निदान – 31
आत्मराग से बचते हुए
”शास्त्री जी, पिछले तीन सौ सालों से पश्चिम वाले यह प्रचार करने में लगे हैं कि हिन्दू देववादी रहे है, अतिरंजना से काम लेते हैं, स्वभाव से भावुक और अन्धविश्वासी रहे हैं, इसलिए ज्ञान-विज्ञान में पिछड़े रहे हैं, इनकी सोच वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती। आपको तो पुराने साहित्य का इतना अच्छा ज्ञान है, इसमें कितनी सचाई है ?”
”डाक्साब, यह उसी सोच का विस्तार है जिसमें वे यह विश्वास दिलाने को व्यग्र थे कि पश्चिम सदा से अग्रणी रहा है, गोरी नस्लें रंगीन कौमों से उत्कृष्ट हैं, जिसका पूरक पद है वे सदा से वैज्ञानिक समझ रखती रही है और दूसरे भावुक, अन्धविश्वासी रहे हैं और वैज्ञानिक सोच और विज्ञान के जन्मदाता वे हैं। ”
मैं कुछ कहता इससे पहले ही मेरा मित्र बोल पड़ा, ”इसमें गलत क्या है ?”
” जिस देश ने शून्य का आविष्कार किया, पहिये का आविष्कार किया, नौचालन में वायु की शक्ति के प्रयोग किये और श्येनपत्वा जहाज बनाए, स्थल का पता लगाने के लिए और सन्देश भेजने के लिए पक्षियों को प्रशिक्षित किया, रात में दिशाबोध और कालबोध के लिए नक्षत्रों औ ग्रहों का अवेक्षण करते हुए ज्योतिर्विज्ञान की नींव रखी, सौर और चान्द्र संवत्सरों का यहा सापेक्ष्य उपयोग करते हुए वर्षमान निर्धारित किया और इनके बीच अन्तर का समायोजन करते हुए अधिमास की कल्पना की, त्रिधातुओं अर्थात् चिकित्सा के आयुर्वेदिक सिद्धान्त का विवेचन किया, सबसे उन्नत लेखन प्रणाली का आविष्कार ही नहीं किया, सुवाह्य लेखन सामग्री पर लिखने और कठोर फलक पर टंकन की युक्तियों का पृथक विकास किया, डेयरी फार्मिंग का आविष्कार किया, कृषि का आविष्कार किया और उसे हलाधारित बनाते हुए उन्नत बनाया, पत्थराें को पालिश करने और मणिवेध और अन्त:खचित मनकों का आविष्कार किया, और, यह सब तो डाक्साब भी लिख आए हैं कि यह चार हजार साल से भी पहले कर लिया गया था, जो अन्यत्र कहीं नहीं हुआ था और जिसे बहुत बाद तक अपनाने की योग्यता तक उनमें पैदा न हुई थी, उसे क्या वैज्ञानिक ज्ञान से शून्य माना जा सकता है। जिसने अष्ठाध्यायी लिखी, महाभाष्य लिखे, जिसमें अर्थशास्त्र लिखा गया, जिसमें भाषाविज्ञान को, चिकित्सा को, दर्शन को, धातु विद्या को, वस्त्र उद्योग में अकल्पनीय प्रगति हुई उसे वैज्ञानिक सोच से शून्य और विज्ञानविमुख मानने वालों को क्या कहा जाय…
शास्त्री जी तनिक ठिठके तो मैंने हँसते हुए कहा, ”पागल कह लीजिए । आपको यह शब्द बहुत पसन्द आ रहा है आज कल।” हँसी में शास्त्री जी भी शामिल हो गए । पर मेरा मित्र शामिल न हो सका।
