निदान – 37
विराट का दर्शन
”डाक्साब, आपका उत्तर तो नहीं दे पाता, परन्तु आपकी कुछ बातें गले नहीं उतरती हैं।”
”गले में उतारिएगा भी नहीं, सीधे पेट में चली जाएँगी। जिसे सिर में पहॅुचना चाहिए उसके लिए मुंह नहीं, ऑख-कान खोल कर रखिए। लेकिन आप ठहरे ब्राह्मण, उस परम पुरुष के मुँह, जो खा सकता है सोच नहीं सकता। आप रस तक की चर्वणा करते हैं, उससे भावविभोर नहीं होते। और ज्ञान तक को चबा गए पर पचाया नहीं। कारण, परम पुरष नं अपना दिमाग तो उसने चारों वर्णों में किसी को दिया ही नहीं।”
शास्त्री जी की जगह मेरा दोस्त बोल उठा, ”वह उसने तुम्हारे लिए छोड़ रखा था, जिसके पास इतना है कि वह उसे सँभाल नहीं पाता । हिस्टीरिया के रोगी की तरह।”
मैं हँसा, पर शास्त्री जी मुस्करा कर रह गए। उन्हें खासी राहत अनुभव हुई होगी। अब मैं कुछ गंभीर हो गया, ”आपका कहना सही है शास्त्री जी। मुझे स्वयं भी अपनी अधिकांश बातें सही नहीं लगतीं। वे अनेक संभावनाओं में एक संभावना होती हैं और जिस समय कह रहा होता हूँ उस समय वह संभावना सच के अधिक निकट लगती है। इसलिए मेरा सच या गलत होना मानी नहीं रखता, सचाई को जानने की कोशिश मानी रखती है। वह जारी रहनी चाहिए । मेरी इस पुस्तकमाला के एक खंड का उपशीर्षक ही है सही कुछ नहीं है सिवाय जिज्ञासा के।
”,गीता के महाकाल की अवधारणा से सात आठ हजार या हो सकता है उससे पहले से ही दार्शनिक चिन्तन आरंभ हो गया था। जब मैं कह रहा था, ‘सभ्यता का उत्स भारतीय भूभाग में हुआ’, तो उस सभ्यता में केवल नगर निर्माण और कारोबार और उसे आंकने टांकने के तरीके ही नहीं थे । वे अमूर्त प्रश्न भी थे जिसका भौतिकता से सीधा संबन्ध नहीं है । हम कौन हैं? क्यों है? वह क्या है जिसके निकल जाने पर हम मर जाते और धीरे धीरे सड़ने गलने लगते हैं? हमारे शरीर से अलग हो कर वह कहॉं किस अवस्था में रहता है ? यह हवा विविध गतियों से कैसे चलती है, इसे कौन चलाता है, संसार कैसे अस्तित्व में आया ? ब्रह्मांड का प्रसार क्या है ? इसके नक्षत्र, ग्रह पिंड क्या हैं ? दिन में ये कहा चले जाते हैं ? किसी भी कृति के लिए कुछ उपादानों की आवश्यकता होती है, उसका एक कर्ता होता है, उस कर्ता में भी पहले कुछ करने की इच्छा पैदा होती है तब वह निर्माण करता है, इसके लिए उसमें चेतना होनी चाहिए। वह कौन सा उपादान था जिससे यह सृष्टि रची गई, रचने वाला कौन था ? जब सृष्टि थी ही नहीं तो वह किस रूप में, कहां स्थित था? जिन उपादानों से उसने सृजन किया वे कहाँ थे ? क्या उसके भीतर ही? वही चेतना और वही उपादान ? इस तरह के प्रश्नों का अन्त नहीं जिनका उत्तर कोई एक समुदाय नहीं अनके समुदाय अपने अपने ढंग से तलाश कर रहे थे और परस्पर निकट आने के साथ उन्होंने इन विचारों का साझा किया।
