Post – 2016-01-23

अगले दो दिनों के लिए दिल्ली से बाहर रहना है इसलिए अस्पृश्यता पर अगली किश्त लौटने पर। फिलहाल यह लेख जो यथावत में भी पढ़ने को मिल सकता है:

बुद्धिजीवी की सामाजिक भूमिका

बुद्धिजीवी जब राजनीतिक कार्यभार अपना लेता है तो बौद्धिक के रूप में वह खाली कनस्तरों की ढेर में बदल जाता है जो बजते हैं तो भी न विचार पैदा होता है न संगीत और जिस भी मंच का उपयोग करते हैं उसे भी ड्रम में बदल देते हैं। मेरा यह विचार हैदराबाद के साहित्य समारोह की नोकझोक से भी अधिक दृढ़ हुआ।

यद्यपि आज तक कभी किसी विश्व हिन्दी सम्मेलन, विश्व भोजपुरी सम्मेलन या विश्व साहित्यकार समारोह में सम्मिलित होने की लालसा तक नहीं पैदा हुई क्योंकि मैं इसे मजमाबाजी से अधिक महत्व नहीं देता, यह मानता हूं कि ऐसे आयोजन अपने घोषित सरोकार के लिए नहीं होते और प्राय: उसकी क्षति की कीमत पर आयोजित होते हैं, परन्तु इनमें सम्मिलित होने वाले साहित्यकारों की प्रतिभा या समझदारी पर सन्देह नहीं करता। दुर्भाग्य की बात यह है कि समझदार लोग भी हमेशा अपनी समझ से काम नहीं लेते, अक्सर दूसरों के कहने में आ जाते हैं और इस उत्साह से उसमें अपनी भागीदारी निभाते हैं कि लगता है सब कुछ स्वंयं सोच विचार कर कर रहे हैं। अन्त में जब पला चलता है कि वे दूसरों द्वारा इस्ते्माल कर लिए गए तब उन्हें समझ आता है कि इतने साल तक उन्होंने करतब तो दिखाए पर समझ से काम नहीं लिया।

बुद्धिजीवी युगों से अपना काम करते आए हैं और अपनी रचना सुनाने या कला दिखाने के आयोजनों में सम्मिलित भी होते रहे हैं, परन्तु आन्दोलन करने के लिए संघबद्ध होने का इतिहास बहुत छोटा है और उसके परिणाम शर्मनाक रहे हैं।

सीआईए ने दुनिया के कितने विख्यात लोगों को कांग्रेस फार कल्चलरल फ्रीडम के जाल में फंसा कर कितने लंबे समय तक इस्तेेमाल किया था, इसे ऐसे अवसरों पर याद करना शिक्षाप्रद होगा। उस पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार सांडर्स ने लिखा था, ‘’उन्हें यह रुचा हो या नहीं, वे इसे जानते रहे हों या इससे अनजान रहे हों, परन्तु युद्धोत्तर यूरोप का शायद ही कोई कवि, कलाकार, इतिहासकार, वैज्ञानिक या आलोचक होगा, जो इस छद्म का शिकार होने से बच गया हो।‘’

अपने देश का भी यही हाल था। इससे लेखकों के बीच पहले जो सौहार्द और पारस्‍परिक सम्‍मान था वह इस सीमा तक नष्‍ट हुअा कि एक धड़े से जुड़े साहित्‍यकार दूसरे खेमे के अपने ही बन्‍धुओं को संसदीय गालियॉ देकर अपना आलोचकीय दायित्‍व पूरा करते रहे।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो सोवियत संघ में समाजवाद कायम होने के दिन से ही नहीं थी, लोकतन्त्र’ वह था नहीं। फिर यह विरोध का स्वर पहले क्यों नहीं उठा। 1949 में ऐसी क्या समस्या आ गई कि इसके संगठित विरोध के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम का मंच तैयार किया गया और लेखकों, विचारकों, कलाकारों को इससे जोड़ने का प्रयत्न हुआ। किसी ने नहीं पूछा कि यह मंच खड़ा करने वाला कौन है, वे जुड़ते चले गए एक पवित्र भावावेश के शिकार हो कर जब कि इनको जोड़ने वाला अकेला था जो अपने दिमाग से काम ले रहा था। वह सूत्रधार था, ये एक अदृश्य तार से जुड़ी कठपुतलियां।

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि महत्वाकांक्षी लोग अधिक आसानी से भीड़ की मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। किसी पूर्वरचित योजना का हिस्सा बनने के साथ ही वे भूल जाते हैं कि उनके पास दिमाग भी है।

