवेचन स्तर में कामचलाऊपन के अनुपात में ही ध्यानाकर्षण के लिए, देश और समाज के अनिष्ट की चिंता से बेपरवाह हो कर आतंक से ले कर सनसनी तक पैदा करने की व्यग्रता, राजनीतिक दलों में सैद्धान्तिक सरोकारों का लोप और किसी भी जुगत से चुनावी सफलता को पात्रता का एकमात्र मानदंड बनते जाने और राजनीति की इस गिरावट के अनुरूप ही बौद्धिक उचक्कापन आदि इतने असंख्य रूपों में व्यक्त हुआ है कि जिसके सभी प्रमुख पहलुओं की गणना तक नही कराई जा सकती। मुख्य बात यह है कि ये परस्पर अलग और असंबद्ध लक्षण नहीं हैं, एक दूसरे से जुड़ी और एक दूसरे को प्रबल करने वाली प्रवृत्तियां हैं। उदाहरण के लिए नैतिक सरोकारों में गिरावट और सर्वमुखी अपराधीकरण की वृद्धि जिसमें अपराधी तो अलग न्याय विचार करने वाली संस्थाओं का अपराधीकरण तक शामिल है, एक दूसरे से अलग करके देखे नहीं जा सकते।
सांप्रदायिक उन्माद भी इसी से जुड़ा हुआ है इसलिए मैं इन सभी विकृतियों के लिए बुद्धिजीवी वर्ग की विफलता को एकमात्र कारण मानता हूं, जिसने अपने मौज और स्वार्थ-वश औपनिवेशिक मनोवृत्ति का उच्छेदन करने की जगह उसे मजबूत बनाया।
एक ऐसे समय में जब इस्लाम और ईसाइयत के साथ भारत के सिद्धांतहीन दलों के मुस्लिम वोट बैंक पर कब्जा करने की आपाधापी के संयुक्त प्रयास और उसमें बुद्धिजीवियों के योगदान के कारण हिंदुत्व को सबसे निकृष्ट सिद्ध करने का अभियान चल रहा हो चे गुआरा के शब्दों में कृष्ण को और उनके (भारतीय) समाज को लोकोत्तर (far above our world of today) बताने पर आपको पहले हँसी न आई हो तो अब हँस सकते हैं। लोकोत्तर में इसकी अच्छाइयां भी हैं और इसकी बुराइयां भी हैं।
प्रश्न विकृतियों की प्रकृति और उनके निवारण की तत्परता में है। एक ‘भूमि परत भा ढाबर पानी’ की मलिनता है जो थिराने के बाद फरिया जाता या निर्मल हो जाता है और फिर भी उबालने, मथने, छानने (अपनी रही सही अशुद्धता भी दूर करने के किसी उपाय के लिए प्रस्तुत रहता है; दूसरा ‘एसिड परत भा माहुर पानी’ की विषाक्तता है, जिसकी मलिनता कई बार नजर तक नहीं आती, और यदि मलिनता को मलिनता स्वीकार भी न किया जाय कृमिनाशक के रूप में पेय में मिला कर मीठे जहर के सेवन का रूप दे दिया जाय (मूल्य-व्यवस्था का अंग बना लिया जाय) तब तो वहाँ अशुद्ध कुछ रह ही न जाएगा।
हिंसा को सर्वोपरि शक्ति मानने वाले समाजों में विचारों का प्रसार तक दहशत पैदा करने की क्षमता पर निर्भर रहा है और आज भी अधिक जटिल रूप में जारी है। ज्ञान शक्ति है (knowledge is power) बुद्धिर्यस्य बलं तस्य का अनुवाद ही नहीं है, प्रचारतंत्र की महिमा का ज्ञान भी पश्चिम के धन, शस्त्रबल और अर्थोपार्जक कौशल के अभाव में भी सामाजिक स्तरभेद में ब्राह्मणों के वर्चस्व पर कुछ समय तक विस्मित होते रहने और उस विस्मय के तत्वबोध में बदलने का परिणाम है। परंतु पश्चिम जो नीम और हल्दी तक काे अपनी खोज बना कर एकाधिकार पाने के प्रयत्न कर सकता है वह इस सचाई को स्वीकार नहीं कर सकता। स्वीकार मेरे कहने से आपको भी नहीं करना चाहिए, परन्तु इस तथ्य पर विचार अवश्य करना चाहिए कि सोलहवीं शताब्दी तक ईसाई धर्मप्रचार के लिए भी रक्तपात और उत्पीड़न का सहारा लेते रहे हैं।
हिन्दुत्व यही है, आत्मबल और बुद्धिबल, वैचारिक प्रसार तंत्र का विकास और विचार अभिव्यक्ति की वह स्वतंत्रता और निर्णायक शक्ति।
इसकी समझ न तो अपने को हिन्दुत्व का रक्षक बनने वाले संगठनों को है, न उनको जो इनका शोर मचाते और भोड़ा प्रयोग करते हैं जिसमें शोर विचार से अधिक मान पाता है। पिछले दिनों का ही उदाहरण लें, दंगे भड़काने का जिम्मेदार कौन ? वे नहीं जो वातावरण को अपने बयानों से निरंतर उत्तेजित करते रहे, पूर्वाभ्यास करते रहे, पेट्रोल बम, एसिड बम तैयार करते, जुटाते रहे, नुकीले पत्थरों के खेप जुटाते रहे, मकानों दूकानों को चिन्हित करते रहे, दूर तक मार करने वाली गुलेलें फिट करते रहे। वे तो बेचारे भोलेभाले हैं, भड़काने पर भड़क गये। दंगा भड़का कपिल मिश्र के एक बयान से जो उससे पहले से दिए जा रहे उत्तेजक बयानों की तुलना में सही फटकार की भी हैसियत नहीं रखता। एक वाक्य से यह सारा तूफान खड़ा, यहाँ तक कि न्यायाधीश को भी दूसरे अपराधियों से पहले कपिल मिश्रा को भी हाजिर कराना था, क्योंकि प्रचारतंत्र ने एक शब्द के पीछे इतने सारे भयंकर षड्यन्त्र को छुपाने का प्रयत्न किया। मारा हिंदू होने के नाते सूचना तंत्र का अधिकारी जा रहा है और बीबीसी तक प्रचार कर रहा है उसकी हत्या करने वाले जय श्रीराम के नारे लगा रहे थे।
जिस तंत्र की ताकत सबसे अधिक है उस तंत्र की सबसे कमजोर समझ लाठी भागने वालों की है। बुद्धिजीवियों का इतना बड़ा अकाल जो अपना साहित्य न लिख सकें, प्रतिवाद न कर सके, अपना विश्वसनीय इतिहास न लिख सकें, अपना बचाव न कर सकें और प्रतिहिंसा में जो कमी है उसे नफरत के प्रचार से पूरा करें । न तो यह हिंदुत्व है, न हो सकता है,। जो अपना बचाव नहीं कर सकते अपने समाज का और हिंदुत्व बचाव क्या करेंगे, जिसकी बुनियादी समझ तक नहीं। सही इतने कि पुनर्विचार तक नहीं कर सकते कि आज के संकट में हमारी अपरिहार्य आवश्यकता क्या है।