दलितस्तान का सपना
‘’तुम्हारे साथ एक दिक्कत है, तुम जब तारीफ करोगे तो वही आदमी दूध का दुला नजर आएगा और फिर जब कोई कमी दिखाई दी तो वह अगले ही क्षण कीचड़ में सना मिलेगा। दो दिन पहले तुमने अम्बे डकर को इस तरह आंका था कि दूसरे उनके सामने बौने लग रहे थे और कल तुमने उनको ही इस तरह घुटने टेकते हुए दिखाया कि लगा तुम्हारा वर्णवादी पूर्वाग्रह जाग गया है और वही बोल रहा है।‘’
’’दिक्कत मेरे साथ नहीं है, तुम्हारे साथ है। तुम फर्क करना नहीं जानते और कई चीजों का घालमेल कर देते हो। हम पहले उनकी प्रतिभा की बात कर रहे थे। उनके ज्ञान की बात कर रहे थे। उनकी विश्लेषण क्षमता की बात कर रहे थे। इन सभी दृष्टियों से कोई दूसरा उनके समकक्ष नहीं दिखाई देता। पर समकक्ष न होने का अर्थ बौना होना नहीं होता, कुछ झंस होना होता है। इससे अभिभूत हो कर तुमने विश्व की महान विभूतियों से उनकी तुलना का सवाल उठा दिया तो मेरी जानकारी में जो व्यक्ति था सिर्फ उससे मिलान करके देखा और दूरदर्शिता, दृढ़ता, त्याग और परदुखकातरता में वह काफी कम सिद्ध हुए। उनको कीचड़ में सना दिखाने की नीयत का आरोपण तुमने कर लिया।‘’
’’क्या तुमने यह नहीं कहा था कि वह आत्मकेन्द्रित थे, समस्त दलित वर्ग के उद्धार की उन्हें चिन्ता न थी।‘’
’’यदि ऐसा कहा, या जो कुछ कहा उससे ऐसा लगा तो यह अर्धसत्य है। पूरा सच यह है प्रत्येक प्रतिभाशाली व्यक्ति अनन्य और सर्वोपरि होना चाहता है। इसके लिए प्रयत्न भी करता है। इसकी उसे आदत सी पड़ जाती है और इसलिए वह स्वार्थी भी होता है और हाथ लगने पर दूसरों का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहता है। इस मानी में नेहरू, जिन्ना, सुभाष, अंबेडकर सबका स्वभाव एक जैसा था।
”यह मत भूलो कि समाज के लिए सबसे उपयोगी दोयम दर्जे के लोग होते है, अव्वल अपने को ही केन्द्र मान कर दूसरी चीजों में हिस्सा लेते है। महान विभूतियां भी दोयम दर्जे की ही होती है । वे अपने श्रम और अध्यवसाय को अन्तर्दृष्टि में बदलते हुए वह क्रान्तदर्शिता अर्जित कर लेते हैं जो प्रखर मेंधा और अचूक स्मृति वाले लोगों के लिए असंभव होती हैं। प्रखर मेधा के लोग त्याग नहीं करते, निवेश करते हैं, इनवेस्ट करते हैं अच्छे रिटर्न के लिए ।‘’
उसने कुछ कहना चाहा पर अपने को रोक लिया।
‘’इनमें संवेदना की कमी नहीं होती, यदि पीड़ा या अभाव अपने से जुड़ा हो तो व्याकुलता भी अधिक होती है और समान दुखी जनों के प्रति कातरता भी पर्याप्त होती है, पर उसके निवारण के लिए अपना कुछ खोए बिना कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। अस्पताल में पड़ा कोई बीमार दूसरों का दुख बांट कर उनको चंगा नहीं देखना चाहता है और सबके भले की कामना करते हुए भी यदि सभव हो तो दूसरों की कीमत पर अपना भला चाहता है। सो त्रासदियों से उत्पन्न आत्मनिष्ठा का अपना तर्क होता है। बाबा साहब को तुम इसी स्थिति में रख कर समझ सकते हो। मैंने कहा था, उनका ध्यान दलितों की विपन्नता की ओर नहीं गया क्यों कि विपन्नता का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा पर सच तो यह है कि सभी दलितों के हित की उन्हें चिन्ता तक नहीं थी। 1937 में उन्होंंने अपने दल इंडियन लेबर पार्टी की ओर से जिसमें लेबर का मतलब भी केवल दलित था, जो दलित उम्मीदवार खड़े किए थे उनमें महारों को ही उम्मीदवार बनाया गया था। केवल एक मंग था और चमार एक भी नहीं।‘’
’’परन्तु तुम कह रहे थे वह अंग्रेज सरकार के हाथ की कठपुतली थे। मेरा मतलब है तुमने जो कहा उसका यही आशय निकलता है।‘’
’’मैंने कहा, उनका उपयोग कर लिया गया। वह स्वयं ब्रिटिश सरकार का और उससे प्राप्त पदों और अधिकारों का उपयोग दलित हितों के लिए करना चाहते थे। यहां मामला काउंटर स्पाइंग जैसा है जिसमें दो शत्रु देशों के भेदिये कुछ फालतू या सुरक्षित गुप्त सूचनाओं का आदान प्रदान करते हुए यह दिखाते हैं कि वे उनके लिए काम करना चाहते हैं, और इस विश्वास में रख कर दूसरे से गुप्त सूचनाएं हथियाना चाहते हैं। कहो, दोनों एक दूसरे का उपयोग करना चाहते हैं और परिस्थितियां इसका फैसला करती हैं किसने किसका इस्तेमाल कर लिया।
