Post – 2016-08-29

निदान – 34
गीता और कुर’आन

”शास्‍त्री जी, आपको पता है, अभी हाल ही में सोवियत संघ में गीता को इस आधार पर प्रतिबन्धित कर दिया गया था कि यह अशान्ति का संदेश देती है।” मैंने शास्त्री जी को आते ही छेड़ा ।

”डाक्‍साब, आश्‍चर्य मुझे इस बात पर हुआ था कि यह काम सोवियत संघ ने क्‍यों किया फिर भी यह जान कर मनोबल बल्लियों ऊपर उछल गया कि आखिर सोवियत संघ ने भी गांधीवाद की महिमा स्‍वीकार कर ही ली। वह तो लड़ने के अतिरिक्‍त कुछ जानता ही न था।”

मित्र को मौका मिला, मैदान में उतर आया, ”यह जान कर मुझे भी प्रसन्‍नता हो रही है कि शास्‍त्री जी ने यह मान लिया कि गीता युद्ध भड़काने वाला एक ग्रन्‍थ है और एक ओर तो हम शान्ति की बात करते हैं और दूसरी ओर उसे ही हमने धर्मग्रन्‍थ जैसा सम्‍मान दे रखा है। सोवियत संघ वाले सचमुच नासमझ है जिन्‍होंने भारत सरकार की दलील मान कर इसे प्रतिबन्‍ध मुक्‍त कर दिया।”

”मैं यह कहना चाहता था कि युद्ध तो पहले से होते रहे हैं पर इसे दर्शन का रूप गीता ने दिया और इस दर्शन का सबसे गहरा प्रभाव मुहम्‍मद साहब पर पड़ा जिन्‍होंने मार्क्‍स को तो नहीं पर लेनिन को जरूर प्रभावित किया होगा, वर्ना इतना सारा खून बहाकर उन्‍होंने इतना मामूली असर न डाला होता कि उसके बाद भी जत्‍थे के जत्‍थे रूसी साइबेरिया भेजे जाते रहे, अपने ही देश में जेल के बन्दियों की तरह रखे जाते रहे और बाहर निकलने के लिए तड़पते रहे। गीता के उन्‍हीं वाक्‍यों को इस्‍लाम ने अपना सिद्धान्‍त बना लिया उसे सुन कर शास्‍त्री जी का धीरज जवाब दे जाता है और तुम्‍हारी समझ में नहीं आता कि लेनिन मार्क्‍स से अधिक इस्‍लाम से प्रभावित थे और मानते थे कि महज खून बहाने से ही समाजवाद आ जाता है और खून का खाद-पानी न मिले तो क्रान्ति का बीज अंकुरित ही नहीं हो पाता । पर्याप्‍त खून के अभाव में देखो बेचारे माआवादियों का क्‍या होल हो रहा है।”

बिना किसी पूर्वसूचना के शास्‍त्री जी और मेरे मित्र ने एक साथ ठहाका लगाया तो मैं हैरान रह गया कि दोनों में इतनी निकटता कब पैदा हो गई। मैंने दोनों को एक साथ झिड़कते हुए कहा, ”इतनी गंभीर और युगान्‍तरकारी सूझ का मजाक बना रहे हैं आप लोग । क्‍या अाप को यह भी पता नहीं कि गीता के प्रभाव को मुहम्‍मद साहब भी स्‍वीकार करते थे ।”

शास्‍त्री जी से पहले मेरे मित्र ने ही मुझे डॉंट दिया, ”क्‍या बकवास करते हो यार । कहॉं पढ़ लिया कि मुहम्‍मद साहब…”

मैंने यथाबुद्धि समझाने का प्रयास किया, ”देखो, मुहम्‍मद साहब दो भाषाएं जानते थे । एक अरबी, दूसरी इल्‍हामी जबान जिसमें जबान भौर भाषा की जरूरत नहीं पडती परन्‍तु खयाल उससे अधिक रौशन हाे जाते हैं जितना अच्‍छी से अच्‍छी भाषा के माध्‍यम से होता है। वह यह भी दावा करते थे या उनके बारे में यह दावा किया जाता है कि वह निरक्षर थे। निरक्षर इसलिए कि यदि साक्षर होते तो उनके विचार किसी ग्रन्‍थ से प्रभावित मान लिए जाते और वह किसी इंसान के विचार होते जिसकी सीरत में है गल्तियां करना इसलिए उनके विचारों में कुछ गलतियां भी निकाली जा सकती थीं। वह नबी जो ठहरे । ” मैंने बीच में अपनी बात रोक दी, ”अरे यार नबी और नभी या नभ से उतरा हुआ में कोई निकटता तुमको दिखाई देती है।”

