Post – 2016-06-29

I will be heard

‘’तुम विश्व की महान विभूतियों से अबेडकर के तुलनात्मक मूल्यांकन की बात करते हो तो मुझे अपनी दीनता का बोध होता है। उन सबका मुझे ज्ञान होता तो ऐसा करके सन्तोष मिलता। मैं जिन दो एक को जानता हूं उनमें से ही एक से तुलना कर सकता हूं। अपनी बेकारी के दिनों में मैं अनुवाद से काम चलाता था। 1964 में एक पुस्तक क्रुसेडर्स फार फ्रीडम का अनुवाद किया था। लेखक थे हेनरी स्टील कोमेगर।

”उसमें विविध प्रकार की स्वतन्त्रताओं के लिए अभियान चलाने वाले महानायकों के जीवन और कार्य का वर्णन था, परन्तु जैसा कि पश्चिमी लेखकों के साथ होता है, यदिहास्ति तदन्‍यत्र यन्‍नेहास्ति न तत् क्‍वचित्। उसमें एशिया या अफ्रीका के किसी आन्दोेलनकारी का नाम न था। एक समय था हम भी भारत को ही पूरा विश्व समझते थे और भारत से बाहर के किसी व्यक्ति को गिनती में न लेते थे। सफलता वर्णान्धता तो पैदा करती ही है।

”उसमें गुलामी से मुक्ति का अभियान चलाने वालों में एक थे हेनरी लायड गैरिसन। वह कैथोलिक पादरी बन कर धर्म प्रचार के लिए अमेरिका गए थे। वहां उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि ईसाई स्वयं ईसाइयत अपना चुके गुलामों के ऊपर इतना अत्याचार कर रहे हैं। यदि वे ईसाई न रहे होते तो उनको गुलामों की मुक्ति का खयाल आया होता या नहीं, हम तय नहीं कर सकते। गुलामी प्रथा की समाप्ति के लिए उन्होंने न्यू इंग्लैंड ऐंटी स्लेैवरी सोसायटी और फिर अमेरिकन ऐंटीस्लेवरी सोसायटी की स्‍थापना की और दूसरी कई सोयायटियों के स्थापकों में रहे। उन्होंने लिबरेटर नाम से एक साप्ताहिक पत्र निकालना आरंभ किया जिसके प्रथम पृष्ट पर यह संकल्प वाक्य होता ‘’आइ विल बी हर्ड’’, या ‘अकारथ न जाएगी मेरी गुहार’। उनकी व्यग्रता कैसी थी यह उनकी भाषा और संकल्प से ही समझा जा सकता है और इसी के कारण उनका पत्र देश देशान्तर में लोकप्रिय हुआ था । इसके पहले अंक में छपे अपने लेख में उन्होंने लिखा था:

”जानता हूं मेरी तल्ख भाषा पर बहुतों को आपत्ति होगी, परन्तु क्या तल्खी बेवजह है ? मैं उतना ही कठोर रहूंगा जितना कठोर सत्य होता है और मैं उसी तरह झुकूंगा नहीं जैसे न्याय झुकता नहीं है। इस विषय पर मैं नरमी से न तो सोचना चाहता हूं, न बोलना और न लिखना। नहीं, कदापि नहीं। उस आदमी से जिसका घर जल रहा हो कहो कि वह नरमी से गुहार लगाए; उस आदमी से जिसकी पत्नी को किसी लफंगे ने दबोच लिया है कहिए कि वह उसे नरमी से छुड़ाए, जिस मां का बच्चा आग में गिर गया है उससे कहिए कि वह उसे आहिस्ता उससे बाहर निकाले. परन्तु इस मामले में मुझसे न कहिए कि मैं नरमी से काम लूं। मैं सच कहता हूं, मैं हिचकूंगा नहीं – मैं बहानेबाजी नहीं करूंगा – मैं एक इंच भी पीछे न हटूंगा – अकारथ न जाएगी मेरी गुहार । लोग इतने उदासीन हैं कि इन मुर्दों को जगाने के लिए प्रतिमाओं को अपने चबूतरे से उछल कर दौड़ पड़ना चाहिए।‘’