इस त्रासदी पर गौर करें कि ठीक इससे पहले ही एक दूसरा आयोजन स्तालिन की पहल से किया गया था और वह भी इसके समानान्तर चलता रहा। यह था ‘किसी भी कीमत पर शांति’ (पीस ऐट एनी प्राइस) जिसका जवाब देने के लिए या जिससे ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम का जन्म हुआ था।

क्या ये सभी लेखक जो इसके मंच पर जुटते गए थे, फासिस्ट थे, या फासीवाद को सह्य मानते थे? नहीं।

क्या इनमें से कोई ऐसा था जिसे शान्ति पसन्द न हो? नहीं।

फिर क्या‍ सोवियत संघ में अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध इन्हें प्रभावित कर रहा था? नहीं।

फिर इनमें से किसी के मन में यह अन्देशा क्यों न पैदा हुआ कि दाल में कुछ काला है, किसी ने इसके औचित्यि पर प्रश्न क्यों नहीं किया? कैसे कैसे नाम : फ्रांत्स बोर्केनो, कार्ल यैस्पर्स, जॉन डेवी, इग्नाशियो सालोन, जेम्स बरहैम, ह्यू टेर-रोपर, आर्थर श्लेेसिंजर, बर्ट्रेंड रसेल, अर्न्‍स्‍ट राइटर, रेमंड ऐरॉन, एल्फ्रेड आयर, बेनेदित्तो क्रोशे, जैक्सर मैरिटेन, आर्थर कोएस्लसर, जेम्से फैरेल, रिचर्ड मोवेन्थााल, राबर्ट मांटगोमरी, मैलविन ज लास्की, टेनेसी विलियम्स, सिडनी हुक, इर्विन क्रिस्टल …और यह बौद्धिक निष्क्रियता। सोच कर हैरानी होती है।

‘किसी भी कीमत पर शान्ति’ के आयोजन में भी यूरोप और अमेरिका सहित दुनिया के आठ सौ कलाकारों, साहित्यकारों का समागम अमेरिका में ही हुआ था। कारण, पहले परमाणुबम की भयानक परिणति को देखने के बाद नागासाकी पर दूसरा एटम बम गिरा कर अमेरिका ने हिटलर से भी अधिक ऩृशंसता से नरसंहार करके अपनी धौंस जमाने के इरादे जाहिर कर दिए थे अत: कलाकारो, विचारकों, साहित्यकारों का नव फासिस्ट विरोधी शान्ति अभियान में लामबन्द होना स्वााभाविक था। इस शान्ति अभियान के विरुद्ध कांग्रेस फार कल्चारल फ्रीडम की आड़ में इतना बड़ा और सफल अभियान चला कर, पत्रों, पत्रिकाओं के लिए धन का प्रबन्ध करके, सीआइए ने इतने अधिक बुद्धिजीवियों को अपने जाल में फँसा लिया था यह इस बात का प्रमाण है कि बुद्धिजीवियों में तार्किकता की तुलना में भावुकता कुछ अधिक होती है और वे अधिक आसानी से बहकावे में आ सकते हैं और लंबे समय तक, कभी-कभी तो आजीवन उसी भुलावे में रह सकते हैं।

बरसों तक दिमाग सीआईए का काम करता रहा और ये उसके द्वारा प्रायोजित विचारों, सूचनाओं, आवेगों और वर्जनाओं के ड्रापबाक्स बने रहे। कई बहानों और तरीकों से जिनका इनको पता तक नहीं चल पाता था, धन, सुविधाएं और मंच सीआइए दे रहा था और अपने अखबार, पत्रिकाएं, गोष्ठियां, परिसंवाद ये चला रहे थे, और इस भरम में जी रहे थे कि वे सचमुच अपनी अक्ल से काम ले रहे हैं। बाद में असलियत का पता चला तो सिर पीटते रहे कि यह था तो अपने पास ही इससे काम क्यों न लिया। Encounter का संपादक रहते स्टिफेन स्पेंडर को यह पता तक न था कि इसका धन कहां से आ रहा है और जब पता चला तो छोड़ कर अलग हो गए। परन्तु अधिकांश तो एक बार गए तो सदा के लिए चले गए। इतनी दूर निकल जाने के बाद वापसी का रास्ता ही बन्द हो गया।

हमें यह भी याद रखना होगा कि जो बुद्धिजीवी फासिज्म विरोध और शान्ति के नारे से आकर्षित हो कर एकत्र हुए थे, इस्तेमाल उनका भी हुआ था। वे नहीं जानते थे कि सोवियत संघ में ही यातना के कितने तरीके अमल में लाए जा रहे हैं। शान्ति तभी संभव है जब सोवियत संघ के पास भी परमाणु बम हो, इस नेक इरादे से एक अमेरिकी ने ही इसके रहस्य सोवियत संघ को सुलभ कराए थे और इसने कुछ दूर तक सत्ता संतुलन का काम भी किया।

