Post – 2016-06-27

सुबूही

‘’आज तो तुमने बहुत सारी गजलें एक साथ पिला दी अपने दोस्तों को। पहले कहते थे कविता को समय नहीं दे पाता इसलिए उससे बचता हूं और एक गजल पर कुछ तालियां क्या बजीं कि, क्या कहते हैं बैरगिया नाले वाले गीत में, जब तबला बाजे धीन धीन तब एक एक पर तीन तीन। तबला की जगह तालियां करदोतो तो एक गजल के बाद तीन का तर्क समझ में आ जाएगा।‘’

’’बैरगिया नाले की ही समझ हो सकती है तुम्हें, और इसलिए संगीत और कविता की समझ भी धीन धीन और तीन तीन पर ही सपाप्त हो जाएगी। जो सुबह सुबह मैंने परोसा था जानते हो उसे क्या कहते हैं?

”नहीं जानते। मैं बताता हूं। उसे गजल नहीं कहते हैं, सुबूही कहते हैं।‘’

’’सुबूही ? यह तो नाम ही पहली बार सुन रहा हूं।‘’

’’जब शाम की अधिक चढ़ जाती है और उससे सिर फटने की नौबत आ जाती है तो उसके खुमार को उतारने के लिए जो सुबह को ली जाती है उसे सुबूही कहते हैं। तो जो मैं अपनी पोस्ट् करता हूं वह कुछ भारी भी पड़ती है और उसमें स्पिरिट का अनुपात भी कुछ बढ़ जाता है जिससे लिखते समय मुझे ही नशा हो जाता है तो पाठकों को तो होगा ही। इसी के जवाब में पैदा होती है वह तुकबन्दी जो अक्सर भारीपन का मजाक उड़ाती हुई या उस पर अपने आह्लाद को मूर्त करती हुई मेरे चेतन बौद्धिक आयास के ठीक विपरीत मेरे अनजाने ही अवचेतन द्वारा रची जा रही होती है और लगभग बनी बनाई सामने आकर खड़ी हो जाती है और रास्ता रोक लेती है। उसका परिणाम थी वह जिसका समय कल शाम का दिया हुआ है और अपने उस अवचेतन की महिमा के प्रति नमन का परिणाम थी आज की सुबूही और फिर उसके साथ यह प्रतीति कि मृत्यु तक के प्रति इस स्वागत भाव के पीछे कहीं मेरे आज की जिन्दगी की कोई निराशा न पढ़ जी जाय लगभग व्याख्या करती हुई तीसरी गजल। कहें तोनों में विचार ही कविता बन रहा है अनुभूति नहीं और विचार का उपहास तो होगा ही क्‍योंकि अवचेतन उसी के दबाब से मुक्ति के लिए तो छटपटा रहा था जो तुक ताल में ढलता चला गया था। यह व्याख्या इसलिए करनी पड़ी कि मैं‍ जिसे अपना सार्थक लेखन मानता हूं वह गद्य का वह अंश ही होता है जो हमारी सामाजिक सोच से टकराते हुए, दूसरों की मान्यताओं से रगड़ झगड़ करती हुई चेतना के रूप को बदलने और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति पाने के लिए चलता है।‘’

‘’अब तुम घूम फिर कर उसी विषय पर आ गए तो यह बताओ, क्या तुम नहीं मानते कि गांधी जी हिन्दू थे और ऐसे हिन्दू थे जो वर्णव्यवस्था को मानते थे?‘’

’’तुम नहीं समझोगे, पर कहते हो तो मान लेते है।‘’

’’मेरे कहने की बात क्या, है यार। राजगोपालाचारी ब्राह्मण थे पर वर्णवादी नहीं थे। गांधी जी से पहले दयानन्द सरस्वती हो चुके थे, वह जन्मना ब्राह्मण थे, पर वर्णवाद का उन्मूलन करना चाहते थे। गांधी उनसे बाद में मंच पर आए और उनसे भी पीछे चले गए। राजगोपालाचारी ने अपनी पुत्री का विवाह उनके पुत्र से करने का प्रस्ताव रखा तो उन्हों ने इसका विरोध इसी आधार पर किया कि ब्राह्मण कन्या, का विवाह बनिये के लड़के से नहीं हो सकता। यह तुम्हें नहीं मालूम ?”

‘’मालूम है।”

”फिर ऐसा वर्णवादी व्यक्ति अछूतों के प्रति सहानुभूति रख सकता था ? वह वर्णव्यवस्था को मिटा कर सामाजिक समता के अभियान में शामिल हो सकता था। अछूतों को हरिजन कह उन उनको बेवकूफ अवश्य बना सकता था? इसे ढोंग न कहेंगे तो क्या कहेंगे? और इसके बाद भी तुम कहते हो कि वह अन्दर बाहर एक थे? सत्य के पुजारी थे और जाने क्या क्या। मैं किसी के कहने पर नहीं जाता। परखने की मेरी कसौटी यही है और इस पर गांधी ढोंगी सिद्ध होते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर की दृष्टि बहुत प्रखर थी। वइ भारतीय नेताओं में सबसे पढ़े लिखे नेता थे। उन्हें कोई धोखा नहीं दे सकता था। इस ढोंग को समझ लेने के कारण ही उनसे वह छत्तींस का संबंध बना कर रहे।‘’

