नरेश मेहता को नमन करते हुए
1
“कहाँ गायब हो गए थे भाई?”
“प्रयोग कर रहा था कि 3 दिन में आदमी कितना बूढ़ा हो सकता है।‘’
‘’पता चल गया?’’
‘’बात करोगे तो पता चलेगा अनुभव कितना अधिक हो गया है, कमर कितनी टेढ़ी हो गई है, याददाश्त कितनी कम हो गई है, थकान कितनी बढ़ गई है, निराशा कितनी गहरी हो गई है, और संकल्प कितना दृढ़ हो गया है।‘’
‘’हां कुछ तो है मैं भी देख रहा हूं – पहले से कम बेवकूफ लग रहे हो, चाल चलन भी गड़बड़ लग रहा है , डगमगाते हुए चल रहे थे, और मुझसे बात करते हुए तो बजरंगबली की गदा ताने हुए से लग रहे हो ! लेकिन सिर्फ 3 दिनों में इतना कुछ कर डाला । कमाल है। यह हुआ कैसे।
’’अरे यार एक मित्र ने सुझाया करपात्री बन जाओ। मैंने हाथ आगे फैला दिया। उसने कहा, इधर नहीं, उधर, देखो उधर बेचारे मध्य प्रदेश के राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वाले सम्मान सॅभाले खड़े है। इस समय जब सभी सम्मानित जन अपना सम्मान त्याग रहे हैं, अपमान का शोर मचाने पर सिंहासन हिल जा रहे है, सम्मान लेने को कोई तैयार नहीं। मौका मत चूको, हाथ बढ़ा दो। मैंने सोचा बढ़ाने की ही तो बात कर रहा है, घटाने की तो नहीं, बढ़ा दिया पंचतंत्र की भाषा में, ‘भाग्येन एकदपि संभवम्।‘ मैं क्या जानता था कि सम्मान का बोझ इतना अधिक होता है कि रीढ़ तक जवाब दे जाय।”
अक्ल से तो काम लिया होता, किसी ने सुझाया और तुम मान गए। थोड़ा नाटक वाटक तो करना था।‘’
“किया था यार, जब पहली बार चयन समिति के एक मित्र ने सूचित किया अबकी बार तुम्हारी बारी तो मैंने कहा, मुझे कहॉं घसीट रहे हो, किसी दूसरे को पकड़ो। उसने कहा, अब तो जो होना था हो गया। और अगले ही दिन कलमबन्द कागज ।‘’
‘’मध्य प्रदेश में, भाजपा के राज में, भाजपा के इशारे पर ही सब कुछ होता है, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास से जुड़े सभी निर्णय शाखा से शाखामृग के लगाव को ध्यान में रख कर ही किए जाते हैं। यह पता था तुम्हें?
’’दुहरा फायदा था यार, बिना शाखा से जुड़े और बिना शाखाचर बने, दोनों का लाभ मिल रहा था। और क्या चाहिए था। उत्साह दूना हो गया।‘’
’’तुमने यह पता लगाया कि यह पुरस्कार भगवान सिंह को दिया जा रहा था या डा श्री भगवान सिंह को?’’
“शायद दोनों को, जो पहले पहुंच जाता लेकर चला आता क्योंकि परिचय में डॉ भगवान सिंह लिखा हुआ था जो मैं हूं नहीं और ‘श्री’ नहीं लिखा था जो कि वह है इसके खतरे थे, मौका हाथ से निकल जाता तो सिर पर हाथ मारने के सिवाय कोई चारा न रह जाता। फिर भी सावधानी बरती। कहा, मेरा टिकट आप बुक कराऍंगे और तिथि भी आप ही तय करेंगे। टिकट भी मेरे पते पर आ गया तो मानना ही था कि मैं वही भगवान सिंह हूँ जो मरीज है, डाक्टर नहीं और श्रीहीन तो है ही । लेकिन मेरे मित्र की पत्नी, मधु को अब भी यकीन न था । कहा, भाई साहब, आप दो दिन पहले ही चले जाइए। कहीं आपके हाथ से निकल ना जाए। आप जानते नहीं हैं वहां कितने घोटाले होते हैं। मैंने लाचारी प्रकट की, ‘टिकट 24 तारीख का है, चाहूँ तो भी रिज़र्वेशन इतनी जल्दी मिलेगा नहीं।‘’
उसने लम्बी सॉस छोड्ते हुए कहा, ‘’किया भी क्या जा सकता है। चले जाइएगा, यदि बचा रहा तो मिल भी सकता है।‘’