”यह देश एक साथ कई स्तरों पर जीवित रहा है। संभव है आहार संग्रह के दिनों में भी क्योकि जलवायु के अनुसार भी आजीव की भिन्नता थी, और उसके बाद कुछ जनों के कृषि की दिशा में बढ़ने और क्रमश: एक महान सभ्यता के निर्माण के क्रम में प्रत्येक चरण पर तो निश्चय रूप से जिसमें कुछ समुदाय उच्च संस्कृति का विविध रूपों और विशेषज्ञताओं, आर्थिक स्थितियों के साथ जुड़ते और ठहराव के शिकार रहे और शेष आगे बढ़ने से इन्कार करते रहे। इनमें से अधिकांश अपने अपने ढंग से इन प्रश्नों से टकराते रहे और अपना समाधान तलाशते रहे और इनके वृहद् सांस्कृतिक अन्तर्क्रिया में सहभागी होने के साथ, उनके पुराने विश्वास भी सकल सांस्कृतिक महाप्रवाह के बीच प्रवाहित और सकल दाय का हिस्सा बनते चले गये। अत: एक ही समस्या के अलग अलग समाधान हैं और इनको जब हास्यास्पद समझा गया तब भी इनको बहिष्कृत नहीं किया गया, इसलिए हम कह सकते हैं कि नयी वैज्ञानिक खोजों या समाधानों के बाद भी रीति, विश्वास या संस्कृति के किसी न किसी विधान में इनके अंश बने रह गए। धरती यदि है तो किसी आधार पर टिकी होगी इसके उत्तर देखें:
1- महाकच्छप की पीठ पर ।
2- महासर्प के फनों पर ।
3- गुरुत्वाकर्षण तो बोध में न था पर इसके निकट की एक उद्भावना कि विष्णु ने रश्मियों के सहारे धरती और आकाश को टिका रखा है – व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ।। ऋ. 7.99.3।”
”डाक्साब, हम लोग तो …”
”मैं जानता हूॅें आपको विषयान्तर लग रहा होगा। परन्तु मुझे कोई बात तरीके से कहने आती नहीं। इसलिए यहाँ देखिए विचार धरती के टिकने पर हो रहा है और भूचालों को उन शेषनाग या कमठ के हिलने का परिणाम माना जा रहा है, इसे संतुलित रखने के लिए महादिग्गजों या दिग्पालों की कल्पना की जा रही है और धरती की एक कल्पना चपटे रूप में हो रही है और चिन्तन गे बढ़ता है तो इसका आकार गोल मान लिया जाता है, इसके विविध गतियों में घूमने की कल्पना की जाती है, अपनी कक्षा पर और अपनी धुरी पर घूमने और आकाश के भी घूमने की भी कल्पना की जा रही है, – विवर्तेते रोदशी चक्रियेव । विवर्तेते का अर्थ आप तो जानते होंगे, परन्तु मैं अपने इस नालायक दोस्त को समझा दूँ कि इसका अर्थ है विविध गतियों से घूमना। एक जिससे दिन रात का चक्र चलता है, दूसरा जिससे मास चक्र चलता है, तीसरा जिससे ऋतु चक्र और संवत्सर चक्र चलता है। अौर ध्यान रहे एक स्थल पर ऋग्वेद में ही कहा है कि जिस समय हमारे यहॉं अँधेरा होता है, उस समय सूर्य दूसरे भूभाग को प्रकाशित कर रहा होता है, परन्तु इस समय वह स्थल याद नहीं आ रहा है। तो पृथ्वी गोल है, यह स्वयं भी घूमती है और द्युलोक भी और इनकी गति एक ही नहीं होती, इसमें भिन्नता होती है, यह बोध भारत में पांच हजार साल पहले था, जब कि यूरोप में अरबों के माध्यम से आर्यभट्ट से परिचय के बाद यह बोध पैदा हुआ और भारत पहुँचने के मार्ग में अरबों के व्यवधान के कारण कोलंबस ने पहली बार साहस किया सोचा यदि धरती गोल है और सीधे पूर्व की ओर चल कर भारत पहुँचने में बाधा है तो पश्चिम की दिशा में चल कर भी तो भारत पहुँचा जा सकता है और चल पड़ा अपना जहाज और जहाज पर सवार नाविकों की जान और रसद पानी साथ ले कर। भाग्य ने साथ दिया कि आत्महत्या से पहले उसे स्थल मिल गया। आगे की कहानी आप जानते हैं।”
मेरा मित्र मेरे वाक्य की समाप्ति की प्रतीक्षा कर रहा था। तुरत आ धमका, ”तुम गधे हो, तुम भारत देश महान की चिन्ता में यह भूल जाते हो कि धरती के गोल होने और घूमने का ज्ञान यूनानियों को भी था। मिस्रियों को भी रहा होगा।”
मैं उससे सहमत हो गया, ”यूनानियों में था, इससे सहमत। मिस्रियों में भी रहा होगा इसका न विरोध कर सकता हूँ न समर्थन । परन्तु तुम्हारे हस्तक्षेप के पीछे क्या भारत देश को गर्हित सिद्ध करने की चिन्ता नहीं है । उनकी समझदारी यह कि उन्होंने अपना इतिहास की नष्ट कर डाला, अपना पुरातन ज्ञान ही नष्ट कर डाला और तुम जैसे उल्लू हैं जो कहते हैं वे सभ्यता के मामले में हमसे आगे थे और हमें इतिहास को कूट पीट कर यही सिद्ध करना है। गाेरों ने अपना इतिहास अरबों के माध्यम से जाना और बहुत बाद में यह समझ पाए कि उस काल का कहीं कुछ अन्यत्र भी बचा हो तो उसे जुटाया जाना चाहिए। जो काम वेदव्यास नाम से प्रतीकबद्ध चिन्तकों ने तीन साढ़े तीन हजार साल पहले किया था, उसे संयोगवश उन्होंने धर्मयुद्धों से पुंजीभूत यूरापीय या ईसाई ऊर्जा से किया और फिर आगे ही आगे बढ़ते गए। परन्तु यह देखो कि इस नवउन्मोचित यूरोपीय ऊर्जा की दिशा क्या थी? लक्ष्य क्या था ? दिशा थी पूरब, और लक्ष्य था भारत। अौर ध्यान दो वे अपना माल बेचने नहीं आ रहे थे। यहॉं का माल खरीदने आ रहे थे। यहॉं के बारे में प्रचलित कहानियों से आकृष्ट हो कर कितने सारे अन्वेषियों ने कितने खतरे उठा कर यहॉं की यात्रा की थी, यह देखने के लिए कि वह विचित्र और वैभवपूर्ण देश कैसा है और तुम्हारे टुकड़खोर विद्वान यह सिद्ध करते रहे कि इससे गर्हित कोई देश हो नहीं सकता। देशों में देश, ईरान जहॉं से भारत को सभ्यता मिली। वे अपने को मार्क्सवादी कहते हैं और यह तक भूल जाते हैं कि सम्यता का आर्थिक आधार हुआ करता है और जिस तरह की सनक कल तक ब्रिटेन पहुँचने की हुआ करती थी, आज अमेरिका पहुँचने की है वैसी ही सनक, नहीं, उस समय के खतरों को देखो तो उससे भी बड़ी सनक भारत पहुँचने की हुआ करती थी।”
मित्र फिर सामने हाजिर, ”यार मुझसे गलती हो गई। तुम्हें गधा कह दिया। नहीं कहना चाहिए था और तुम तबसे मुझे लगातार जो गालियाँ दे रहे हो उसका भी बुरा नहीं मानता। यह कहाे, तुम्हे गधा न कह कर बैल कहता तब तो गोजाति की पवित्रता का सम्मान करने हुए तुम बुरा नहीं मानते न ?”
