Post – 2016-08-30

निदान- 35
श्रेष्‍ठताबोध विषाणुता का पर्याय है

“डाक्‍साब, मैं आपका बहुत सम्‍मान करता हूँ और आपसे कुछ सीखने के लिए ही आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ। परन्‍तु कल मुझे लगा, जिन चीजों का आपका ज्ञान अपेक्षित स्‍तर का नहीं है उन पर भी आप बहुत निर्णायक रूप में बोल जाते हैं। आपको टोकते हुए अच्‍छा तो लगता नहीं, परन्‍तु मैं सोचता हूँ आपको गीता का अध्‍ययन गहराई से करना चाहिए। कहॉं गीता और कहॉं ” शास्‍त्री जी ने वाक्‍य पूरा नहीं किया, शायद इस डर से कि जबान अपवित्र न हो जाय ।

”मेरे बारे में आप की यह गलतफहमी कब दूर होगी कि मैं किसी विषय का आधिकारिक ज्ञान रखता हूँ। यहॉं बैठ कर हम गप्‍पे लगाते हैं, समय काटने के लिए। इसी बीच कुछ आक्‍सीजन भी मिल जाती होगी। यदि यह शर्त रख दी जाय कि बिना आधिकारिक ज्ञान के कोई कुछ बोलेगा ही नहीं, तब तो मुझ जैसों की सामत आ जाएगी और हमें आप लोगों का श्रोता बन कर ही उम्र काटनी होगी जो पार्क को भी रिसर्चसेंटर बना देते हैं। यह दूसरी बात है कि यदि कोई ऊँची बात करता है तो सारस की तरह गर्दन तान कर उसके विचार की ऊँचाई तक पहुँचने का भी प्रयत्‍न करता हूँ।

”बस एक बात आप मेरी मान लें, कहॉं कौन और कहॉं कौन में कई बार उल्‍टी सचाई सामने आती है। आप जानते हैं न कहॉं राजाभोज और कहॉं गंगू तेली मुहावरे का प्रयोग पर इसका इतिहास न जानते होंगे, शायद ।”

मैंने एक नजर अपने दोस्‍त की ओर भी डाली कि वह जानता हो तो बता दे। दोनों चुप रहे तो बताना पड़ा, ”मध्‍यप्रदेश में भोपाल या भोजपाल के पास भोजपुर का शिवमन्दिर जानते हैं, क्‍यों अधूरा है । नक्‍शा शिखर तक का बना था पर रह गया आधा ही। इसका कारण यह है कि राजा ठहरे विद्वान, कलाप्रेमी, वैज्ञानिक, निर्माण कार्यों के प्रति समर्पित, स्‍वयं कवि, संस्‍कृत, प्राकृत और जनभाषा में समान गति रखने वले और प्रजावत्‍सल । विश्‍व के इतिहास में इनसे सुयोग्‍य दूसरा कोई शासक न होगा, परन्‍तु सैन्‍यबल और राज्‍यविस्‍तार के प्रति उदासीन। उन्‍होंने लोकोत्‍थान की चुनौतिकयों और उनके निवारण को ही राजा के लिए सबसे बड़ा समर मान रखा था, इसलिए उनकी पुस्‍तक समरांगणसूत्रधार का नाम सुन कर भ्रम होता है कि यह सैन्‍य विज्ञान का ग्रन्‍थ होगस वा हैस्‍थापत्‍य, मूर्तिकला, विज्ञान, साहित्‍य निरूपण आदि का ग्रन्‍थ है न कि युद्धकौशल का। यदि किसी को जानना हो कि भारत ग्‍यारहवी शताब्‍दी तक ज्ञान विज्ञान में किस ऊॅचाई पर था तो उसको समरांगणसूत्रधार की विषय सूची मात्र देख लेनी चाहिए । पुस्‍तक का परिचय विकीपीडिया पर मिल जाएगा।