”गुलामी के समर्थकों ने उनके प्रेस को तोड़ दिया। उन्होंंने इंग्लैंड के अपने मित्रों की सहायता से नये प्रेस का प्रबन्ध किया जिसे चोरी से रात को उतारा और पहुंचाया गया और एक तहखाने में लगाया गया। वह उसके लेख लिखते, उनको कंपोज करते, छापते और उसकी ओजस्वी भाषा और क्रान्तिकारी विचारों के कारण वह अमेरिका में ही नहीं यूरोप के कई देशों में बड़े सम्मान से पढ़ा जाता। उपद्रवों और विघटनों के बीच वह अडिग बने रहे। विरोध करने वालों में उत्तरी और दक्षिणी दोनो राज्योंं के लोग थे। वे दासता विरोधी सभाओं में उपद्रव मचाते, व्याख्यान देने वालों पर हमला कर देते, उनके दफ्तरों को तोड़ फोड़ डालते। दक्षिण के राज्यों ने गैरिसन को जिन्दा या मुर्दा पेश करने पर भारी इनाम घोषित कर रखा था। उन्होंंने दासता उन्मूलन के लिए महिलाओं का भी एक संगठन तैयार करने में सफलता पाई थी। एक बार उसमें भाषण देने के लिए ब्रिटेन के ओजस्वी वक्ता जार्ज टामसन आने वाले थे, पर वह उपद्रव के डर से नहीं आ सके। उनके स्था्न पर गैरिसन ने भाषण देना आरंभ किया। दासता समर्थकों की हजारों की भीड़ टामसन को तलाशती आई थी, वे न मिले तो गैरिसन हाथ लग गए। उनके यातना वध के लिए उग्र भीड़ दहाड़ने लगी तो वह बाहर आए ललकारा ईश्वर को जो मंजूर होगा वही होगा ‘गाड्स विल बी डन’। भीड़ पीछे हट गई । कुछ देर के बाद वह फिर लौटी इस बार उस भवन की बुर्जी को रस्‍सों से बांध कर नीचे ढहा दिया, गैरिसन के गले में फंदा डाल कर बोस्टन की सड़कों पर कुत्‍ते की तरह घसीटना शुरू किया। उनकी जान बचाने का कोई चारा न देख कर शेरिफ ने उनको गिरफ्तार कर लिया और लेवरेट स्ट्रीट की जेल में डाल दिया।

”उन्होंने केवल यहीं अपना अभियान समाप्त नहीं किया, महिलाओं के समान अधिकार के लिए संगठन से भी जुडे़ और दासता की समाप्ति तक अपने संघर्ष में जुटे रहे। इसके बाद उन्होंने दासता विरोधी सोसायटी से भी मुक्ति ले ली और लिबरेटर का प्रकाशन भी समाप्तं कर दिया कि इसके साथ एक युग का अन्‍त होता है। एक बार एक नीग्रो की हत्‍या के लिए एक दूसरे नीग्रो को प्राणदंड की सजा सुनाई गई तो उन्‍होंने इसके विरुद्ध भी अभियान छेड़ा कि जरूर इसके पीछे किसी दूसरे का हाथ है। हत्‍या के सारे प्राणदंड पाने वाले काले की क्‍यों होते हैं।”

‘’हम अंबेडकर पर बात कर रहे हैं या गैरिसन पर?’’

”तुमने विश्व की महान विभूतियों के बीच अंबेडकर के मूल्यांकन की बात की थी। संयोग वश जिन हस्तियों से मेरा परिचय है उनमें से एक को इसलिए तुलना के लिए चुना कि वह भी अस्पृश्यता जैसी ही एक गर्हित प्रथा के उन्मूलन के लिए कृतसंकल्प थे और उसकी बगल में अंबेडकर को और भारतीय यथार्थ को रख कर समझा जा सकता है कि अंबेडकर का कद क्‍या है। यह ध्यान रहे कि बाबा साहेब ने तो प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृ्ति को जलाया भी था, गांधी गोलमेज कान्‍फ्रेंस से लौटे तो हजारों दलितों की भीड़ ने उन्‍हें घेर भी लिया था, गैरिसन का अभियान पूर्णत: अहिंसक था – विचारों के प्रसार से ही एक ऐसी चेतना फैलाने का अभियान कि जिसने अब्राहम लिंकन को वह कठोर विकल्प भी चुनने को बाध्य कर दिया जिससे कम पर दक्षिण के राज्यों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता था।

”अब यदि अंबेडकर की ओर दृष्टि डालें तो उनकी स्थिति उस बीमार की सी थी या उन बीमारों के प्रतिनिधि जैसी थी जो किसी वेदना से छटपटा रहे हों और तत्काल उससे मुक्ति चाहते हों।