”उनकी सारी मांगे ठीक उसी रास्ते पर थीं जिस पर मुस्लिम लीग चली थी। उन्होंने 1942 में शेड्यूल्ड कास्टक फेडरेशन बनाया जिसमें उनका तर्क था कि अनुसूचित जातियों को उसी तरह का अल्पमत माना जाना चाहिए जैसे मुसलमानों को माना जाता है इसे भी केवल पृथक निर्वाचन मंडल नहीं मिलना चाहिए अपितु अलग राज्य मिलना चाहिए।
”कहते हैं क्रिस्प् कमेटी की रपट पर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन ने सितंबर 1944 काे लिखा था, “the Scheduled Castes are a distinct and separate element in the national life of India and that they are a religious minority in a sense far more real than the Sikhs and Muslims can be and within the meaning of the Cripps Proposals”
‘’ अंग्रेज अधिक से अधिक समय तक अपना शासन बनाए रखने के लिए उस एकता को तोड़ना चाहते थे जिसे पैदा करने की कोशिश कांग्रेस लगातार करती रही।‘’
’’जब अलगाव पहले से बना हो तो एकता को तोड़ने का सवाल कहां से पैदा हो गया। जिनका छुआ खाना भी न खा सको, जिनके साथ मिल कर उठ बैठ न सको, उनको भाई भाई कहना तो उनकी आंख में धूल झोंकना है। मैं तुमसे परहेज करता रहूं और तुम मेरे साथ बने रहो। हास्यास्पद प्रस्ताव है। इसीलिए तो ढोंग पाखंड का सन्देह होता है।‘’
’’देखो समाज तो बहुत जटिल संरचना है जिसमें एक एक व्यक्ति का अपने सगों तक से दबा छिपा भेद बना रहता है, पत्थरों तक मे कई तरह के स्तर होते है, और पर्तो को पहचानने वाले चट्टानों को छेनी और हथौडे़ की चोट से पूरा अलग कर देते हैं। संगमर्मर की सिल्लियों को फटते देखा है कभी। प्राकृत पदार्थों में भी अनेक द्रव्य मिले होते हैं। वे जुड़े हैं तब तक किसी बाहर के लिए अधिक शक्तिशाली हैं, और बाहरी को हटा कर फिर वे अपना सुधार परिष्का्र और नया समायोजन कर सकते थे। किसी अन्य का दबाव रहते नहीं कर सकते। गांधी के नेतृत्व में इस तरह के सम्मानजनक समाधान की संभावना थी। इसे फूट डालने वाली ताकतों ने इसलिए इस्तेमाल कर लिया कि ये अपनी समझ से उसका इस्तेमाल करना चाहते थे, जब कि गांधी के पास किसी का इस्ते माल करने की योजना न थी, सीधी बात थी पर वह लाख कोशिश के बाद भी अपने लिए सत्ता के भूखे लोगों की महत्वाकांक्षा और होड़ के चलते उन्हेंं समझा नहीं सके।
”तुम्हें पता है अम्बेडकर भी दलितो का एक अलग राज्य बना कर उसके राजा बनना चाहते थे।‘’
‘’विश्वास नहीं होता।‘’
’’पहले मैं भी नहीं जानता था। तुम जानते हो बहुत सारे मामलों में मुझे आनन फानन में इधर उधर से कुछ जुटाना पड़ता है। इसी तरह सूचना हाथ लग गई। उनका कहना था, प्रत्येक गांव से सटे दलितों की अपनी अलग बस्तियां हैं। यदि इन सबको जोड़ कर, इन्हें वहां से हटा कर एक अलग भूभाग में बसाया जाय तो दलितस्तान बन सकता है और इसका राजा कौन होगा यह बताने की तो अब जरूरत ही नहीं रह जाती।‘’
’’बड़ी हास्यायस्पद बात है यार । उनके जैसे प्रखर दिमाग में ऐसे हवाई खयाल आ ही नहीं सकते थे। तुमने जिस जगह से यह सूचना ली है वह किसी की मनगढ़न्त कहानी होगी।‘’
”1944 में ही बेवरली निकोलस नामक एक अंग्रेज अफसर से उन्होंने कहा था “In every village there is a tiny minority of Untouchables. I want to gather those minorities together and make them into majorities. This means a tremendous work of organisationn – transferring populations, building new villages. But we can do it, if only we are allowed [by the British].
‘’उनके भीतर दलित हित से अधिक उग्र था सत्ता का मोह। यह एक ऐसा पक्ष है जिस पर जानकार लोगों को काम करना चाहिए। समय होता तो मैं स्वेयं करता । यूं तो यह प्रस्ताव ही इतना अव्यावहारिक था कि इसे मूर्खतापूर्ण कहा जा सकता है। विपन्नों के जमघट वाले उस देश का हाल क्या होता यह तो हमारे लिए भी कल्पनातीत है। महत्वाकांक्षा जन्य मूर्खताएं अपनी प्रकृति से ही अविश्वसनीय होती हैं।‘’