”अपने नाम के अनुसार ही दानी भी रहे होंगे। आपको यह बताने की जरूरत तो है नहीं कि भोज का अर्थ है दानशील । बहुत पुराना शब्‍द है । भुज्‍ज का नाम वेद के समय के एक अन्‍य दानशील भुज्‍यु के नाम पर पड़ा वैसे ही भोजपाल (भोपाल) और भोजपुर राजा भोज के नाम पर । लोकप्रियता की पराकाष्‍ठा। । परन्‍तु उनसे भी पराक्रमी तेलंगाना के गंगराज ने उन पर हमला कर दिया। भोजराज को परास्‍त होना पड़ा। वह मन्दिर जो बन रहा था फिर पूरा ही न हो सका। परन्‍तु उस यशस्‍वी राजा की प्रजा कैसे मान सकती थी कि हार राजा भोज की हुई थी। गंगराज तैलंग को उसने गंगू तेली बना कर जो यशपताका फहराई उसी का मूर्त रूप यह मुहावरा है- कहॉं राजा भोज और कहा़ँ गंगू तेली। एक माने में यह सच भी है। राजा वही जो दिलों पर राज करे, प्रजावत्‍सल हो, उसे सत्‍ता पर नजर रखने वाला हरा भी दे तो प्रजा उसे हारने न देगी। फिर भी कहॉं अमुक और कहॉं तमुक में सचाई नहीं, किसी के प्रति अगाध अनुराग और दूसरी ओर उपेक्षा भाव की अभिव्‍यक्ति तो होती है, वस्‍तुपरक मूल्‍यांकन नहीं।”

शास्‍त्री जी तो असमंजस में थे कि बीच में टोकें भी तो कैसे। उनके धर्मसंकट में मेरा मित्र ही काम आया। मेरा हाथ पकड़ कर लगभग झकझोरते हुए कहा, ”बात गीता पर हाे रही है कि राजा भोज पर ?”

मैं जमीन पर आ गिरा लेकिन तुरत सँभल कर बोला, ”पहले ही याद दिलाना था न, देर तो तुमने की है।” देखा, इस पर भी उसका तेवर बना ही हुआ है तो कहा, ”यार मैंने सोचा आज तो शास्‍त्री जी को हमें समझाना है। मुझे लगा, आज तो बोलने का मौका मिलेगा नहीं, सो इसी बहाने …।” अब शास्‍त्री जी की ओर मुड़ा, ”हॉं बताइये गीता में वह क्‍या खास बात है जो मेरे पल्‍ले नहीं पड़ी थी और कुर’आन में क्‍या कमी है जो आपको खटकती है ?”

शास्‍त्री जी संकोच में पड़ गए, ”देखिए कुरान तो मैंने पढ़ी नहीं, न ही पढ़ने की जरूरत पड़ेगी। कुरान पढ़ना तो दूर वहॉं तो पहले किसी के मुँह से कलमा भी निकल गया तो वे घोषित कर देते थे कि वह मुसलमान हो गया और अगर फिर से इस्‍लाम से बाहर आने की चेष्‍टा की तो प्राण गँवाने पड़ेंगे । वह समय होता तो जो लोग कहते हैं कुरान में यह लिखा है, यह कमी है, उन सभी को वे मुसलमान घोषित कर चुके होते क्‍योंकि वे इस आलोचना के साथ कुरान पढ़ने को तो स्‍वयं स्‍वीकार कर लते हैं और उसमें कमी देखने के अपराध पर उनको चौराहे पर खड़ा करके कोड़े भी लगाते । उन्‍हें मुसलमान नहीं, पक्‍का मुसलमान ही रास आता है।”

”शास्‍त्री जी, यह जो खानपान में अस्‍पृश्‍यता की मनाही है उसके चलते जो मुसलमानों के हाथ का पानी पी लेते या किसी होटल में खाना खा लेते उन्‍हें तो आप खुद धक्‍का दे कर मुसलमान बना देते। आपने जितना मुसलमानों का हित किया उतना तो मुसलमान भी अपना नहीं कर पाए होंगे। अभी एक रिसर्चर साहब नेहरू के तीन पीढ़ी पीछे जा कर इस आधार पर नेहरू को मुसलमान साबित कर रहे थे कि उनके अनुसार सत्‍तावन में अपनी जान बचाने के लिए उनके दादा मुसलमान से हिन्‍दु हुए थे।”

मैंने रोका, ”शास्‍त्री जी को ही बोलने दो यार, नहीं तो वह जो कहना चाहते हैं कह ही न पाऍंगे।” अब मैं जिज्ञासु भाव से शास्‍त्री जी की ओर मुड़ गया।