”दलित समाज जिसके लिए तब आप्रेस्डस क्लास का प्रयोग चलता था, की वेदना के दो कारण रहे हैं। एक आर्थिक दुर्गति और दूसरा सामाजिक तिरस्कार । दलित समाज में एक बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा रहा है जो आर्थिक दुर्गति से बचा रहा है या कुछ सुविधाजनक स्थिति में रहा है। अंबेडकर इसी में आते थे इसलिए उन्होंने अपने अभियान में आर्थिक दुर्दशा से मुक्ति को प्रधानता नहीं दी और इसे आधा सामाजिक और आधा आध्यात्मिक बना दिया जिसमें राहत धर्मपरिवर्तन के माध्यम से तलाशा जा रहा था, परन्तु वह एक कर्मकांड से आगे न बढ़ सकता था, न बढ़ पाया। इस आध्‍यात्मिकता ने ही संभवत: उन्‍हें अपनी मुक्ति के लिए कम्‍युनिज्‍म से भी बिदकाया।

”भारतीय समाज में हजारों साल की पुरानी ग्रन्थियां बनी हुई हैं जिनसे मुक्ति के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने भी कभी आन्दोलन किए और कभी आन्दोलन करने वालों का साथ दिया, परन्तु जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे सभी प्रयास अपर्याप्त रहे। यहां न यातना का रूप गुलामों जैसा था, न ही मुक्ति का विरोध उस तरह का था। सवर्णों की अधिकांश आपत्तियां मलिनता को लेकर थीं या इसका बहाना बनाया जाता था और मलिनता से मुक्ति के लिए सबसे जरूरी था आर्थिक स्तर में सुधार या उसको प्राथमिकता देना, जिसका अंबेडकर के अभियान में अभाव दीखता है।

”हम देखें तो उनके सारे सरोकार दलित समाज तक केन्द्रित थे जिनमें व्यापक राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीनता का भाव तो था ही, सरोकार दलित समाज के भी उस तबके तक सीमित था जो मध्यवर्गीय सुविधाओं से संपन्न था। यही आज के भीमवादियों की भी स्थिति है। वे अपने लिए सुख सुविधा और छूट चाहते हैं, पूरे दलित तबके के लिए नहीं। इसमें दलित समाज की महिलाओं की मुक्ति या समानता का भी कोई आग्रह न था और महिलाओं के विषय में उनका दृष्टिकोण आज भी पुरुषप्रधान है या कहें वर्णवादी है।

”अंबेडकर का अभियान भी केवल मौखिक था, इसके लिए कभी उन्हों ने दलितों के बीच जा कर स्वयं उनको संगठि‍त करने का काम किया हो इसकी जानकारी हमें नहीं है। उन्हेंं बचपन में जो भी भेदभाव सहने पड़े हों, और इसकी जिन भी रूपों में प्रतीति बाद में भी रही हो, उन्हें अपने अस्पृश्यता निवारण अभियान में किसी तरह की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ा।

”अब हम लायड गैरिसन की ओर देखें तो उन्हें सभी सुविधाएं प्राप्त थीं। उनका त्याग करते हुए, परदुखकातरता के चलते उन्होंने अपने लिए संकट मोल लिया, अपमान और विरोध का सामना करते हुए अडिग भाव से विविध स्तरों पर सक्रिय रहते हुए अपना अभियान चलाया। यह परदुखकातरता गांधी के उस प्रार्थनागान में मुखरित है जिसमें पराई पीर को समझने वाले को और उसके निवारण के लिए प्रयत्न करने वाले को ही वैष्णव या ईश्वर का सच्चा भक्त माना गया। उन्‍होंने अहिंसात्‍मक विरोध का वही रास्‍ता अपनाया जिसे लायड गैरिसन ने अपनाया था। अंबेडकर को गांधी पर भरोसा नहीं था, यह गांधी थे जिनकी प्रेरणा से अंबेडकर को भारत का संविधान बनाने का जिम्मा सौंपा गया। मनुस्मृति जलाने की जगह आप नया भारतीय धर्मशास्त्र ही लिखो और पूरा भारतीय समाज उसी के अनुसार चलेगा।

” क्या कानून बना कर लोगों की चेतना को बदला जा सकता है? यदि हां तो आज किसी को अस्पृ्श्यता को ले कर शिकायत करने की न तो जरूरत है, न अधिकार। यदि नहीं, तो समझना चाहिए कि चेतना को बदलने का अभियान जिसे गांधी ने आरंभ किया था, उसमें अंबेडकर बाधक बने । अपनी बौद्धिक प्रखरता के बाद भी वह गांधी की तुलना में कम दूरदर्शी थे और ब्रितानी सत्‍ता द्वारा इस्‍तेमाल होते रहे थे।”