Post – 2016-06-28

सिर्फ आंबेडकर

‘’देखो, गांधी को समझना…’’’

मैं अपना वाक्य पूरा कर पाता इससे पहले ही वह कूद पड़ा, ‘’मुझे अभी गांधी पर कुछ नहीं सुनना। उन पर सुनते सुनते मेरे कान पक गए। तुम्हें’ गांधीफीलिया है। छोटी से छोटी बात पर गांधी ने इस पर क्या कहा, या किया, या कुछ नहीं कहा किया तो आज होते तो इस पर क्या कहते का तराना शुरू कर देते हो। पहले तुम अंबेडकर के बारे में बताओ। दुनिया की महान हस्तियों में तुम उन्हें कहां रखते हो?’’

’’बहुत ऊपर । भारतीय राजनीति में पटेल को छोड़ कर दूसरा कोई राजनेता नहीं दिखाई देता जो इतना दृढ़ और समर्पित हो।‘’
’’तुम पटेल को भी गांधी से बड़ा मानते हो न! ठीक सोचते हो, उनमें भी गांधी जैसा ढोग नहीं था और नेहरू जैसी कुनबापरस्ती न थी।‘’

’’तुम नतीजा निकालने की इतनी जल्दाबाजी में क्यों रहते हो? तुम्हीं ने रोका था कि गांधी पर तुम्हे कुछ नहीं सुनना। बाबा साहब की चरण धूलि समेटने के बाद ही तुम उस धूलि से वह चबूतरा बना पाओगे जिस पर चढ़ने के बाद गांधी के पाँव तक स्पर्श कर सको।‘’

’’माफ करो यार, मुझसे गलती हो गई। अब बीच में अपनी ओर से गांधी का नाम नहीं लूँगा, चाहे शैतान का नाम लेना पड़ जाय।‘’

’’वह तो लेना ही पड़ेगा, अपनी जात बिरादरी से बाहर कैसे जा सकते हो। देखो बाबा साहब के बारे में बहुत सी सूचनायें हैं जो तुम्हें इंटरनेट पर मिल जायेंगी। मुझे तो उस खजाने तक का पता नहीं। परन्तु सूचनाओं के पहाड़ को अपने सिर पर लाद कर या उस पहाड़ की चोटी पर खड़े हो कर किसी व्याक्ति को नहीं समझा जा सकता। पूजा भाव से किसी व्यक्ति को नहीं समझा जा सकता, पूजा में झुकने वालों को सिर्फ पांव दिखाई देते हैं, आंखों के आगे से पूरा व्यक्ति ही गायब हो जाता है। गलतियाँ तलाशने वालों को भी, पहले कह आए हैं, केवल मल दिखाई देता है जल नहीं दीखता। किसी व्यक्ति या या वस्तुस्थिति को उससे तटस्थ हो कर, राग-द्वेष से मुक्त हो कर ही समझा जा सकता है।

इसका एक ही तरीका है उनसे सम्मानजनक दूरी। विराट को देखने के लिए तो यह दूरी और बढ़ जाती है और लघुतम को निहारने के लिए उसके आकार का विस्तार करना होता है। इसे तुम भी जानते हो, पर जब तुम किसी स्वार्थवश पहले से ठान लेते हो कि हमें अमुक को अमुक सिद्ध करके दिखाना है तो इन सामान्य नियमों को भूल जाते हो और उन्हीं सूचनाओं से चतुराई भरा एक जाल तैयार करते हो जिसमें दूसरों को फंसा कर उन्हें अपराधी सिद्ध किया जा सके। इसलिए जरूरी है कि हम तथ्यों पर ध्यान दें, प्रकृति के नियमों का सम्मान करें, उनके एक एक तार को समझे और फिर उनसे ही उनका निष्कर्ष निकलने दें। निष्कर्ष या निचोड़ का तो अर्थ ही किसी वस्तु के सार का उसमें से ही, बिना हमारी ओर से किसी मिलावट के, बाहर आना।

जो बात ध्यान देने की है, वह है, उनका व्यापक ज्ञान और उनकी विश्लेषण क्षमता। उस द़ृष्टि से वह गांधी जी से या किसी अन्य भारतीय राजनेता से अधिक समृद्ध, वस्तुपरक, अधिक सन्तुतलित और प्रखर दिखाई देते हैं। उनका यह पक्ष मेरे मन में उनके प्रति गहरा सम्मान जगाता है। मैं उनके ही एक अंश को जो उन्होंने दलित समाज की जड़ों की तलाश करते हुए और यह बताते हुए लिखा था कि जहां तक रक्त का संबंध है ब्राह्मण और शूद्रके रक्त में अन्तर नहीं है, तुम्हारे सामने रखता हूँ।