मैंने कहा, ”खैर आप नहीं कहते तो मैं ही कह देता हूँ कि पन्द्रहवीं शताब्दी तक पश्चिमी समाज धर्मान्ध पागलों के हाथ का खिलौना समाज था। सोलहवीं कहें तो भी गलत न होगा। वे धर्म के नाम पर सबसे अधिक खून बहाते थे लेकिन सामान्य जीवन में भी बात बात भेंड़ा-भिड़न्त से बाज न आते थे, डुएल में। अब उबरे हैं उन मूर्खताओं को त्यागकर। वे विचार और ज्ञान-विज्ञान को अपना शत्रु समझते थे। आज वे पूरी तरह उससे बाहर आ चुके हैं।”
मित्र फिर बीच में टपका,
”उनकी परंपरा ग्रीस तक जाती है जिसके दार्शनिको और चिन्तकों की असाधारण उपलब्धियों का तुम्हें ज्ञान ही नहीं। वे अपने ज्ञान-विज्ञान की परंपरा को उससे जोड़ते हैं जिसमें बौद्धिकता इतनी प्रबल थी कि साहित्य और कला के सामाजिक औचित्य पर बात की जा सकती थी। देव थे पर देवभक्ति नहीं थी। यह है उनकी वैज्ञानिक सोच की जड़ जहॉं से उन्हें प्रेरणा मिलती रही है।”
मुझे स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ गया, ”उनकी परंपरा ग्रीस तक ही नहीं जाती है, कृतघ्नता तक जाती है। उन्हें अपनी भाषा, संस्कृति, दर्शन, साहित्य अनातोलिया से मिला, वहां बसे भारतीयों से, अपना शिल्प मिस्री स्रोत से, अपना अक्षर ज्ञान फीनीशियनों से और अंतिम को छोड़ कर वे स्वयं पके पकाए ज्ञान और शिल्प का जनक मानते रहे जैसे आज के युग में उनको वह आधार जहां से धर्मयुद्धों के दौरान पैदा हुई ऊर्जा ने उस स्रोत को एकदिश किया जो उसे अरबों के माध्यम से एशिया से मिला था। इन सबका नकार पश्चिम की कृतघ्नता को ही नहीं प्रकट करता उसके महान से महान चिन्तक की साख पर भी प्रश्न खड़ा करता है।
”हमने धर्म के नाम पर अत्याचार सहे परन्तु कभी लड़ाई नहीं की क्योंकि यह धर्म की समारी समझ के विपरीत था। जहॉं केवल आततायी का ही वध किया जा सकता था, वहॉं युद्ध एक विवशता तो हाे सकती थी, चुनाव नहीं और धर्म के नाम पर तो असंभव। इसलिए हमने यातना और उत्पीड़न सहे तो पर धर्म के नाम पर हिंसा कभी नहीं की। करने के साथ ही हमारा धर्म नष्ट हो जाता। कितने अकल्पनीय उकसावों में भी हमने इसकी रक्षा की है यह तुम न सोच सकते हो न समझाऊँ तो समझ सकते हो।
”यदि छेंड़ ही दिया तो समझो, हमारे यहां धर्म का आधार औचित्य, नैतिकता और मानवतावाद था इसलिए बिचारों से दूसरों को कायल करना आसान था। मैं भी मानता हूँ कि जिसके पास औचित्य है उसे हथियार उठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमारे यहाँ भी पंडों के अखाड़ों और मठों के बीच झगड़े होते थे परन्तु वे संपत्ति को लेकर होते थे इसलिए उसका प्रभाव धार्मिक निष्ठा पर नहीं पड़ता था। निष्ठा हमारे यहॉं व्यक्तिगत थी, आरती आदि के समय अवश्य निश्चित होते थे, पर उस तरह के आयोजन संभव नहीं थे जो गिरिजाघरों और मस्जिदों में संभव था।”
शास्त्री जी गदगद । ”डाक्साब, अाप ने तो मेरे मुॅंह की बात छीन ली।”