”नहीं होगी तो तुम पैदा कर दोगे, वह दोहा है न ‘का नहिं मूरख कर सके, का न करै भगवान ।’ तो तुम्‍हारी प्रतिभा से कुछ भी संभव है, सिर के बल चलना तक।” वह बहुत खुश था अपनी पैरोडी पर।

”खैर, तो मैं यह कह रहा था, कि एक दिन हाल ही में किसी मुल्‍ला मौलवी के मुंह से ही सुना कि हिन्‍दुस्‍तान के बारे में उनकी राय बहुत अच्‍छी थी और यूरोप के बारे में उतनी ही खराब जितनी मिल की पूरब के बारे में थी। (बाद वाली बात उन्‍होंने नहीं की थी मैंने अपनी ओर से उसको मूर्त बनाने के लिए कह दी),या) और इसके समर्थन में उन्‍होंने दो बातें कही, हिन्‍दुस्‍तान को अरब के लोग स्‍वर्गोपम मानते थे, हिन्‍दुस्‍तान जन्‍नतनिशॉं’ और शायद कभी मुहम्‍मद साहब ने कहा था, ‘हिन्‍दुस्‍तान से मीठी हवाएँ आती हैं। तो हवाओं की यह मिठास हो सकता है यहां से जाने वाले विचारों की मिठास हो और जब हम पाते हैं कि इस्‍लाम के कुछ विश्‍वास या विचार ठीक वे ही हैं, शब्‍दश: वही जो गीता के है और युद्ध का उनका दर्शन भी हो सकता है, पूरा नहीं तो आधा गीता से लिया गया हो, तो हैरानी की बात तो नहीं लगती ।”

मैंने पाया दोनों मेरी बात को ध्‍यान से सुन रहे थे । जो कम जानता है उसका विश्‍वास श्रोताओं के ध्‍यान देने से ही पैदा होता है इसलिए मेरा विश्‍वास भी काफी बढ़ गया, गो ब्‍लडप्रेसर बढ़ने पर भी, सुना है, ऐसा ही हो जाता है। मैंने कहा, मैं न यह कह रहा हूँ कि मुहम्‍मद साहब ने गीता पढ़ी थी, न यह कि उन्‍हें किसी ने गीता पढ़ कर सुनाया था। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि जिस सांस्‍कृतिक माहौल में मुहम्‍मद साहब का जन्‍म हुआ उसमें भारतीय प्रभाव भी कम नहीं था। मैं उस पूरे तन्‍त्र को जानता नहीं जिसमें वह वर्तमान से असन्‍तोष अनुभव करते हुए अपने पूरे समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे और लाया भी। जो लोग अधिक जानते हैं उनसे मदद की पुकार लगाते हुए भी यह कहना चाहूँगा कि अब तक की मेरी जानकारी में यह है कि जिस समाज में वह पैदा हुए थे वह मातृप्रधान था, उसे उन्‍होंने पितृप्रधान बना दिया और इस हद तक कि महिलाएं हिजाब में कैद हो गईं। कि कर्बला के युद्ध में मरने वालों में कुछ ब्राह्मण भी थे, मुझसे यह न पूछना कि इसका आधार क्‍या है, मैंने सुना बस है, और ईस्‍वी सन की अारंभिक शताब्दियों में भारतीय व्‍याप‍ारियों की गतिविधि का प्रमाण डिरिंजर ने अपनी पोथी दि अल्‍फाबेट में दे रखी है। पुरातात्विक प्रमाण, पुराभिलेखीय प्रमाण, और उनके ही पौराणिक प्रमाण।

”मैं यह नहीं कहता कि गीता से कुरान निकला है, यह कहूँ तो ऐसे मुसलमानों की कमी नहीं जाे आज तक मेरे दोस्‍त है और कल यहजानने के बाद मेरा सर कलम करने काे तैयार हो जाऍंगे। कुर’आन कुर’आन है, और इसकी तुलना किसी दूसरे ग्रन्‍थ से नहीं की जा सकती। अल्‍लाह अल्‍लाह है और उसकी तुलना, वैसा ही दावा करने वाले से नहीं की जा सकती, भले शब्‍द का अर्थ वही हो। अल्‍लाह, आला-सर्वोपरि, अल पूर्वसर्ग ठहरा, इलाह उसका नाम हुआ और इसलिए जब हम कहते हैं अल इलाह या अल किताब तो अल वह घटक है जिसका प्रसार आगे पूरे यूरोप मे हुआ, ला, ले, ए, ऐन दी के रूप में, दि बुक, अर्थात् किताब बस एक।