”कहने को मेरे पास कुछ नहीं है, और जो कह गया था कि आप इस प्रश्‍न को गहराई से नहीं जानते, उसे अवश्‍य वापस लेने का मन होता है। कारण, मुझे यह विश्‍वास हो ही नहीं पाता कि आप उन बातों को नहीं जानते जिन्‍हें मैं याद दिलाना चाहता हूँ । मैंने आपकी पुस्‍तकों और लेखों काे ध्‍यान से पढ़ा है और मुझे जो कहना है, उसका बहुत कुछ तो आपके लेखन से ही प्रेरित है, इसलिए इसे स्‍मरण दिलाने का दुस्‍साहस मान कर सुनें तो ही अपनी बात कह पाऊँगा।”

मैंने कुछ कहा नहीं, केवल उनके कंधे पर हाथ रख दिया ।

”पहली बात तो यह कि हमारी चिन्‍ताधारा में परमेश्‍वर या सर्वोपरि सत्‍ता की वह अवधारणा ही नहीं है जो सामी मजहबों में पाई जाती है। वे धर्म नहीं हैं, मत हैं, अपने कबीले के बाहर उनकी नजर नहीं जाती और वह मत जब फैलता भी है तो उसमें वह विराटता नहीं आ पाती। इनकी सर्वोपरि सत्‍ता की छवि फराऊनों की, पता नहीं उनका सही उच्‍चारण क्‍या है, फराऊनों का ही काल्‍पनिक विस्‍तार था। मेरी समझ से फराऊन का अर्थ सबसे बड़ा बादशाह रहा होगा। वैसा ही क्रूर, वैसा ही अहंकारी, वैसा ही निरंकुश । कारण सामी मजहबों में सबसे पुराने यहूदी मत का जन्‍म फराऊन से इब्राहिम अब्राहम के निकाले जाने और साम में आ कर संगठित होने से हुआ। सच कहें तो यहॉं मुझसे नाम को ले कर कुछ दुविधा भी हो रही है, क्‍योंकि अब्राहम या इब्राहिम तो ऊर से यहवा का आदेश मान कर कन्‍नान आए थे पर कहीं कुछ है जो मुझे भूल रहा है कि यह्व को परमेश्‍वर मानने वाले किसी स्थिति में फराऊन द्वारा देशबद्र किए गए थे, लेकिन सच पूछें तो मैैने न इस विषय में अधिक जानने की कोशिश की न जानता हूँ। कल आप से बात करने के बाद कुछ जानकारी जुटाने की कोशिश की तो जानकारी बढ़ने की जगह और घट गई और सन्‍देह बढ़ गया। विकीपीडिया में यह जानकारी मिली कि :
The Abraham story cannot be definitively related to any specific time, and it is widely agreed that the patriarchal age, along with the exodus and the period of the judges, is a late literary construct that does not relate to any period in actual history.[3] A common hypothesis among scholars is that it was composed in the early Persian period (late 6th century BCE) as a result of tensions between Jewish landowners who had stayed in Judah during the Babylonian captivity and traced their right to the land through their “father Abraham”, and the returning exiles who based their counter-claim on Moses and the Exodus tradition.

मैंने बीच में टोका, पुराण वृत्‍त तो हमारे भी ऐसे ही हैं । आप इनके इतिहास पर मत जाइये। बात विचारों की और दृष्टिभेद की का रहे थे अाप। नाम और काल से अधिक अन्‍तर नहीं आता। नाम के मामले में तो नाम में क्‍या रखा है से बात समझ में आ जाएगी, और काम के बारे में हमारी कथाओं से कि एक समय में ऐसा हुआ था। इनका कोई महत्‍व नहीं । महत्‍व है उसका जो हुआ था, बना और जिस रूप में वह है। आप उसकी बात करें ।”

उत्‍साह बढ़ाने से भी उत्‍साह घट सकता है, इसका तो पहले पता था ही नहीं। शास्‍त्री जी ने कहा, ”अाज तो अपने ही चिचारों के घेरे को तोड़ नहीं पा रहा हूँ। क्या इस पर कल बात करना उचित नहीं रहेगा?”
”चलिए, यही सही । परन्‍तु कल पूरी तैयारी के साथ आइएगा। हम आपको भी समझना चाहते हैं और उन मतों को भी जिनकी आप आलोचना करेंगे। एक और सुझाव दे दूँ। अपने को श्रेष्‍ठ सिद्ध करने वालों ने दुनिया का जितना अहित किया है उतना वे संक्रामक कीटाणु भी न कर सके होंगे जिनके नाम से हम डरते हैं।”