निदान -36
मो सम कौन कुटिल खल कामी
”अब तो चित्त स्थिर हो गया होगा शास्त्री जी।”
”स्थिर हो कर भी आपके सामने चित्त डांवाडोल ही रहता है, पता नहीं कौन सी नासमझी की बात निकल जाए, फिर भी अपनी बात अपने ढंग से रखना चाहूँगा। कहीं चूक हो तो सुधारते चलिएगा।
”लेकिन और कुछ कहूँ उससे पहले आपने जो भोजराज का उदाहरण दिया, उसका जो अर्थ मेरी समझ में आया वह यह कि केवल आपका सदाशयी और मानवीय होना पर्याप्त नहीं है। सामरिक तैयारी के बिना शान्ति का प्रस्ताव भी हास्यास्पद लगता है और उससे शान्ति नहीं उपद्रव को बढ़ावा मिलता है ।”
”बात आपकी ठीक है। इसे हमसे अच्छी तरह अशोक जानता था और इसलिए सद्धर्म में दीक्षित होने के बाद भी अपने सैन्यपबल में उसने कमी नहीं की थी। परन्तु आप से हम गीता के विषय में आप जो गहरी बात कहना चाहते थे उसे सुनना चाहेंगे। इधर-उधर भटकने से बात अधूरी रह जाएगी।”
”मैं यह कहना चाहता था, हो सकता है मेरा सोचना गलत भी हो, पर मुझे ऐसा लगता है कि गीता में ईश्वर जैसा कुछ है ही नहीं न श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उन्होंने तो केवल सृष्टि के समस्त तत्वों की नश्वरता की बात की थी। हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है, पर एक वदन्ती की याद आ गई। कहते हैं विवेकानन्द को उनके अंग्रेजी के अध्यापक ने जो भी संभवत: अंग्रेज था, अंग्रेजी के रोमैंटिक कवियो के सन्दर्भ में रामकृष्ण की सिद्धि के विषय में बताया था और वह अपने किसी मित्र के साथ उन्हें देखने गए थे। उनको वहाँ कुछ भी प्रभावशाली नहीं दीखा। परमहंस से बातचीत भी। उनका यह कथन भी कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है। इसी बीच किसी काम से रामकृष्ण कमरे से बाहर चले गए। उनकी अनुपस्थिति में वह अपने मित्र से वहॉं पानी भरे लोटे पर बैठी मक्खी को देख कर कहने लगे पात्र ब्रह्म है, उसमें ब्रह्म भरा हुआ है और ब्रह्म के ऊपर ब्रह्म बैठा हुआ है। ठीक इसी समय रामकृष्ण पधारे और उन्होंने, सुनते हैं, कहा, ”हॉं ब्रह्म पर ही ब्रह्म बैठा हुआ है और इसके साथ ही उन्होंने विवेकानन्द के सिर का स्पर्श किया तो वह ऐसे ट्रांस में चले गए कि अखिल ब्रह्मांड उनके सामने इस आभा के साथ उपस्िथत कि उन्हें वह असह्य लगा। वह उससे बाहर आने को व्यग्र। जब मन स्थिर हुआ तब तक वह रामकृष्ण के भक्त बन चुके थे। मैं कहता हूँ, कुछ ऐसा ही याद में बचा रह गया है, और मैं सोचता हूँ योगिराज कृष्ण ने कुछ ऐसा ही अर्जुन के साथ किया होगा जिसमें वह समस्त सृष्टि प्रसार का अवलोकन करते हैं, और उसमें नष्ट या नि:शेष होती सत्ताओं को देखते है।”
मैंने कहा, ”गीता एक महाकाव्य का हिस्सा है या एक स्वतन्त्र कृति जिसे महाभारत में समेट लिया गया, यह मैं नहीं जानता, परन्तु् यह एक गंभीर समस्या पर केन्द्रित रचना है । न तो महाभारत इतिहास है, न भगवद्गीता, परन्तु दोनों में इतिहास के अंश हैं, या दोनों से इतिहास को समझने में मदद मिलती है। इसलिए आप विराट रूप के दर्शन और इस प्रश्नोत्तर को यथातथ्य न लें। यह एक रूपक है और साहित्यिक और दार्शनिक कसौटी पर विश्व की असाधारण कृति। इतने सशक्त रूप में प्रस्तुत कि प्रकट अन्तरर्विरोध के बाद भी हिन्दुओं में सुशिक्षित लोगों में भी पचास प्रतिशत लोग इसे यथातथ्प ग्रहण कर लेते हैं। आप इसके दार्शनिक पक्ष पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखें तो अधिक अच्छा हो। ”
शास्त्री जी को मेरा हस्तक्षेप पसन्द नहीं आया, परन्तु उन्होंने अपना आदर भाव बनाए रखा, ”यदि आप ऐसा सोचते हैं तो कुछ तो होगा ही, पर मेरी समझ में नहीं आया कि गीता में अन्त’र्विरोध क्या है ?”