”मैं न किसी के मुंह का नवाला छीनता हूँ न किसी के मुंह की बात । मैं जानता था कि आप यही कह सकते थे और आप की ओर से मैंने कह दिया।इनमें से अधिकांश को लिख चुका हूँ लेकिन ये मीठी गोली की तरह चूसने के काम आती है आज के दिन हम अपने ही मूल्यों से हट गए हैं। एक बार नये सिरे से इस खास कोण से पश्चिम और पूर्व के अन्तर को समझना होगा। आप खुले मन से इसे समझने को तैयार होंगे?” मैं शास्त्री जी की ओर मुड़ गया था।
”डाक्साब आप भी…” शास्त्री जी ने अपना वाक्य पूरा नहीं किया।
”तो फिर कागज कलम तो है नहीं, मोबाइल में नोट ले सकें तो लेते चलिए । पहली बात यह कि पश्चिम ने हमारे ज्ञान का, जिस पर आप गर्व करते हैं और जिससे वंचित हो जाने के कारण मैं अफसोस करता हूँ, उसका अस्सी प्रतिशत हमसे ले लिया है। आधा अरबों के माध्यम से और आधा हमारे संपर्क में आने के बाद और हम भारतीय ही नहीं अरब भी और दुनिया के मुसलमान भी उस चरण को भूल चुके हैं या उसमें अपनी दिलचस्पी खो चुके हैं जब उनके पास सभ्यता के सभी घटक थे और पश्चिम को अंधकार का देश, ज्ञान के और सूर्य के अस्त होने की दिशा, मगरिब, कहते थे। इसलिए जो हमारा था वह हमारा रहा ही नहीं। उन्होंने अपना लिया और हमारे मन में उनके प्रति ऐसी विरक्ति पैदा की कि हम उनसे स्वयं विमुख हो गये। उनकी रक्षा करने को भी अपनी तौहीन समझने लगे। हम विपन्नों की स्थिति में हैं । आज की हमारी भूख पिता जी के जमाने में आप किस तरह जी भर कर खाते और चटखारे लेते थे, उसकी याद करने से नहीं मिट सकती।”
शास्त्री जी ने इसे नोट किया या नहीं, पता नहीं, पर मेरा मित्र मैदान में उतर आया, ”यह तो तुम पुरानी अवस्था में लौटने की बात कर रहे हैं, पश्चगामिता का समर्थन कर रहे हो, पुनरुत्थानवादिता पैदा करना चाहते हो, ये सारी बातें तो प्रगतिविरोधी हैं । इनके बल पर आगे कैसे बढ़ोगे यार ।”
”तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। तुम गधे हो। तुमने तो यही सोच कर अपना इतिहास ही नष्ट कर डाला। मैं पीछे जाने को नहीं कह रहा, चेतना के स्तर यह बोध पैदा कर रहा हूँ कि हम विपन्न नहीं थे। हमारी जलवायु, हमारे स्वभाव में कोई खोट न थी। हमारी परंपरा ज्ञान और विज्ञान के साथ मानवमूल्यों की भी चिन्ता करती थी और कुछ अधिक ही करती थी। इसका संबंध हार्दिकता से है, भावना से है। हमारा विकास सन्तुलित था। आज पश्चिम उसके निकट पहुंचने का प्रयत्न तो कर रहा है पर उसे हासिल नहीं कर सकता क्योंकि उपभोगितावादी इन्द्रियपरायणता का उन मूल्यों से मेल बैठ ही नहीं सकता, इसलिए वे एक ढोंग ही नहीं, विघटनकारी औजार का काम भी कर सकते हैं। मात्र उसकी कोशिश ही यह बताती है कि हम जिस आदर्श को जीवन में उतार चुके थे उसकी ललक आधुनिक मानवतावाद में पैदा हुई है।”
वह मेरी बात से प्रभावित नहीं हुआ, ”कुल लेकर वही आत्मराग, वही चौपाई अपने मुंह तुम आपन करनी, भाँति अनेक बार बहु बरनी।” इस आत्मरति से बाहर आओ ।”