Post – 2020-03-30

Physician Heal Thyself (2)
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो!!

हंगामे में कौन क्या कह रहा है इसका मतलब नहीं होता। मतलब होता है किसकी आवाज कितनों पर भारी पड़ रही है और दूसरों से अलग और ऊपर सुनाई पड़ती है। उस कथन का कोई अर्थ हो या वह व्यर्थ हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

परंतु यदि किसी देश का बौद्धिक पर्यावरण ऐसा हो जाए जो हंगामे का रूप ले ले तो हमें रुक कर सोचना पड़ेगा कि अपने को सही सिद्ध करने वालों की भीड़ में क्या कोई सही विचार भी है जो दबा रह गया है या यदि नहीं हैं तो पैदा हो सकता है? दूसरों को, किसी भी जुगत से, मात देने की बौद्धिक स्पर्धा में क्या यह समझ पैदा की जा सकती है कि बुद्धि को ताक पर रख कर मैदान जीतने की इस दुयूतक्रीड़ा में जीतना भी हार है और हार तो बर्बादी है ही।

पिछले 50 साल से भारत का बौद्धिक नेतृत्व वामपंथ करता आया है। जिस बौद्धिक पर्यावरण की बात हम ऊपर कर आए हैं क्या वह उसकी विवेकहीनता का परिणाम नहीं है। और इसी विवेकहीनता का एक रूप है कि वह सेकुलर होने का दम भरते हुए निरंतर हिंदुत्व द्वेषी होता चला गया है और आज यह व्याधि इस सीमा तक पहुंच चुकी है कि यदि उत्पीड़न पलायन, निर्वासन, आगजनी, हिंसा का शिकार कोई हिंदू कहीं भी हो तो तड़प तो दूर वामपंथी की आह तक नहीं सुनाई देती। यदि नही होती तो उसे असावधानी कह कर क्षमा किया जा सकता था, पर वह उन अत्याचारों का तार्किक औचित्य पेश करके प्रकारांतर से उन कुकृत्यों को सही ठहराने लगता है और इस तरह अन्यायियों की जमात का हिस्सा बन जाता है। सूची बनाने चलें तो कई पन्ने लग जाएँगे।

अब तक का पूरा इतिहास यही है। वह दक्षिण पंथ के संभावित आतंक से डरा हुआ नहीं था, क्योंकि जितने लंबे दौर में यह अभ्यास चलता रहा, उसमें न तो दक्षिण पंथ की कोई राजनीतिक उपस्थिति थी, न साख थी, न उभार की कोई संभावना थी, इसलिए किसी खतरे का सवाल न था। यदि यह हिंदुओं को अपमानित करने और मिटाने के उस लंबे आयोजन का हिस्सा न था, जो कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास के सबसे निर्णायक क्षणों में बुर्का पहनने के साथ आरंभ हुआ था, तो किसी वामपंथी को इस बात का जवाब देना चाहिए कि इस पूरे दौर में हिंदू समाज पर योजनाबद्ध प्रहारो में वह मौन सहमति, या मुखर वकालत के साथ शामिल था, या नहीं।

और यदि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की वामपंथी भूमिका यही है कि वह इस देश के बहुजन को ही उसके हिस्से में आए भूभाग से भी मिटा देना चाहता है, तो भारतीय संदर्भ में वामपंथ की भूमिका विश्वविदित दक्षिण पंथ की और जिसे वह दक्षिण पंथ कहता है उसकी भूमिका उसी तर्क से उदार सर्वसमावेशी की है या नहीं?

नामों का यह अदल-बदल जिसमें दूसरे को संप्रदायवादी, फासिस्ट, संकीर्णतावादी कह कर भर्त्सना करने वाला जघन्य सांप्रदायवादी, फासिस्ट और मानवताद्रोही , संकीर्णतावादी सिद्ध होता है और ऐसी ताकतों का मौन या मुखर समर्थन करता है, और जिस पर वह ये अभियोग लगाता है वह आपदा में फंसे भारतीयों को बचाते या संपदा के वितरण में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद किए बिना निरपेक्ष और निष्पक्ष सर्वलोकहितकारी भाव से आचरण करता पाया जाता है, तो यह भारतीय इतिहास की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण परिघटना है जिसमें हिन्दू हो कर ही सेकुलर हुआ जा सकता है और हिंदुत्व के कमजोर पड़ते ही व्यक्ति इंसानियत तक खो बैठता है और हैवानियत के साथ हाथ मिला कर खड़ा हो जाता हैं।

आज सैकड़ों की संख्या में देश-देशान्तर से तबलीगी योजनाओं पर काम करने वाले और कोरोना की चपेट में आने के बाद निजामद्दीन से प्रकाश में आने वाले और देश के सुदूर कोनों में फैले जहाँ तहाँ से मसजिदों से पहचान में आने वाले और अपने को सेकुलर बताने वाले भारतीय बुद्धिजीवी एक ही इरादे से दो मुखौटों के साथ काम कर रहे हैं ।