’कमाल की बात यह कि वह सचमुच बचा रह गया था।‘’ हालॉंकि वहॉं आमंत्रित दर्जनाधिक विद्वान थे, भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पाति विज्ञान, इतिहास, अभियान्त्रिकी, दर्शन आदि विषयों के पारंगत पर, वे इतना ही बता पाए कि उनके क्षेत्र में हिंदी में क्या काम हुआ है या हो रहा है और इस मामले में यह एक अच्छा आयोजन था, क्योंकि उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि इतना काम मैंने किया है, इसलिए दुबारा विचार करो और कम से कम आधा सम्मान मुझे भी दो। पहली बार लगा की हिन्दी में इतना अधिक काम हो रहा है की या तो हिंदी रहेगी या वे विषय। लेकिन साथ ही यह दुःख भी प्रकट किया जा रहा था कि इन विद्वानों की उपेक्षा हिन्दीे में लिखने के कारण हो रही है । मुझे लगा वे जिस हिन्दी में लिखते हैं उसके कारण हिन्दी की उपेक्षा हुई है।”
“दुर्दशा हिन्दी की ही नहीं है, समस्त भारतीय भाषाओं की है क्योंकि हम बाहरी उपनिवेशवाद से मुक्त, होने के साथ आन्तरिक उपनिवेशवाद के शिकार हो गए ! सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उपनिवेशवाद का खात्मा नहीं ।”
“सोलह आने दुरुस्त! नए उपनिवेशवादियों के हित अंग्रेजी से जुड़े थे और अंग्रेजी को भारतीय भाषा सिद्ध करने के लिए नेहरू जी ने पूरा नगालैंड वेरियर एल्विन के हवाले कर दिया था। आश्चयर्य नहीं कि अंग्रेजों के विदा होने के बाद इतनी जल्द इस देश के एक कोने में एक अंग्रेजी राज्य खड़ा कर लिया गया और संविधान में अवसर की समानता के आश्वासन के बाद भी शिक्षा में ही अवसर की समानता समाप्त कर दी गईा अल्प संख्यक भाषा के सामने हिन्दी जैसी बड़ी भाषा की बात करना संकीर्णतावादी माना जाने लगा और अंग्रेजी को कायम रखने के लिए इसे विश्वभाषा कहा जाने लगा. यह भुला दिदया गया कि दुनिया क्या अंग्रेजी पुरे यूरोप तक की भाषा नहीं है. यह अंग्रेज़ो और उनके औरस या अनौरस संतानों की ही भाषा है, वे चाहे कहीं भी बसे क्यों न हों.
2
मैंने जो कुछ कहा वह ठीक से नहीं कह पाया फिर भी लोगों को अचरज में डालने वाला तो था ही। कहना चाहा हिन्दी क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का क्या मतलब, लेकिन लगा, यह उस संस्थान और उस चयनसमिति का ही अपमान होगा जिसने आपको सम्मा्न के योग्य समझा। इसलिए एक दो उदाहरण दे कर बताया कि आप संस्कृत सहित अपने देश की किसी भाषा को अच्छी तरह नहीं समझ सकते जब तक दक्षिण की किसी भाषा, वैदिक भाषा और अपनी मातृबोली को नहीं समझते। बताया कि हमारी बोलियों में ही कई बोलियों या भाषाओं के तत्व नहीं विद्यमान हैं अपितु बहुत से शब्दा ऐसे हैं जिनका निर्माण कई बोलियों या भाषाओं के प्रभाव में हुआ है। इसका एक उदाहरण तेलुगु की एक की संख्या ओकटि है। इसमें संस्क़ंत का एक तमिल की प्रधान बोली के प्रभाव से ओक हो गया क्योंकि उसमें एक के लिए ओन्र का प्रयोग होता है। सो एकार ओकार में बदला और लालित्य के लिए उसमें उस बोली का अन्त्य प्रत्यय ‘टि’ लगा जिसके प्रभाव से बंगला में एक टि, दू टी जैसे प्रयोग चलते हैं, बंगला में यह एक टा भी हो सकता है और उसका प्रभाव भोजपुरी में किसी ओकार प्रिय बोली के प्रभाव से ठो हो गया, और एक ठो, दू ठो बोला जाता है। इस ठो का एक वैकल्पिक रूप गो भी है, इसलिए एक गो, दू गो भी चलता है। यह गो मराठी के आई गो या माई रे तक पहुँचा हुआ है। बताया कि जिन्हें आप संस्क़ात का मूल शब्द समझते हैं, वह किसी बोली के मूल शब्दं का तद्भव भी हो सकता है। उदाहरण ‘सुख’ का दिया जिसका प्राचीन अर्थ पानी था इसलिए चंडीगढ़ के पास जिस सुखना झील के बारे में एक सज्जान बता रहे थे, पहले यह सूख जाया करती थी इसलिए यह नाम पड़ा वह भ्रम तब टूटा जब देखा यह नाम छत्तीबसगढ़ और असम में भी झीलों के साथ भी जुड़ा है। इस सुख का विलोम ही सूखा है, जहॉं वह नियम काम करता है जो तमिल में प्रभावी है, स्वर को दीर्घ करके विलोम बनाना । वेंडुम – चाहिए; वेंडाम – नही चाहिए। यह सूखा संस्कृ्त में शुष्क हो जाता है और शोषण आदि बन कर कम्युनिस्ट आंदोलन के काम आता है, परन्तु फारसी में यह खुश और खुश्क बन जाता है और अंग्रेजी में सक – चूसना, सुकुलेंट रसीला आदि अर्थ देता है। इसलिए तीन बातों पर ध्यान दें:
पहली यह कि हमारी बोलियॉं संस्कृत से अधिक पुरानी हैं, उनके तद्भव प्रतीत होने वाले शब्द तत्सम और संस्कृत के तत्सम अपनी बोलियों के किसी शब्द का तद्भव हो सकते हैं;
दूसरी यह कि भारत की भाषाई दुर्गति के लिए हिन्दी वाले जिम्मेंदार हैं जिन्होंने इसे राष्ट्रभाषा बनाने के अभियान में तो कोई भूमिका नहीं निभाई, सारा काम बंगालियों और गुजरातियों और मराठियों और कुछ दूर तक तमिलों ने भी किया, परन्तु संविधान में इसे राष्ट्रभाषा का स्थान मिलने के साथ ही इस तरह का तेवर अपना लिया मानो हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले रही है और भारत पर अंग्रेजी राज की जगह हिन्दी राज स्थापित होने वाला है। आज भी स्थिति बेकाबू नहीं है। कमी संकल्प की है। यदि और हिन्दी वाले और खास करके दलित इस बात के लिए कृतसंकल्प हो जायँ कि भारतीय भाषाऍं अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करें तो अंग्रेजी इसमें बाधक बनने की लाख कोशिशों के बाद भी बाधा नहीं डाल सकती परन्तु दलित समाज को झूठे झगड़ों में डाल कर अंग्रेजी प्रेस, ईसाई संगठन और छद्म विदेशी शक्तियॉं उनकी सबसे जरूरी मॉंग, मातृभाषा में शिक्षा और अवसर की समानता से भटकाने में समर्थ रही हैं जिसके साथ बीच बीच में मुस्लिम कट्टरतावादी भी जुड़ जाते हैं जिनके भी विपन्न वर्गों का हित मातृभाषा से जुड़ा है। इसकी ताजी मिसाल हैदरावाद से चला आन्दोंलन है।
तीसरी यह कि हिन्दीं क्षेत्र में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों और संगठनों को दक्षिणभारतीय भाषाऍं सिखाने का काम उसी तरह करना चाहिए जैसे दक्षिणभारतीय क्षेत्र में इनको हिन्दी सिखाने और इसका प्रचार करने में लगाना चाहिए। यदि हिन्दी प्रेमी विश्व हिन्दी सम्मेलन करने की जगह भारत पर सांस्कृ तिक आक्रमण कर दें, जिस तरह दूसरी भाषाओं के दर्जनों ऐसे लोग मिलते हैं जो अधिकार से हिन्दी बोल और लिख लेते है, उसी तरह हिन्दी भाषियों में भारत की सभी भाषाओं पर अधिकार रखने वाले, उनमें लिखने और प्रवाह के साथ बोलने वाले दर्जनों विद्वान पैदा हो सकें तो वह सारा तनाव शिथिल हो जाएगा जिनके कारण सभी भारतीय भाषाओं का अहित हुआ है और शिक्षा की भाषा व्यावसायिक भाषा बन चुकी है जिस तक गरीबों की पहुँच नहीं और जिसके कारण यह आन्तरिक उपनिवेशवाद पैदा हुआ है। लोकतन्त्र में बडी ताकत है।
‘कोई तुम्हारी सुनेगा भी। यह तो रस्म अदायगी हुई। भाषण अच्छा ही दिया तुमने।”
”मैंने इसे यथार्थ में बदलने की अपनी छोटी सी कोशिश में पचास हजार की वह रकम यह कह कर समिति को सौंप दी कि इसे तमिल सीखने वाले या उस पर पकड़ रखने वाले किसी हिन्दी भाषी विद्वान को दें और उन्हों ने इस प्रस्ताव और धनराशि को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इससे प्रेरणा तो मिलेगी ही।”
” तुम भावुक मूर्ख हो। इसकी क्या जरूरत थी।”
”भावुक मूर्ख मैं नहीं, महिमा मेहता हैं। यह पुरस्कार नरेश मेहता की स्मृति में उन्होंने आरंभ की जिसे गोविन्द चन्द्र पांडे और यशदेव शल्य जैसे लोग प्राप्त कर चुके हैं। नरेश जी ने बहुत आर्थिक तंगी झेली थी पर जीवन में कभी न माथा कहीं झुका न ठसक कम हुई और पुरस्कारों से मिली जो धनराशि थी उसे शायद अपने उपयोग तक में नहीं लिया और उससे यह निधि बनी है। इतनी पवित्र उपलब्धि का उपयोग उसी विनम्रता से किसी अन्य योजना के लिए होना जरूरी था। तमिल की शिक्षा का भारत के लिए उतना ही महत्व है जितना संस्कृत शिक्षा का।