मैं यह भी नहीं कहूँगा कि सं. के अलं या पर्याप्‍त, सर्वातिशायी का अल्लाह के अल से कोई संबन्‍ध हो सकता है। मैं केवल यह कहना चाहता हूें कि इन पहलुओं की गहरी पड़ताल होनी चाहिए थी कि कैसे इतनी संकल्‍पनाऍं भारतीय भाषा या विचार दर्शन के इतने करीब पाई जाती हैं। मैं तो तुम जानते हो, जो सूझ गई सो बोल गया, संकट उसका है जिसने मुझे प्रमाण समझ कर इस पर विश्‍वास कर लिया । इसीलिए मैं बार बार याद दिलाता हूँ, मेरे कहे की छानबीन करने के बाद केवल तक तक मानो जब तक इनका खंडन नहीं हो जाता ।”

शास्‍त्री जी को सहन नहीं हुआ, ”मान तो रहे हैं डाक्‍साब, पर यह भी लगता है कि आप की तर्कशृंखला उसी दिशा में जा रही है जिसमें राजा ने बच्‍चा किसका है तय करने के लिए कहा था, बच्‍चे को दो टुकड़ों में बॉंट दाे और दाेनों को आधा आधा दे दो। पर उसमें एक सूझ थी, दूध का दूध पानी का पानी हो गया था। पर यहाँ आप जो तरीका अपना रहे हैं उसमें संभावित निर्णय सचमुच दूध बराबर पानी का दिखाई देता है।

मैं कुछ साबित कर सकूँ उससे पहले यह देखें कि हमारे पास ऐसा कोई सांस्‍कृतिक विस्‍फोटक है कि नहीं जो हमारे ताप को उस सीमा तक पहुंचा देता है जहां हम अक्‍ल से काम लेना बन्‍द कर देते हैं।पूरा समाज अतिसंवेद्यता की अवस्‍था में रहता है। कुछ बातों का खंडन करना चाहें तो मैं प्रतीक्षा में रहूँगा:

1. गीता का समय कुरान या मुहम्‍मद साहब के जन्‍म से लगभग एक हजार साल पहले, या कम से कम छह सौ साल पुराना है, इसलिए यदि दोनों में किन्‍हीं समानताओं को पाया जाय तो यह स्‍वीकार करना होगा कि कालदेव का फैसला क्‍या है, पहले कौन और बाद में कौन। पूर्ववर्ती उत्‍पादक और परवर्ती ग्राहक।

2. अब दोनों के बीच की समानताओं को धर्मसीमाओं से अलग बैठ कर एक तीसरे व्‍यक्ति की ऊँचाई से देखिए जिसमें सामने से देखे का बहत कुछ अदृश्‍य रहता आया था।

3. अब इसी सन्‍दर्भ में निम्‍न अंशों का तुलनात्‍मक पाठ करें: ममेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । यह अल्‍लाहु अकबर के कितने निकट पड़ता है, मैं ही सबसे बड़ा हूँ और मेरी शरण में आओ ।

4. सर्व धर्मान् परित्यज्‍य मामेके शरणं व्रज अहं त्वां सर्वपापेभ्य: भोक्षयिष्यामि मा शुच। को उस विश्‍वास़ के साथ पढ़ें जिसमें राहे खुदा या धर्म की प्रतिष्‍ठा के लिए कोई जघ्‍ान्‍य काम हो जाए तो भी उसे खुदा माफ कर देता है।

अौर अन्‍तत:

5. हतो वा प्राप्‍स्‍यति स्‍वर्ग्‍यं जित्‍वा वा भोक्षसे महीम । के उसे सूत्र को याद करे जिसमें शहादत और मालेगनीमत का संदेश छिपा है और जो युद्ध और लूटपाट का सबसे बड़ा कारण रहा है। मर गए तो जन्‍नत नसीब होगी, जिन्‍दा रहे तो माले गनीमत । गनी बनने के लिए गन उठा लो।

क्‍या आप लोग अब भी नहीं मानेंगे कि कुरान का पुराण भले पश्चिम से लिया गया हो, इसके जिहादी नारों के पीछे हमारी अपनी सोच भी छिपी हुई है। यह दूसरी बात है कि भारतीय समाज ने इस युद्ध के विनाशकारी परिणाम भुगत लिए थे और उस ग्रन्‍थ तक को पढ़ने से बचते थे जिससे उनके विश्‍वास के अनुसार लड़ाई झगड़े हो जाते थे । मेरे घर पर हिन्‍दी में महाभारत था पर उसे पढ़ने की मनाही थी।”

शास्‍त्री जी खिन्‍न हो उठे । डाक्‍साब मैं आप से इतने यान्त्रिक पाठ की अाशा नहीं करता था। यह तो आत्‍मघाती पाठ है जिसमें परिदृश्‍य तक का ध्‍यान नहीं रखा जाता।

मुझे शास्‍त्री जी की टिप्‍पणी गलत नहीं लगी, परन्‍तु सही भी नहीं लगी। बताया तो और भड़क उठे, जो गलत नहीं है वह भी सही नहीं है। विचित्र है।” कहते हुए शास्‍त्री जी मर्यादा का ध्‍यान किए बिना उठे और चल दिए।