’’मेरा एक उपन्यास है, उन्माद, जिसका तुम्हें पहले भी हवाला दिया था। उसका बहुत आधुनिक खयालों का एक मुसलिम चरित्र है जो ‘बेहिस’ उप नाम से शायरी भी करता है। उसमें उसके लिए मैंने कुछ नज्में , शेर आदि भी जड़े थे। उनमें एक शेर था, ‘तेरी नजरों में ही कुछ खम है आ गया बेहिस । आईने टूटते जाते हैं जिधर देखता है।‘ खम तो मैंने नम्रता वश पैनेपन के लिए प्रयोग किया था, तात्पर्य था उस वेधकता से जो नकली दीवारों, नियमों और बन्धनों और रुकावटों को तोडती, गिराती, व्यर्थ करती चली जाती है। गांधी के बारे में यह भी जोड़ सकते हो कि उनके साथ कसौटियां तक टूटती चली जाती है। वह अपनी सरलता और पारदर्शिता में भी बहुत गहन हैं। यदि हमारे समय के बुद्धिजीवी और नेता केवल गांधी को समझ जाते तो इस देश की आधी समस्यायें पैदा तक न होतीं, या होतीं तो उसी से सुलझ जातीं ।‘’

’’मैं जानता था तुम यही करोगे। जवाब नहीं सूझेगा या देते न बनेगा तो लफ्फाजी का झोल खड़ा करके उसके भीतर से समस्या को ही गायब कर दोगे जैसे जादू का खेल दिखाने वाले करते हैं। तुम फंस गए हो, चलो, मैं दूसरा सवाल करता हूं, क्या बाबा साहब में ऐसा ढोंग तुम्हें कहीं‍‍ मिलता है जैसा गांधी में मिलता है? उनके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’

‘’मेरी समझ से वह भारतीय नेताओं में सबसे प्रखर मेधा के, सबसे अधिक शिक्षित, सबसे दृढ़ और संवेदनशील व्यक्ति थे। वस्तुपरक और विवेकशील भी और बहुतों को तो वह दुराग्रही भी प्रतीत हो सकते हैं, जब कि वह भीतर से अतिशय विनम्र भी थे। जैसे गांधी को न उनके समय में समझा गया न आज समझा जा सकता है और एक दौर तो ऐसा था कि उनके विरुद्ध ऐसा कुत्सित प्रचार अभियान चलाया गया था कि उससे उनके तेज तक का अन्धविवर तैयार हो गया था जैसा ब्रह्मांड के अन्धविवरों के साथ होता है। उनका अकूत प्रकाश और तेज उनसे बाहर फैल ही नहीं पा रहा थाता। इस दुष्प्रचार में बहुतों का हाथ था, उनका भी जो उनके कन्धे पर सवार हो कर अपनी महिमा तक पहुंचे थे और उनका भी जिनमें से एक ने उनको जीवित और भटकती लाश से मुक्ति दिलाते हुए उनकी इहलीला ही समाप्त कर दी। ठीक इसी तरह बाबा साहब को न तो उनके समय में समझा गया न आज समझने की इच्छा है। उनका इस्तेमाल पहले उतने गर्हित रूप में न हुआ था जो बाद में उनको आड़ बना कर कुर्सी हासिल करने वालों या जयभीम बोलने वालों द्वारा हुआ क्योंकि वे अम्बेडकर को समझना तक नहीं चाहते। दार्शनिक, तत्वचिंन्त क भीमराव अंबेडकर उनके काम का नहीं है।‘’

’’चलो तुमने इतना तो माना कि गांधी और अंबेडकर दोनों का कद बराबर था, पर एक पाखंड भी करता था और दूसरा पारदर्शी था।‘’

‘’मैंने समता विषमता की बात नहीं की। दोनों को समझे न जा सकने की बात की। तुम जिसे ढोंग कह रहे हो उसकी अतल गहराइयों में उतरने की तुम्हारी क्षमता नहीं। पर हां यदि भारतीय समाज इन दोनों नेताओं के विचारों का उसी तरह केवल एक दो साल तक पाठ भी करे जैसे कुछ भक्त गण रोज हनुमानचालीसा या सुन्दकरकांड या रामायण का पाठ करते हैं या जो रोजा नमाज के पाबन्‍द हैं तो भारतीय समाज का हुड़दंग कम हो सकता है और बहुत सारी असाध्य प्रतीत होने वाली समस्याओं का स्वत: समाधान निकल सकता है।

”परन्तु अपने समय में भी इन दोनों का स्वार्थी तत्वों ने अपने हित के लिए उपयोग कर लिया और ये लाचार देखते रह गए। देखो…’’

’’यार आज के लिए यही बहुत है। मेरा मजा किरकिरा मत करो। उस पर कल बात करेंगे।”