”तुम्हारे पास अपनी अक्ल होती तो बुरा मानता, परन्तु तुम्हारे पास विश्वास है जो अक्ल को धक्का दे कर बाहर कर देता है। तुम स्वयं बताओ कि तुमने कितने साल पहले अपनी पार्टी लाइन को भूल कर अपने दिमाग से काम लिया था? जिसके पास जो है ही नहीं उसका बुरा क्या मानना । इसी पर तो हमारी दोस्ती लाख तकरारों के बाद भी कायम है? मैं तुम्हारे किसी कहे का बुरा नहीं मानता पर पीड़ा तो तुम्हारी बौद्धिक अपंगता पर होती ही है, जिस पर तुम गर्व करते हो, जैसे भीख मॉगने वाले अपंग अपनी अपंगता पर गर्व करते है और अपने को अधिक अपंग यहां तक कि कुष्टगलित दिखा कर अपंगता की बढ़त को गौरव का विषय बना देते हैं। मुझे तुम पर क्रोध आता तो साथ निभता ? मित्रता के नाते तुम्हारे उद्धार की चिन्ता है और यह ग्लानि भी कि मैं इसमें अभी तक सफल न हो पाया, क्योंकि तुम अपनी सुनाते हो किसी की सुनते नहीं।”
शास्त्री जी व्यग्र हो रहे थे, ”डाक्साब, आप दोनों के बीच जो अनुराग और विराग है उसका मैं साक्षी हाे कर भी उस पर कुछ कह नहीं सकता। परन्तु मेरा विचार है कि आप बहुत प्राचीन अवस्था से ले कर आज तक विचार की असंख्य श्रेणियो और रूपों के बारे में और नये ज्ञान के बाद भी, पुराने विश्वासों के विषय में कुछ कह रहे थे। वहॉं से विषयान्तर हो गया। ”
मुझे लगा, गलती तो हो गई, हार मानना भी नही चाहता था, इसलिए लफ्फाजी से काम लिया, ”विषयान्तर भी विषय के अन्दर ही होता है। अन्तर और अन्दर में अधिक फर्क नहीं हैं। पर मैं उस समय यह कह रहा था कि उन्नत विचार समस्त विचार संपदा का अंग या एक ही समय में विविध स्तरों पर मान्य हो कर चलते रहते हैं और समय समय पर सबका साहित्यिक उपयोग भी हो जाता है। मैं अपनी ओर से इसे सुलझे रूप में रखना चाहता हूँ पर सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के बीच की क्रिया प्रतिक्रिया इतनी जटिल है कि संभव है आपको मेरे कहने में ही दोष दिखाई दे रहा हो । खैर इसी चिन्तन में विष्णु जाे समस्त विश्व प्रसार को या ब्रह्मांड को सँभाले हुए हैं या उसी के स्वरूप हैं, उपस्थित हो जाते हैं।
इसीलिए मैं आपके उस कथन से सहमत हो गया था कि हमारे यहॉं परमात्मा या सर्वोच्च सत्ता की कल्पना किसी राजा के रूप में नहीं की गई है, सच्चे बादशाह के रूप में भी नहीं, निर्गुण ब्रह्म के रूप में भी नहीं, अपितु विश्वप्रपंच के रहस्यों को समझने के क्रम में सृष्टि का संचालन करने वाली, हमारी अपनी रक्षा और पालन करने वाली शक्तियों ने देववाद का रूप लिया और इसके एक व्यवस्था में ढलने या जुड़ने के कारण परम शक्ति या परमात्मा और ब्रह्म आदि की कल्पनाएं और उनके गुणों या गुणातीत होने की अवधारणाऍं आईं और इनके साथ सख्य या क्रीड़ा भाव विकसित हुआ, उनके लक्षणों को मूर्त करने का या किसी छवि में ढालने का प्रयत्न किया गया। क्रीड़ा भाव उन मूर्तनों में भी होता था।”
”बात जिस विषय पर करनी थी वह तो हो नहीं पाई, डाक्साब ।”
”कल प्रयत्न करेंगे । प्रयत्न ही हमारे वश में है, परिणाम तो नहीं। इसे आपसे अच्छी तरह कौन जान सकता है।”