इतिहास से शिक्षा ले कर हम सोचें कि यह असहिष्णुता, लेखकीय स्वतन्त्रता पर संकट का हंगामा कब, किस कारण, किनकी हार के बाद आरंभ हुआ और किस तरह लेखक और विचारक इससे संक्रमित होते चले गए, इनके हित कहां से जुड़े रहे हैं और लेखन, आत्मविज्ञापन और राजनीति के बीच इनका कैसा संतुलन रहा है, तो इसका परिणाम क्या होना था यह भी पता चल जाएगा।

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लेखक का काम है लिखना। दार्शनिक का काम चिन्तन करना है। यह हथियार उठाने या आन्दोलन करने से अधिक जरूरी काम है और इसका प्रभाव अधिक गहन और स्थायी होता है। आन्दोलनकारी चिन्तक नहीं होता, हो ही नहीं सकता, वह उसकी योजना का हिस्सा होता है जो आन्दोलन खड़ा कर रहा है। साहित्यकार हो या पत्रकार वह समाज की चेतना और सोच को बदलता है और यदि वह स्वीकार करता है कि समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है या बढ़ी है तो इसका अर्थ है उसने अपना काम नहीं किया, क्योंकि चेतना और सोच से जुड़ी समस्याएं उसके क्षेत्र से जुड़ी हैं जिनका राजनीतिक उपयोग भी हो सकता है।

बौद्धिक के अधिकार सामान्य जनों के अधिकार से अलग नहीं हो सकते, यद्यपि संगठित हो कर बुद्धिजीवी अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग करते है, या कहें, अपने को सामान्य जनों से उूपर, अभिजात हैसियत की आकांक्षा रखते हैं। एक ऐसे समाज में जहां विशिष्ट, अतिविशिष्ट और सर्वोपरि के दरजे बने हों, उसकी ऐसी कामना स्वाभाविक है, परन्तु यह मांग उसे उस व्यक्ति या सत्ता से छोटा बनाती है जो इसे पूरी करता है। उसकी शक्ति उसके विचार या कला से उसी अनुपात में मिलती या बढ़ती है जिस अनुपात में वह अपने समाज में पहुंच बना पाता है। फिर भी एक सुरक्षा उसे चाहिए कि उसके विचार यदि किसी को रास न आते हों तो वे उसे हानि न पहुंचा सकें। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता यहीं तक सीमित है परन्तु यह सापेक्ष स्वतन्त्रता है। हम कुछ भी कहने या लिखने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। हम सचेत रूप में उत्तेजना फैलाने वाली बात न कहने को स्वतन्त्र हैं, न लिखने को। इसका एक पुराना आदर्श है, अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रिय हितं च यत्। साहित्य के मामले में कान्तासम्मित उपदेश, अर्थात् अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने का तरीका आदेशात्मक नहीं हो, अपितु मन को छू जाय और भीतर से वह परिवर्तन घटित हो जो सत्ता के दूसरे रूप अपने तन्त्र और शक्ति के बल पर करना चाहते हैं और अक्सर कर नहीं पाते।

यदि कथन या लेखन का इच्छित प्रभाव नहीं पड़ता, समझ की जगह विरक्ति या उत्तेजना पैदा होती है, उससे कुछ लोग आहत अनुभव करते हैं तो हमारे लेखन या कथन में कोई चूक हुई है। यदि हम जान बूझ कर किसी को आहत करना चाहते हैं तो उसके परिणामों को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके बाद भी कुछ विचार ऐसे हो सकते हैं जो कुछ लोगों के हित या सोच के अनुकूल न हों और उनको उजागर करना समाज हित में हो तो ऐसी चुनौतियों को लेखक को स्वीकार करना चाहिए परन्तु, यदि उसे लगे कि स्वयं उससे किसी के प्रति अन्याय हुआ है तो इसके लिए खेद-प्रकाशन या यह स्पष्टीकरण हर हालत में जरूरी है कि ऐसा किसी की भावना को आहत करने के लिए नहीं किया गया है। यह आश्चर्य की बात है कि जिन दिनों कुछ मुखर लेखकों को ऐसा लगने लगा है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता छिन गई है उसी में वे लगातार ऐसी बातें और काम करते रहे हैं जिनसे बचा जाना चाहिए था। मुझे शक है जिन कृत्यों या घटनाओं का बहाना बना कर यह आंदोलन खड़ा किया गया उनमें से किसी के लिए वे जिम्मेदार थे जिनको निशाने पर रखा जाता रहा।