”इसका यह मतलब नहीं कि मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ, बल्कि यह कि उस समय तक इस निष्कर्ष के आसपास तो दूसरे कई पहुंचे थे, परन्तु उनमें से सबसे साफ नजर और तब तक के विवेचनों में अपेक्षाकृत अधिक गहरी पैठ उनकी ही दिखाई देती है। उनका कहना था कि ब्राह्मणों को तो आत्मसम्मान के लिए भी आर्य आक्रमण के सिद्धान्त का विरोध करना चाहिए, क्योंकि वह कपोल कल्पना है, और उन्हें यूरोपीय नस्लवादियों से तुच्छ सिद्ध करने के लिए तैयार किया गया है, परन्तुं वे उतनी ही निराधार अपनी वर्णगत श्रेष्ठता के चक्कर में उसका समर्थन करते हैं:
“As Hindus they should ordinarily show a dislike for the Aryan theory with its expressed avowal of the superiority of the Aryan races over the Asiatic races. But the Brahmin scholar has not only no such aversion, but he most willingly hails it. The reasons are obvious. The Brahmin…claims to be a representative of the Aryan race and he regards the rest of the Hindus as descendants of the non-Aryans. The theory helps him to establish his kinship with the European races and share their arrogance and their superiority. He likes particularly that part of the theory which makes the Aryan an invader and a conqueror of the non-Aryan races. For it helps him to maintain his over lordship over the non-Brahmins” (Vol.7, p.80).

”और वह उस पुरुष सूक्त का जिसे वर्णविभाजन और ब्राह्मणों की जन्मजात श्रेष्ठता के लिए बार बार उद्धृत किया जाता रहा है, जिस पर अनगिनत प्रख्यात विद्वानों ने बहुत सतही बातें की हैं, उसे जिस तार्किक ढंग से पेश करते हैं उस पर अवाक् हो जाना पडंता है। तुम बाबा साहब का विवेचन देखो। पहले वह पूरे सूक्त की एक एक ऋचा की अन्तर्वस्तु को सरल अनुवाद में प्रस्तुत करते हैं, और फिर :
The Purusha Sukta is a theory of the origin of the Universe. In other words, it is a cosmogony. No nation which has reached an advanced degree of thought has failed to develop some sort of cosmogony. The Egyptians had a cosmogony somewhat analogous with that set out in the Purusha Sukta. According to it,[f2] it was god Khnumu, ‘ the shaper,’ who shaped living things on the potter’s wheel, “created all that is, he formed all that exists, he is the father of fathers, the mother of mothers… he fashioned men, he made the gods, he was the father from the beginning… he is the creator of the heaven, the earth, the underworld, the water, the mountains… he formed a male and a female of all birds, fishes, wild beasts, cattle and of all worms.” A very similar cosmogony is found in Chapter I of the Genesis in the Old Testament.
Cosmogonies have never been more than matters of academic interest and have served no other purpose than to satisfy the curiosity of the student and to help to amuse children. This may be true of some parts of the Purusha Sukta. But it certainly cannot be true of the whole of it. That is because all verse of the Purusha Sukta are not of the same importance and do not have the same significance. Verses 11 and 12 fall in one category and the rest of the verses fall in another category. Verses other than II and 12 may be regarded as of academic interest. Nobody relies upon them. No Hindu even remembers them. But it is quite different with regard to verses 11 and 12. Prima facie these verses do no more than explain how the four classes, namely. (1) Brahmins or priests, (2) Kshatriyas or soldiers, (3) Vaishyas or traders, and (4) Shudras or menials, arose from the body of the Creator. But the fact is that these verses are not understood as being merely explanatory of a cosmic phenomenon. It would be a grave mistake to suppose that they were regarded by the Indo-Aryans as an innocent piece of a poet’s idle imagination. They are treated as containing a mandatory injunction from the Creator to the effect that Society must be constituted on the basis of four classes mentioned in the Sukta.Such a construction of the verses in question may not be warranted by their language. But there is no doubt that according to tradition this is how the verses are construed, and it would indeed be difficult to say that this traditional construction is not in consonance with the intention of the author of the Sukta. Verses II and 12 of the Purusha Sukta are, therefore, not a mere cosmogony. They contain a divine injunction prescribing a particular form of the constitution of society.
The constitution of society prescribed by the Purusha Sukta is known as Chaturvarnya. As a divine injunction, it naturally became the ideal of the Indo-Aryan society. This ideal of Chaturvarnya was the mould in which the life of the Indo-Aryan community in its early or liquid state was cast. It is this mould, which gave the Indo-Aryan community its peculiar shape and structure.

यह तार्किकता, यह गहनता, यह वस्तुपरकता और यह अधिकार मुझे किसी अन्य विद्वान में देखने में नहीं आया। किसी दूसरे भारतीय राजनेता में तो यह योग्युता भी नहीं थी। वह एक एक तार को अलग करके उसी सूक्त को मुखर होने का अवसर देते हैं।

जिन लोगों ने संविधान निर्माण का काम उन्हें सौंपा था वे जानते थे कि इस काम के लिए इससे बढ़िया दिमाग उपलब्ध नहीं है।

यह तो हुआ उनका एक पक्ष। अब दूसरे पर कल सही।
28 जून 2016