”समय का अपव्यय होगा, इसलिए… खैर, आपने कह ही दिया तो कहूँ यह एक कल्पित कृति है जिसमें युद्धभूमि को हिंसा और अहिंसा के बीच चुनाव को समस्या बनाया गया है। यह उस युग की कृति है जब बौद्ध मत को मिले राजाश्रय और लोक के बीच आदर से ब्राह्मण क्षुब्ध थे और किसी भी कीमत पर बौद्ध मत को मिटाने को तैयार । उन्होंने सभी तरह के औजारों और उपायों का, यहॉं तक कि जिसे अंग्रेजी में डैमेज कंट्रोल कहते है, उसका भी सहारा लिया। विषयान्तर से बचने के लिए इसके विस्तार में न जाऊँगा, पर यह समझ लें कि एक ही परिवार के कुछ लोग बौद्ध बन गए हैं, जैन श्रमण बन गए हैं, इन दोनों के अपने भी टकराव हैं, परन्तु दोनों की लोकप्रियता का सीधा प्रभाव ब्राह्मण की जीविका पर पड़ रहा है । उसकी दशा शूद्रों से भी बुरी हो चली है । शूद्र तो अपने कौशल के बल पर अपने गुजारे का कमा लेता है, पर धर्मादा खाते का सामाजिक जो देय था उसके दो नये हिस्सेेदार आ गए हैं। पहले यज्ञ आदि के माध्यम से राज्य का धर्मदेय भी ब्राह्मण को मिलता था, उससे वह वंचित हो गया है। वह बौद्धों को मिलने लगा है। एक दूसरा स्रोत वैश्य या व्याकपारी समाज का था जिसके मुहूरत आदि निकालते और कभी कभार यात्रा में विघ्न निवारण के लिए सम्मिलित हो कर कुछ पा लेते थे । वह जैनियों की ओर चला गया है । ज्ञान साधना के अतिरिक्त जिसका कोई आजीव नहीं, उसे ध्यान और अध्यात्म-चिन्तन ने गौण कर दिया है।
”यह पहला अवसर है जब वैदिक चरित्रों को प्रमाण बना कर आपद्धर्म का विधान किया जाता है। यह आपद्धर्म जिसमें प्राणरक्षा के लिए कुछ समय के लिए कुछ भी किया जा सकता है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । भगवद्गीता उस विकट परिस्थिति में एक बहुत साहसिक प्रस्तााव के साथ, एक आर्थिक संकट को उसे दार्शनिक तेवर देते हुए रची जाती है जिसमें रचनाकार का निहित सन्देश यह है कि यदि धर्मविरुद्ध आचरण करने वाले तुम्हारे अपने लोग ही हों तो भी क्या उनके प्रति दया दिखाते हुए तुम भाग खड़े होगे? उन्हें जीतने दोगे?
”यह उस काल की रचना है जब एकलब्य का चरित्र गढ़ा जाता है, कि शूद्राें को शस्त्र का अभ्यास और उसमें दक्षता हासिल न करने दी जाएगी। यदि प्रयत्न किया तो छल बल से उसे विफल करना होगा।
”यह उस दौर की रचना है जिस दौर में रामायण की लोकप्रिय कथा मे शंबूक की कथा रची जाती है, कि श्ाूद्र साधना का अधिकारी नहीं, अौर बौद्धमत ने भले उसे यह अधिकार दिया हो, उसके ऐसा करने से अनर्थ होगा इसलिए उसे मरना होगा और मरना भी उस राम के हाथों होगा जिके लोकसंवेदी आचरण को देखते रामवत आचरितत्व का विश्वास पैदा किया गया था।
”यह वह समय है जब बौद्ध मत में भिक्षुणियों के प्रवेश्ा से खिन्न हो कर सीता के निर्वासन का उत्तरकांड रचा गया था। सीता की पवित्रता का एक ही प्रमाण था कि रावण उन्हें अपने अन्त:पुर में दाखिल कराने के लिए दंड और भय के खतरनाक
तरीके अपनाने के बाद भी विफल रहा था। किसी परीक्षा का प्रश्न ही न था। पर…”
शास्त्री जी का चेहरा लाल था, परन्तु वाणी पर इतना अधिकार कि लगे ही न कि वह किसी बात से आहत हैं।
मैंने कहा कि मैं आपके साथ हूँ पर इससे बाहर आऍं। कोसंबी को मैं अन्धों के बीच काना भी नहीं कह सकता। एक तो हमारे नैतिक सरोकारों के कारण अंगविकारों या समर्थताओं को किसी बहाने कुरेदना अपराध है, दूसरे इसलिए कि कोसंबी को महान कोसंबी बनाने वालों को स्वयं ऐसा प्रमाणपत्र देने के लिए अपेक्षित योग्याता प्राप्त न थी। वह अपने क्षेत्र में निष्णात थे और समझदारी में इतने कम कि उन्होेने अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र की ऊर्जा को अपना उपयोग करने वालों को सौंप दिया कि वे उसका प्रतिशत निर्धारित करें कि कितनी ऊर्जा उनके काम आएगी और कितनी उनकी दक्षता के क्षेत्र में। वह अपने अहंकार के कारण आजीवन सहके हुए बच्चे , पैंपर्ड चाइल्ड, की भूमिका से बाहर निकल ही नहीं सके। उनके विचार जहां सही हैं वहां भी सपाट है और जहां ग लत है वे उनका उपयोग करने वालों की नजर में विराट है, परन्तु हम उनको अलग रख कर, किसी अन्य को भी अलग रख कर इन प्रश्नों का उत्तर तलाशें और सोचें कि किसी कृति का एक सामाजिक यथार्थ होता है, एक कलात्मक आदर्श होता है, एक ऐतिहासिक औचित्य होता है और महान कृतियॉं द्वन्द्वों के बीच ही प्रतिफलित होती है जिनके कारण उनसे इतने आयाम जुड़ जाते हैं कि प्रत्येक बार वहीं कृति उसी व्यक्ति द्वारा पढ़ने पर एक नया अर्थ देती है, अलग अलग कालों में पढ़े जाने पर अलग अलग अर्थ देती है और सच कहें तो जो संपुंजन उसे असमापी या इनइक्जास्टिबल बना देता है, गीता भी यही है। वह कृति न रह कर स्वयं प्र-कृति बन जाती है ।
”मैं सोचता हूॅे जब हम अपनी ही कृतियों की गहराई और जटिलता नहीं माप पाते हैं तो हमें दूसरी ऐसी कृतियों पर बात नहीं करनी चाहिए जिनके विषय में हम उसी तन्मयता और सहृदयता से विचार नहीं कर पाते।”
”आपका तात्पंर्य है, हमें नींद टूटते ही, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ का पाठ करना चाहिए और दिन भर इस नैतिक प्रश्न का समाधान ढूँढ़ना चाहिए कि इस कुटिल खल कामी को मिटा कर क्या दुनिया को अधिक सुन्दर नहीं बनाया जा सकता।”
शास्त्री जी का तंज सही था, पर वह समय का ध्यान न रख पाए थे। कभी ऐसा भी समय था, पर आज नहीं है। आज हम एक सूचना संपन्न समाज के बीच कुछ कहते हैं और उसी से यह भी पता चल जाता है कि हमने जो कुछ कहा वह ठीक था या नहीं और इसके साथ ही आप पश्चिमी विचार प्रबन्धकों के ऐसे ग्राहब बनते चले जा सकते हैं जो जान सकते है पर सोच नहीं सकते। मुझे इससे ही डर लगता है। अपने बीच अपने को जानकार मानने वाले अनभिज्ञ दासों से। धन सुविधा और प्रतिष्ठा के लोभ में वे ऑंखें मूद लेते हैं पर राह दिखाने का कार्यभार सँभाले रहते हैं।